Tuesday, November 5, 2024

गोविंद वंदना

 प्रतिदिन की दिनचर्या के कार्य करते समय मां हमेशा ही भजन गाती रहती थीं। इससे कार्य में तो मन लगा ही रहता था और शायद थकावट भी बहुत कम अनुभव होती होगी। यह भजन तो मैंने उनसे कई बार सुना है; इसीलिए मुझे बहुत अच्छा भी लगता है:

भगवान मेरी यह प्रार्थना है; भूलूं न मैं नाम कभी तुम्हारा 

निष्काम हो कर दिन रात गाऊं; गोविंद, दामोदर, माधवेति

गोविंद, दामोदर, माधवेति; हे कृष्ण, हे यादव, हे सखेति


प्यारे जरा तो मन में विचारो; क्या साथ लाये?अब ले चलोगे? 

जावे यही साथ, सदा पुकारो; गोविंद, दामोदर, माधवेति


 नारी, धरा, धाम, सुपुत्र प्यारे; सन्मित्र, सद्बांधव, द्रव्य सारे

कोई ना साथी, हरि को पुकारो; गोविंद, दामोदर, माधवेति


नाता भला क्या जग से हमारा?आए यहां क्यों?कर क्या रहे हो?

सोचो, विचारो, हरि को पुकारो; गोविंद, दामोदर, माधवेति


 सच्चे सखा हैं हरि ही हमारे; माता-पिता, स्वामी, सुबंधु प्यारे

 भूलो ना भाई, दिन रात गाओ; गोविंद, दामोदर, माधवेति


 माता यशोदा हरि को जगावे; जागो, उठो, मोहन! नैन खोलो 

 द्वारे खड़े गोप बुला रहे हैं; गोविंद, दामोदर, माधवेति 


डाली मथानी दधि में किसी ने; तो ध्यान आया दधिचोर का ही

 मीठे स्वरों से हरि गीत गाती; गोविंद, दामोदर, माधवेति

Piles, fissure, fistula

 कायाकल्प वटी और अर्शोग्रिट वटी का सुबह सवेरे खाली पेट प्रयोग करके इन बीमारियों से शत प्रतिशत मुक्ति पाई जा सकती है। 

प्रभावित स्थान पर लगाने के लिए, एलोवेरा का गूदा सर्वोत्तम है। लेकिन उसमें जात्यादिघृत मिलाकर लगाने से बहुत जल्दी आराम आता है।

प्रातः काल खाली पेट ठंडे दूध में एक नींबू निचोड़ कर एकदम पी लेने से भी यह बीमारी ठीक होती है।

 इसके अतिरिक्त नागदोन नामक पौधे के एक दो पत्ते सवेरे सवेरे खाली पेट चबाकर खाने से भी इस बीमारी में आराम आता है।

यदि केले के अंदर, एक चने के दाने के आकार का, भीम सेनी कपूर का छोटा सा टुकड़ा डालकर; उसे बिना चबाए निगल लिया जाए; तब भी इन समस्याओं से छुटकारा मिल सकता है। यह प्रयोग भी सुबह खाली पेट ही करना चाहिए।

सुबह शाम, खाली पेट, धीरे-धीरे कपालभाति प्राणायाम नियमित रूप से करना चाहिए।  ऐसा करने से परिणाम बहुत शीघ्र आ जाते हैं।

खाना धीरे-धीरे चबा-चबा कर खाना चाहिए जिससे कि कब्ज न हो। अगर कब्ज हो तो रात को सोने से पूर्व त्रिफला लें।  मिर्च मसाले का अधिक प्रयोग न करें। घीया की सब्जी का अधिक प्रयोग करना बहुत लाभकारी रहेगा।

Sunday, November 3, 2024

शुश्रूषा

रेलगाड़ी रफ्तार से चलती जा रही थी। दिन ढल चुका था। सभी यात्री खाना खा चुके थे। प्रत्येक यात्री की सीट पर सफेद चादर और तकिये रखे जा चुके थे। रमेश अपने पिता, पत्नी और बेटे के साथ ट्रेन में सफर कर रहा था।

  सोने का समय हो गया था। इसीलिए रमेश ने सोचा की पत्नी और बेटे के लिए सीट के ऊपर चादर बिछा देता हूं; जिससे वे आराम से सो सकें। पिताजी तो अपनी चादर स्वयं ही बिछा लेंगे। 

ऐसा सोचकर उसने अपने बेटे और पत्नी के लिए सीट पर चादरें बिछा दीं और तकिये भी रख दिए। उसके बाद उसने पीछे मुड़कर देखा।

 उसका बेटा अपने दादाजी की सीट पर चादर बिछा रहा था।  उसके दादाजी आराम से बैठे हुए थे। फिर उसके बेटे ने उनका तकिया भी लगा दिया और अपने दादाजी को कहा, "दादाजी! अब आप आराम से सो जाइए।"

Tuesday, October 1, 2024

कॉफ़ी की महक

 मैं किचन में चाय बना रही थी। उसमें अभी तुलसी के पत्ते डाल ही रही थी, कि अचानक ऋचा की आवाज आई, "मम्मी! कॉफी मत बनाओ। मुझे तो तुलसी की चाय पीनी है।"

 मैंने कहा, "हां! हां! मैं तुलसी की चाय ही बना रही हूं।" 

"तो फिर यह कॉफी की इतनी खुशबू कहां से आ रही है?" ऋचा बोली।

 मैंने कहा, "मैं तो चाय की पत्ती डाल रही हूं। कॉफी की खुशबू कैसे आ सकती है?"

 लेकिन मुझे भी कॉफी की खुशबू आ रही थी। मैंने चाय की पत्ती वाले डिब्बे को गौर से देखा। उसमें चाय ही थी और मैंने चाय ही डाली थी। लेकिन खुशबू तो कॉफी की आ रही थी।  पूरा घर कॉफ़ी की खुशबू से महक रहा था। 

मैं बाहर बालकोनी में गई। मुझे लगा शायद आसपास कोई कॉफ़ी बना रहा है। लेकिन बालकोनी में काफी की कोई खुशबू थी ही नहीं। तब मैंने घर जाकर डाइनिंग टेबल के ऊपर रखे हुए काफी के जार को देखा। सोचा, कि कहीं वह खुला तो नहीं रह गया या टूट तो नहीं गया। लेकिन काफी का जार तो सही सलामत बंद था।

 फिर यह कॉफी की इतनी तेज खुशबू कहां से आ रही है? तभी मैंने ऋचा को देखा। उसने अभी-अभी ताजा अखबार पढ़ने के लिए खोला था। ऋचा अचानक बोली, "अरे! कॉफ़ी की खुशबू तो अखबार में से आ रही है।"

अखबार के मुखपृष्ठ पर, इंटरनेशनल कॉफी डे पर, टाटा कॉफी कंपनी का बहुत बड़ा विज्ञापन था। जिसमें से कॉफी की भीनी भीनी खुशबू भी आ रही थी। उसी से पूरा कमरा महक उठा था।

"तो अब पता चला कि कॉफ़ी की खुशबू कहां से आ रही है!"मैंने ऋचा को तुलसी वाली चाय का प्याला पकडाते हुए कहा।

 "वाह मम्मी! यह तो मजा दोगुना हो गया। हाथ में तुलसी की चाय और कमरे में कॉफ़ी की खुशबू!" 

तभी बाहर दरवाजे की घंटी बजी। दरवाजा खोला तो पाया कि ऊपर वाले फ्लैट की सुधा सामने खड़ी थी। "आओ सुधा!" मैंने कहा।

 "आंटी! कॉफ़ी की बहुत बढ़िया खुशबू आ रही है। आपने कॉफी बनाई है क्या?" 

मैं और ऋचा एक दूसरे को देखकर मुस्कुराने लगे। सुधा सकपका गई। उसने पूछा, "कोई राज की बात है क्या?" 

मैंने कहा, "हां सुधा! ऐसा ही समझो। बात यह है कि मैंने तो चाय बनाई है। लेकिन आज इंटरनेशनल कॉफी डे पर अखबार में कॉफ़ी का विज्ञापन आया है; जिसमें कि कॉफ़ी की खुशबू भी है।" 

"अच्छा, तो यह बात है।"  सुधा भी मुस्कुराई। 

"इसीलिए आपका घर कॉफ़ी की खुशबू से महक रहा है। जब आज इंटरनेशनल कॉफी डे है, तो आंटी; हो जाए एक कॉफी! मौका भी है और दस्तूर भी!"

 मैंने हंसकर कहा, "हां! हां! क्यों नहीं? आखिर कॉफ़ी की खुशबू से घर महक रहा है; तो हाथ में काॅफ़ी का प्याला भी तो होना चाहिए।"

इसके बाद, इंटरनेशनल कॉफी डे पर, सुधा ने भी कॉफ़ी के विज्ञापन में बसी हुई कॉफ़ी की महक के साथ, कॉफी के स्वाद का भी भरपूर आनंद उठाया।

Monday, September 30, 2024

जलने पर...

 रसोई घर में काम करते-करते कई बार हाथ जल जाता है या वैसे भी कभी असावधानीवश, अंगुली या हाथ, पैर या शरीर का कोई भी त्वचा का हिस्सा, अगर थोड़ा बहुत जल जाता है; तो बिल्कुल भी परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।

 अपने घर में हमेशा एलोवेरा का पौधा  रखना चाहिए। जैसे ही शरीर का कोई हिस्सा जल जाए; तुरंत एलोवेरा का पत्ता तोड़े और उसका गूदा उस जले हुए स्थान पर लगा लें। उसके बाद उसे ऐसे ही छोड़ दें। उसे स्थान को न तो किसी कपड़े से पोंछें  और न ही उस पर पानी लगने दें।

अगर आवश्यकता पड़े, तो इस  गूदे को जले हुए स्थान पर बार-बार भी लगाया जा सकता है। ऐसा करने से वहां जलन भी नहीं होगी और जला हुआ त्वचा का हिस्सा बहुत ही कम दिनों मे heal हो जाएगा। Heal हो जाने के बाद भी, उस पर एलोवेरा लगाते रहे; जिससे कि जले हुए का निशान न पड़े। 

एलोवेरा का गूदा लगाते समय, यह ध्यान रखना चाहिए कि जले हुए स्थान पर जख्म या फ़फ़ोला ना हो।


Wednesday, September 25, 2024

दान का चमत्कार!

जॉन डी रॉकफेलर दुनिया के सबसे अमीर आदमी और पहले अरबपति थे।

25 साल की उम्र में, वे अमेरिका में सबसे बड़ी तेल रिफाइनरियों में से एक के मालिक बने और 31 साल की उम्र में, वे दुनिया के सबसे बड़े तेल रिफाइनर बन गए।

38 साल उम्र तक, उन्होंने यू.एस. में 90% रिफाइंड तेल की कमान संभा ली और 50 की उम्र तक, वह देश के सबसे अमीर व्यक्ति हो गए थे।

जब उनकी मृत्यु हुई, तो वह दुनिया के सबसे अमीर आदमी थे।

एक युवा के रूप में वे अपने प्रत्येक निर्णय, दृष्टिकोण और रिश्ते को अपनी व्यक्तिगत शक्ति और धन को बढ़ाने में लगाते थे।

लेकिन 53 साल की उम्र में वे बीमार हो गए। उनका पूरा शरीर दर्द से भर गया और उनके सारे बाल झड़ गए।

नियति को देखिए,उस पीड़ादायक अवस्था में, दुनिया का एकमात्र अरबपति जो सब कुछ खरीद सकता था, अब केवल सूप और हल्के से हल्के स्नैक्स ही पचा सकता था।

उनके एक सहयोगी ने लिखा, "वह न तो सो सकते थे, न मुस्कुरा सकते थे और उस समय जीवन में उसके लिए कुछ भी मायने नहीं रखता था।"

उनके व्यक्तिगत और अत्यधिक कुशल चिकित्सकों ने भविष्यवाणी की कि वह एक वर्ष ही जी पाएंगे।

उनका वह साल बहुत धीरे-धीरे, बहुत  पीड़ा से गुजर रहा था।

जब वह मृत्यु के करीब पहुंच रहे थे, एक सुबह उन्हें अहसास हुआ कि वह अपनी संपत्ति में से कुछ भी, अपने साथ अगली दुनिया में नहीं ले जा सकते।

जो व्यक्ति पूरी व्यापार की दुनिया को नियंत्रित कर सकता था, उसे अचानक एहसास हुआ कि उसका अपना जीवन ही उसके नियंत्रण में नहीं है।

उनके पास एक ही विकल्प बचा था। उन्होंने अपने वकीलों, एकाउंटेंट और प्रबंधकों को बुलाया और घोषणा की कि वह अपनी संपत्ति को अस्पतालों में, अनुसंधान के कार्यो में और धर्म-दान के कार्यों के लिए उपयोग में लाना चाहते हैं।

जॉन डी. रॉकफेलर ने अपने फाउंडेशन की स्थापना की।इस नई दिशा में उनके फाउंडेशन के अंतर्गत, अंततः पेनिसिलिन की खोज हुई,मलेरिया, तपेदिक और डिप्थीरिया का इलाज ईजाद हुआ।

लेकिन शायद रॉकफेलर की कहानी का सबसे आश्चर्यजनक हिस्सा यह है कि जिस क्षण उन्होंने अपनी कमाई का हिस्सा धर्मार्थ  देना शुरू किया, उसके शरीर की हालात आश्चर्यजनक रूप से बेहतर होती गई।

एक समय ऐसा लग रहा था कि वह 53 साल की उम्र तक ही जी पाएंगे, लेकिन वे 98 साल तक जीवित रहे।

रॉकफेलर ने कृतज्ञता सीखी और अपनी अधिकांश संपत्ति समाज को वापस कर दी और ऐसा करने से वह ना केवल ठीक हो गए बल्कि एक परिपूर्णता के अहसास में भर गए। उन्होंने बेहतर होने और परिपूर्ण होने का तरीका खोज लिया।

ऐसा कहा जाता है के रॉकफेलर ने जन कल्याण के लिए अपना पहला दान स्वामी विवेकानंद के साथ बैठक के बाद दिया और उत्तरोत्तर वे एक उल्लेखनीय परोपकारी व्यक्ति बन गए। स्वामी विवेकानंद ने रॉकफेलर को संक्षेप में समझाया कि उनका यह परोपकार, गरीबों और संकटग्रस्त लोगों की मदद करने का एक सशक्त माध्यम बन सकता है।




 

शरणागत

 तेरे नाम का सुमिरन करके, मेरे मन में सुख भर आया

 तेरी कृपा को मैंने पाया, तेरी दया को मैंने पाया


 दुनिया की ठोकर खाकर, जब हुआ कभी बेसहारा

 न पाकर अपना कोई, जब मैंने तुम्हें पुकारा

 हे नाथ मेरे सिर ऊपर, तूने अमृत बरसाया


 तू संग में था नित मेरे, ये नैना देख न पाए

 चंचल माया के रंग में, ये नैन रहे उलझाए

 जितनी भी बार गिरा हूं, तूने पग पग मुझे उठाया


 जब सागर की लहरों ने, भटकाई मेरी नैया

 तट छूना भी मुश्किल था, नहीं दीखे कोई खिवैया 

 तू लहर बना सागर की, मेरी नाव किनारे लाया


 हर तरफ तुम्हीं हो मेरे, हर तरफ तेरा उजियारा

 निर्लेप प्रभु जी मेरे, हर रूप तुम्हीं ने धारा

 मैं तेरी शरण में दाता, तेरा तुझको ही चढ़ाया


 तेरी कृपा को मैंने पाया, तेरी दया को मैंने पाया




Friday, September 13, 2024

मज़े करो!

 अरे भई! यही एक जीवन मिला है, मनुष्य का! कल हम रहे, ना रहे; क्या भरोसा? जितनी जल्दी हो सके, पूरा मजा ले लो जिंदगी का!

 ऐसा बहुत से लोगों का दृष्टिकोण होता है। मुझे कई बार यह सुनने को मिलता है। तब यह समझने में कठिनाई होती है, कि मज़ा क्या है? क्या मज़ा विश्राम को या फिर इधर-उधर घूमने को या फिर उद्देश्यहीन कार्य करने को कहते हैं? शायद ये तो, बिल्कुल भी अर्थ नहीं हो सकते मज़े के। तो क्या मज़े का अर्थ आनंद के संदर्भ में लिया जाए? मेरा मानना यह है कि मज़े शब्द का पर्याय आनंद अवश्य हो सकता है। लेकिन आनंद कब मिल सकता है?

 कदाचित् आनंद की उपलब्धि तभी हो सकती है; जबकि हम अपने आप से पूरी तरह संतुष्ट हो। और, अपने आप से पूरी संतुष्टि तभी प्राप्त हो सकेगी; जबकि हमने अपने सभी कर्तव्य ईमानदारी से निभाए हों। हमें तनिक भी संदेह न हो, कि हमने अपनी क्षमता के अनुसार अपने कर्तव्य निभाने में कोई भी कोर-कसर बाकी छोडी।

 मुझे लगता है, कि कुछ हमारे कुछ कार्य प्रकृति हमें करने के लिए प्रेरित करती है, और बाकी कार्य परिस्थितियों के वशीभूत होकर हमें करने होते हैं। हम ऐसा सोचते हैं, कि हम अपनी पसंद के अनुसार कार्य कर सकते हैं। लेकिन हमारी कर्तव्य निष्ठा में हमारी पसंद का प्रतिशत बहुत ही नगण्य है। आप कह सकते हैं कि अपनी विद्या और व्यवसाय चुनने के लिए आप स्वतंत्र हैं। शायद यह भी अर्ध सत्य ही है। हमारी बुद्धि ,शारीरिक क्षमता और आपके आसपास की परिस्थितियों की, इस विषय में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।

 फिर आपने अपने अनुसार कुछ चुनाव कर भी लिए; तब भी आप कितनी सार्थकता और स्वतंत्रता से, उसे विकसित कर पाएंगे; यह भी प्रकृति और आपकी परिस्थितियों ही निर्धारित कर पाएंगे। चाहे जो भी हो; प्रकृति द्वारा और परिस्थितियों द्वारा दिए गए कार्य को अपनी क्षमता और दक्षता अनुसार करने में हम पूरी तरह स्वतंत्र है। हम इस बात के लिए भी पूरी तरह स्वतंत्र है; कि उस कर्तव्य को हम अपने मन में प्रसन्न होते हुए, निष्ठापूर्वक निभा रहे हैं। 

एकनिष्ठ होकर, यदि हम प्रसन्नतापूर्वक अपने कार्य को करते हुए, अपनी पूरी क्षमता का उपयोग करते हैं; तो सम्भवतः, उस कार्य को करने में हमें पूरी संतुष्टि मिलती है। जब हम पूरी तरह संतुष्ट होते हैं, तभी हमें आनंद की अनुभूति भी अवश्य होती है। वास्तविक आनंद तो, पूरे समर्पण से, अपने लिए निर्धारित कार्य करने में ही है। मन में संतोष होना ही वास्तविक मज़े हैं। पूरी मेहनत के बाद जो भौतिक उपलब्धियां मिलती है, वे तो खुशी प्रदान करती ही है; लेकिन जो मानसिक और आत्मिक उपलब्धियां प्राप्त होती है वही वास्तविक आनंद है; और मज़े भी!

Monday, September 9, 2024

हीरे की लौंग

 अर्धवार्षिक परीक्षा समाप्त हो चुकी थी।  अगले दो दिन तक सभी उत्तर पुस्तिकाओं की जांच कर लेनी थी। उसके बाद विद्यार्थियों के प्राप्तांकों की सूची, विद्यालय के मुख्य परीक्षक को सौंप देनी थी।

 मेरे पास उत्तर पुस्तिकाओं के छः बंडल थे। एक-एक बंडल में कम से कम साठ उत्तर पुस्तिकाएं तो थीं ही। छठी से नवीं तक प्रत्येक कक्षा का एक-एक बंडल, और दसवीं के दो बंडल। 

अब लगभग पौने चार सौ उत्तर पुस्तिकाओं को जांच कर, दो दिन बाद तक, अंक सूची बना देना कोई सरल कार्य नहीं था। एक-एक उत्तर पुस्तिका की जांच में कम से कम दस पन्द्रह  मिनट का समय तो लगता ही है। इसीलिए इतनी सारी उत्तर पुस्तिकाएं जांचना, बड़ा सिर दर्द बन जाता है।

 चाय का प्याला मेज पर रख कर, अभी जांच कार्य प्रारंभ ही किया था; कि दरवाजे की घंटी बजी। सामने कटारिया आंटी अपने जर्मन शेफर्ड कुत्ते के साथ खड़ी थीं। 

"नमस्ते आंटी!  अंदर आइए ना।" 

औपचारिकता वश ऐसा तो मुझे कहना ही था। यद्यपि मैं  बिल्कुल भी नहीं चाहती थी, कि वह इस समय वे मेरे व्यस्त कार्यक्रम में व्यवधान डालें। लेकिन आंटी तो अंदर आकर बैठना ही चाहती थीं।

वे बोलीं, "हां! हां! मैं तुझसे मिलने ही आई हूं। तू तो कभी घर से बाहर निकलती ही नहीं। तो मैंने सोचा कि मैं ही मिल आती हूं।" इतना कह कर वे अपने कुत्ते के साथ अंदर आ गई, और सामने वाले सोफे पर बैठ गई। कुत्ता भी जमीन पर बैठ गया। 

कटारिया आंटी, हमारे घर के सामने वाले घर में ही रहती हैं। उनकी बहू डॉक्टर है, और बेटा बैंक में कार्यरत है। पोता-पोती स्कूल जाते हैं। एक नौकर है; जो उनके घर के सारे काम निपटा देता है। इसीलिए आंटी को कुछ काम तो है नहीं। वे कभी किसी के घर चली जाती हैं; और कभी सामने पार्क के बेंच पर बैठ जाती हैं। विभाजन से पूर्व लाहौर में उनके क्या ठाठ थे; इसी विषय पर अक्सर उनके वार्तालाप में झलक होती है। 

"आंटी! मैं अभी चाय पी रही थी। आपके लिए बनाऊं क्या?"

 "अरे नहीं। मैंने चाय छोड़ दी है। तू आराम से बैठ। कुछ गपशप करेंगे।" आंटी बोली।

 उनका कुत्ता बहुत ही शांत स्वभाव का है। वह आंटी के पैरों में चुपचाप बैठा था और अपनी भोली भाली आंखों से मुझे निहार रहा था।

 खैर, छोड़िए इन सब बातों को! वास्तविक मुद्दा तो यह है, कि मेरे सामने बहुत सारा कार्य था और समय का नितांत अभाव था यहां आंटी मेरे साथ समय को व्यतीत करने आई थीं। अब चाय के लिए तो उन्होंने मना कर ही दिया था। अतः मैं कुर्सी पर बैठी, और उत्तर पुस्तिकाएं जांचनी शुरू की। 

आंटी ने अपनी बातें करनी प्रारंभ कर दी। इधर-उधर के किस्से, अड़ोस पड़ोस की बातें या अपनी बीमारी की परेशानियां। यही सब विषय होते हैं; उनकी वार्तालाप के! मैं उत्तर पुस्तिकाएं जांचते हुए, बीच में हां, हूं, करती रही। 

अचानक वह बोलीं, "तू तो कुछ बात कर ही नहीं रही है। मैं ही बोले जा रही हूं।"

 "आंटी! मुझे पेपर चेक करने है ना! आज मैं ज्यादा बात नहीं कर पाऊंगी।" 

"ले! यह क्या बात हुई? ऐसी कौन से पेपर है; बाद में चैक कर लियो। ऐसी भी क्या जल्दी है?"

 "आंटी! ये दो दिन बाद चैक करके वापस देने हैं। बहुत सारा काम है।"

 "तू तो बहुत बिजी है। मैं जा रही हूं।" ऐसा कहकर वह अपने कुत्ते को के साथ दरवाजे की और बढीं। शायद सोच रही होंगी कि मैं उन्हें रोक लूंगी।

 लेकिन मैंने कहा, "ठीक है आंटी! फिर कभी इत्मीनान के साथ बात करेंगे।"

 वे जल्दी से बाहर निकल गई। मैंने भी चैन की सांस ली और दरवाजा बंद करके फिर अपने जांच कार्य में लग गई।

 लगभग पांच मिनट बाद, फिर दरवाजे की घंटी बजी। मैंने दरवाजा खोला तो पाया, कि कटारिया आंटी सामने खड़ी हैं। 

"हांजी आंटी?!"

 "मेरी कान की लौंग गिर गई है। हीरे की लौंग थी। तेरे घर में तो नहीं गिर गई?" आंटी बहुत चिंतित और घबराई हुई लग रही थी। 

"अंदर आ जाओ आंटी! सोफे के आस-पास और फर्श पर ढूंढ लेते हैं।"

 हमने सोफे की गद्दियां उलट पलट कर, पूरे फर्श का दरवाजे  तक बड़े ध्यान से निरीक्षण किया। लेकिन कुछ भी दिखाई नहीं दिया। 

"पता नहीं कहां गिर गई मेरी हीरे की लौंग? बस अपने घर से तेरे घर तक ही आई हूं। अपने घर में फिर से ढूंढ लेती हूं।" ऐसा कह कर आंटी चली गईं।

 परेशान तो मैं भी हो गई। उत्तर पुस्तिकाएं छोड़कर मैं उनकी लौंग ढूंढने का प्रयत्न करने लगी। अचानक मेरी निगाह सोफे के नीचे की तरफ गई। वहां लौंग के पीछे का सोने का पेच पड़ा हुआ था। लेकिन लौंग का नामो निशान न था। मैंने दोबारा सोफे की गद्दियां झाड़-झाड़ कर देख लीं। लेकिन कहीं भी पर भी लौंग न दिखाई दी। 

मैं पेच लेकर उनके दरवाजे पर गई।  आंटी ने दरवाजा खोला तो मैंने उन्हें पेच दिखाया। मैंने कहा, "आंटी! आपकी लौंग का पेच तो मिल गया; लेकिन लौंग कहीं नहीं मिली।" 

आंटी एकदम खुश हो गई। वे बोलीं, "हां। यह पेच उसी  लौंग का है। जहां पेच गिरा था, वहीं लौंग होगी। मेरी हीरे की लौंग थी। फिर से ढूंढते हैं।"

 आंटी दोबारा मेरे घर आई और बड़ी शिद्दत से लौंग ढूंढने लगीं। मैं भी उनके साथ ढूंढने में लग गई। लेकिन लौंग न मिलनी थी, तो नहीं मिली। आंटी मुझे देखते हुए, बार बार यही कहे जा रही थी, "जहां पर पेच गिरा, वहीं लौंग होनी चाहिए। लौंग और कहां जा सकती है? यहीं पर ही मिलनी चाहिए।"

 मैं  सकपका गई। कहीं ये ऐसा तो नहीं सोच रही है कि मैंने  लौंग अपने पास रख ली है और पेच उन्हें वापस कर दिया है? ऐसा प्रतीत हो रहा था; जैसे उनकी संदेह भरी नजरें और वाणी, मेरे मन और मस्तिष्क का एक्सरे ले रही हों। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अब मैं क्या करूं? मैंने सोचा कि देखा जाएगा; जो होगा, सो होगा। अभी तो उत्तर पुस्तिकाएं जल्दी-जल्दी जांच कर, अपना कार्य निपटाती हूं। 

मैंने कहा, "ठीक है आंटी! थोड़ी देर बाद, फिर से ढूंढ कर देखती हूं।"

 उनके जाने के बाद, मैंने जल्दी-जल्दी पेपर चेकिंग शुरू की। दो-चार उत्तर पुस्तिकाएं ही जांच पाई हूंगी; कि आंटी ने फिर दरवाजे की घंटी बजाई। मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई। मैंने सोचा कि अब क्या शामत आने वाली है?

 दरवाजा खोला, तो कटारिया आंटी हाथ में हीरे की लौंग लिए हुए खड़ी थीं। वे बोलीं, "मैं तेरे घर से अपने घर तक, रास्ते में ध्यान से देखी हुई जा रही थी। तभी मुझे कुछ चमकता हुआ लगा। यह लौंग, एक सूखे पत्ते के नीचे से चमक रही थी। भगवान का लाख-लाख शुक्र है, कि मेरी हीरे की लौंग मिल गई।" 

मेरी जान में जान आई। मैंने कहा, "आंटी! यह तो बहुत ही अच्छा हो गया, कि लौंग वापिस मिल गई। भगवान का धन्यवाद तो करना ही चाहिए; लेकिन अब आप लौंग के पेच को कसकर बंद किया करना। "

 "हां! हां! और क्या? अब तो मैं ज्यादा ध्यान रखूंगी।" कह कर आंटी वापस चली गईं। 

मैंने उनके जाने के बाद चैन की सांस ली। मुझे लगा कि पत्ते के नीचे छिपी हीरे की लौंग ने, अपनी झलक दिखा कर, आंटी की नजरों में, सदा के लिए बस जाने वाली 'चोर' की उपाधि से मुझे बाल-बाल बचा लिया।

Monday, August 26, 2024

बुलबुल का बच्चा

 कृष्णा बालकोनी का पोछा लगा चुकी थी। पोछे को धोकर वह बाल्टी का पानी क्यारी में डालने ही वाली थी; कि अचानक चिड़ियों का शोर होने लगा। कृष्णा ने देखा कि पेड़ की डाली पर बुलबुल का जोड़ा बहुत जोर से शोर मचा रहा था।

 सहसा उसकी नजर नीचे पडी, तो उसने देखा कि बुलबुल का नन्हा सा बच्चा जमीन पर पड़ा था। बुलबुल का जोड़ा उसे ही देख देख कर शोर मचा रहा था। कृष्णा समझ गई कि यह इन्हीं का नन्हा बच्चा है; और यह इसे उड़ना सिखा रहे हैं।

 तभी सामने के घर से अलीना भी निकल आई। वह सामने वाले घर में काम करती है। वह भी पूछने लगी कि यह शोर क्यों हो रहा है? उसकी भी नजर बच्चे पर पड़ी। वह बोली कि इस बच्चे को तो बिल्ली खा जाएगी। 

उसने देख लिया था कि पेड़ के पीछे, बिल्ली छिप कर बैठी हुई थी। बिल्ली की पैनी नजर बुलबुल के बच्चे पर थी। बिल्लियों को पक्षियों का मांस खाना बहुत अच्छा लगता है। और यहां तो पक्षी के नन्हे बच्चे का स्वादिष्ट नाश्ता तैयार था। वह ललचाई नजरों से बुलबुल के बच्चे को लगातार देखे जा रही थी।

कृष्णा ने कहा, "इस बच्चे को ऊपर पेड़ पर रख देना चाहिए।" नहीं तो बिल्ली से जरुर खा जाएगी। लेकिन अलीना तो, उसे छूने से भी डर रही थी। 

कृष्णा ने एक कपड़ा लिया, और छोटे से बच्चे को सावधानी से उठाकर, पेड़ की डाली पर बिठा दिया। बुलबुल का जोड़ा यह सब देख रहा था। उनकी आवाज़ भी बंद हो गई थी। शायद उन्हें तसल्ली हो गई थी कि अब हमारा बच्चा सुरक्षित है। 

कृष्णा ने कहा, "अब ये बच्चे को उड़ा ले जाएंगे।" कृष्णा तो चली गई; लेकिन थोड़ी ही देर में बुलबुल के जोड़े का फिर से शोर आने लगा। 

रुद्रांश ने बाहर जाकर देखा, तो बिल्ली नीचे बैठी ललचायी नजरों से,  बुलबुल के बच्चे को देख रही थी। उसने तभी बिल्ली को डंडा मार कर भगा दिया। बुलबुल का जोड़ा, अपने बच्चे को, जल्दी से उड़ना सिखाना चाहता था। 

थोड़ी देर में, फिर से बुलबुल के जोड़े की, शोर मचाने की आवाज आने लगी। 

रुद्रांश समझ गया कि फिर से बिल्ली आई है। उसने कहा, मैं अपने पास डंडा रखकर, बाहर बालकोनी में ही बैठकर, होमवर्क कर लेता हूं। बिल्ली आएगी, तो उसे भगा दूंगा। तब तक शायद यह बच्चा भी उड़ना सीख जाएगा।" 

रुद्रांश के बाहर बालकोनी में बैठने पर, बुलबुल का जोड़ा निश्चिंत हो गया और बच्चे को उड़ाने की कोशिश करता रहा। बच्चा बार-बार डाली पर बैठा-बैठा पंख फड़फड़ाता, और फिर उड़ने की कोशिश करता। वह छोटी-छोटी उड़ान भर रहा था। 

बिल्ली भी बहुत दूर बैठी थी। वह रुद्रांश को देख रही थी; लेकिन उसकी पास आने की हिम्मत नहीं हो रही थी। अचानक वह तीव्रता से बच्चे के करीब आने की कोशिश करने लगी। फुर्ती से रुद्राक्ष ने उसे दूर से ही डंडा मारा। वह बहुत दूर भाग गई। उसके बाद, बुलबुल का जोड़ा अपने बच्चे को उड़ाने की कोशिश में लगा रहा। 

आखिरकार उन्हें सफलता भी मिल गई। बच्चा उड़ना सीख गया। वह थोड़ी दूर उड़ान भरकर, दूर वाले पेड़ पर जा बैठा। अब बुलबुल का जोड़ा बड़ा प्रसन्न था। उन्हें अंदाजा हो गया होगा, कि अब बच्चा उड़ान भर सकेगा। वह भी उसके साथ दूसरे पेड़ पर चले गए।

 रुद्रांक्ष घर में वापिस आ गया। लेकिन इसके बाद बुलबुल के जोड़े का कोई शोर नहीं सुनाई दिया। लगता था कि उनके बच्चे ने उड़ान भरनी सीख ली होगी। 

अगले दिन हमने कृष्णा को सारा किस्सा बताया, तो वह बहुत खुश हुई। उसने कहा, "चलो यह अच्छा है  कि बच्चे की जान बच गई, और उसने उड़ना भी सीख लिया।"

रुद्रांश बोला, "आंटी! मुझे थैंक्स दो। मैंने बच्चे को बिल्ली से बचाया। अगर मैं बच्चे को बिल्ली से न बचाता, तो वह बिल्ली तो बच्चे को खा ही जाती।"

 कृष्णा मुस्कुरा कर बोली, "थैंक्यू रुद्रांश!" 

आजकल वह बुलबुल का जोड़ा, फिर से शायद अंडे सेने में व्यस्त है।

Tuesday, August 6, 2024

समोसा चोर!

 पंचमढ़ी, मध्य प्रदेश के खूबसूरत स्थान में से एक प्रसिद्ध स्थान है। 

"इस बार पंचमढ़ी घूमने के लिए चलते हैं।" ऋचा ने सुझाव दिया।

 "अरे वाह! यह तो बहुत अच्छा आईडिया है। वहां मौसम भी बहुत अच्छा है; और नजारे भी। चलो पंचमढ़ी ही चलेंगे" रैना बोली। संदीप ने सहमति दी और उत्कल भी तैयार हो गया।

 चारों मित्र, अपने बच्चों रुद्रांश और वेदांश के साथ पंचमढ़ी पहुंच गए। वास्तव में ही बहुत सुंदर जगह है पंचमढ़ी। होटल में अपने कमरों मे अपना सामान रखने के बाद इन लोगों ने कुछ नाश्ता लिया। चाय पानी पीने के बाद सभी बाहर के नजारे देखने के लिए निकल पड़े। रास्ते में एक जगह पर कुछ लोग बेर बेच रहे थे। बहुत मीठे और स्वादिष्ट बेर प्रतीत हो रहे थे। सभी ने एक-एक छोटा पैकेट बेर लिए और पैदल ही, प्राकृतिक दृश्य का मजा लेते हुए चलने लगे। 

अचानक रास्ते में उन्हें कुछ बंदर मिले। इनमें से एक बंदर बडे ध्यान से इन्हें देख रहा था। उत्कल ने एक बेर उसकी तरफ फेक लेकिन उसने वह बेर नहीं उठाया। वह उत्कल की तरफ बढ़ आया और दोनों हाथ फैला दिए। ऐसा लग रह रहा था, मानो कह रहा हो,  "देने हैं बेर; तो पूरा पैकेट ही दे दो ना! एक एक बेर क्यों दे रहे हो?" 

उत्कल ने पूरा पैकेट उसे पकड़ा दिया। वह दूर चला गया वहां बैठकर उसने सारे बेर खा लिए। और बाद में नीचे पड़ा हुआ बेर भी उठा कर खा लिया; जो कि उत्कल ने सबसे पहले दिया था।

 एक बंदर ने संदीप के हाथ से पानी की बोतल छीन ली। उसने बोतल का ढक्कन नहीं खोला; बल्कि बोतल के नीचे दांतों से छेद किया और फिर पानी पीया।

 थोड़ा बहुत घूमने के बाद ये सभी अपने होटल वापस चले। रास्ते में एक दुकान से हल्दीराम के छोटे-छोटे समोसे भी खरीद लिये। ऋचा ने एक दर्जन केले भी ले लिए।

 होटल के कमरे में जाकर उन्होंने मेज पर समोसे और केले रख दिए। कमरे में एक बड़ी सी खिड़की थी। रुद्रांश ने पूरी खिड़की खोल दी। खिड़की से मजेदार ठंडी हवा आ रही थी। सामने ही बड़ा सा पेड़ था। उसकी डालियों पर कई बंदर भी बैठे थे। ऋचा, उत्कल और रुद्रांश आराम से कुर्सियों पर बैठ गए और टीवी का स्विच ऑन किया।

 तभी बिजली की फुर्ती से एक बंदर खिड़की के अंदर आ गया। उत्कल ने तुरंत उसे भगाया। फिर उन्होंने सारा सामान चैक किया कि कहीं बंदर कुछ ले तो नहीं गया? चश्मा, घड़ी, पर्स, केले सभी वस्तुएं सुरक्षित थी। सभी निश्चित हो गए कि बंदर कुछ नहीं ले गया है। रुद्रांश ने कहा, "खिड़की बंद कर देनी चाहिए। कहीं फिर बंदर आ गए तो?"

 वह खिड़की का दरवाजा बंद करने गया, तो सामने पेड़ पर नजर गई। वह बंदर हाथ में हल्दीराम का थैला लिए बैठा था। और उसमें से समोसे निकाल-निकाल कर खा रहा था। तीनों को बहुत हंसी आई। रुद्रांश ने रैना, संदीप और मेदांश को भी बगल वाले कमरे से बुलाकर, यह दृश्य दिखाया। उन  तीनों को भी यह दृश्य देखकर बहुत मजा आया। 

मेदांश अचानक बोल उठा, "समोसाचोर बंदर! हमारे समोसे वापस कर।"

उसकी नटखट अभिव्यक्ति का अलग अंदाज देखकर सब मुस्कुरा उठे।


Saturday, August 3, 2024

साठ के ठाठ!

साठ को पार किया, 

जीवन संग्राम जिया

थोड़ी धूप बाकी है,

छांह का आनंद लिया 


देहरी पर छाया है

झूठी सब माया है

देहबोध जागा अब,

सत्य, स्वस्थ काया है 


बेसुध सा बीता कल 

खोए से सिमटे पल 

अनुभव दे लुप्त हुआ, 

अतीत आंखों से ओझल 


अब कोई चाह नहीं

कोई परवाह नहीं

जागा प्रसुप्त हृदय 

चुन ली है राह नई 


बंधन से मुक्त समय 

जीवन में स्वप्न विलय 

कल्पना है कोरी सी 

छंदों के बंध अभय


जीवन में हो प्रवाह 

होगा तब शून्य दाह 

चिंता, भयमुक्त हृदय; 

भर देगा नव उछाह


जीवन अब एक पाठ

उम्र है जब साठ आठ 

उन्मुक्त, निर्मल तन-मन; 

भर देंगे आनंद ठाठ!

Thursday, August 1, 2024

तुम्हारा इंतजार है!

  "कल रविवार है। प्लीज, आप मेरे घर आइए न! मम्मी ने भी आपको बुलाया है।"रश्मि बहुत आग्रह पूर्वक मुझे अपने घर ले जाना चाहती थी।

 रश्मि, ऋचा के साथ एमडीएस की पढ़ाई कर रही थी। रश्मि बेंगलुरु में ही रहती थी। वह कन्नड़ थी। मैं छुट्टियों मे ऋचा के पास पी जी हॉस्टल में रहने गई हुई थी। उन दिनों मेरा पुत्र, अंकित भी अमेरिका से आया हुआ था। वह बैंगलुरु में, हमारे साथ ही हॉस्टल में ठहरा हुआ था। 

 इतने प्यार से वह बुला रही थी, कि मैं मना न कर पाई। फिर मुझे कन्नड़ परिवार का रहन-सहन और खान-पान देखने की उत्सुकता भी थी। हमने निर्णय लिया कि प्रातः काल का नाश्ता उन्हीं के घर पर करेंगे।

 बहुत सादगी से परिपूर्ण वातावरण था, उनके घर का। उनके पिता उच्च सरकारी पद पर नियुक्त थे। लेकिन उनमें रत्ती भर भी अभिमान न था। रश्मि की मां ने नाश्ते में जो स्वादिष्ट इडलियां खिलाई; उनका तो जवाब ही नहीं! बिल्कुल रुई जैसी नरम इडलियां, मजेदार चटनी और सांभर! उसके बाद फिल्टर कॉफी की चुस्कियां ली। खूब गपशप की और वापस हॉस्टल आ गए।

 एमडीएस की पढ़ाई में एक बैच में तीन छात्र-छात्रा ही होते हैं। तीन वर्ष की पढ़ाई में वे अच्छे मित्र भी बन जाते हैं। रश्मि और   ऋचा के अतिरिक्त, अविनाश नाम का छात्र भी, इनका सहपाठी था। बेंगलुरु से जब मेरा वापस आना हुआ; तब भी रश्मि मुझसे मिलने आई थी। उसने मुझे तिरुपति जी की प्रतिमा उपहार में दी थी; जो आज भी मेरे पास है।

 अचानक सोलह वर्ष बाद रश्मि का फोन ऋचा के पास आया। "मेरी दिल्ली में पोस्टिंग हो गई है। मैं तुझसे मिलने आ रही हूं।" रश्मि ने अंग्रेजी में कहा। रश्मि कन्नड़ या अंग्रेजी भाषा बोलना ज्यादा पसंद करती है।  

ऋचा तो हैरान हो गई यह सुनकर, कि रश्मि की पोस्टिंग दिल्ली में हो गई है!

 "अरे! तू दिल्ली कब आई?"

 "अभी एक महीने पहले मैंने ज्वाइन किया है। इस रविवार को आती हूं, तेरे घर। ठीक है?"

 "हां। हां। जरूर!"

 ऋचा ने यह तो सुना था, कि रश्मि ने एमडीएस की पढ़ाई के बाद प्रेक्टिस नहीं की। उसने अपने पति के साथ ही आई ए एस की परीक्षा की तैयारी की थी। यद्यपि वह एक बच्ची की मां भी बन चुकी थी। फिर भी, उसने बहुत परिश्रम से पढ़ाई की और आई ए एस  की परीक्षा पास कर ली। उसके पति ने उसके भी अगले वर्ष यह परीक्षा पास की। लगभग दस वर्ष बेंगलुरु में ही उसकी नौकरी थी।

 अब उसकी पदोन्नति होनी थी। इसलिए उसे दिल्ली में पोस्टिंग लेनी थी। जब वह अपने विभाग से भली भांति परिचित हो गई और कुछ खाली समय मिला, तो उसे ऋचा की याद आई। अविनाश के पास ऋचा का फोन नंबर था। उसने अविनाश से ही फोन नंबर लेकर ऋचा से बात की।

 पहले तो रश्मि ने सोचा कि वह दोपहर को हमारे घर आएगी। लेकिन आई ए एस  पदाधिकारी की कभी भी मीटिंग हो जाती है। उसकी शाम को कोई जरूरी मीटिंग थी। इसीलिए उसने सुबह हमारे यहां आने का प्रोग्राम बनाया।

 रश्मि को देखकर लगा ही नहीं कि वह बदल गई है। बिल्कुल पहले जैसी ही लग रही थी। उसने सूट सलवार और चुन्नी पहनी पहनी हुई थी। बिल्कुल सादगी से भरपूर थी वह!

 "अरे बेटा रश्मि! तुम बिल्कुल ही पहले जैसी ही लग रही हो। कितना अच्छा लग रह रहा है तुमसे मिलकर! कितने वर्षों के बाद मिले हैं हम।"

 "हां आंटी! मेरी लाइफ तो बहुत ज्यादा बिजी हो गई है। लेकिन मिलने का बहुत मन था।" रश्मि भी भाव विभोर थी। 

उसके बाद तो बातों का सिलसिला जो चला तो बस चलता ही गया। कितनी पुरानी बातें, बीती यादें, दोनों सहेलियों ने मन में संजोई हुई थी। खूब ठहाके लगे। दोनों ने मिलकर अविनाश को वीडियो कॉल भी कर लिया। आपस में बहुत मजे किए तीनों ने! खूब हंसे, और एक दूसरे की खिंचाई भी की।  

अविनाश ने मुझसे भी बात की। वह मेरे द्वारा बनाए परांठों की प्रशंसा कर रहा था। मैंने उसे बताया कि आज भी लंच में पराठे ही बनाए हैं। बहुत सादा लंच था। परांठे, आलू की सब्जी और खीर। लेकिन रश्मि तो वह खाकर बहुत खुश हो गई। उसने बताया कि वह नाश्ते में इडली पोहा, और डिनर में रागी और सांभर खाती है। रश्मि के पास बहुत से नौकर हैं। उसे बहुत सुविधाएं हैं। लेकिन कैबिनेट मिनिस्टर कभी भी मीटिंग के लिए बुला लेते हैं। उसने यह भी बताया, कि कुछ दिनों में उसको सरकारी आवास मिल जाएगा। तब वह हमें अवश्य बुलाएगी।

फिर, उसने ऋचा से भी, उसके कार्य के बारे में पूछा। वह हैरान हुई, ऋचा के मरीजों की संख्या सुनकर! ऋचा की योग्यता के बारे में तो रश्मि पूर्णतः अवगत थी। यद्यपि पाठ्यक्रम में निपुणता हासिल करना भी बहुत महत्वपूर्ण है; लेकिन दक्षता और कौशल के आधार पर अपनी साख बनाना, वाणिज्यिक जीवन का, बिल्कुल अलग पहलू है। वास्तविक धरातल पर अपना प्रभाव क्षेत्र स्थापित कर लेना, सरल नहीं होता। वह, ऋचा से थोड़ी बहुत, ईर्ष्या भी कर रही थी; क्योंकि जिस विद्या में वह निष्णात थी, उसका वह अधिक लाभ प्राप्त नहीं कर सकी थी।

 रुद्रांश ने, रश्मि को गिटार पर, गाने की धुन सुनाई, तो उसे बहुत मजा आया। उसे वापस जल्दी ही जाना था; क्योंकि अगली मीटिंग के लिए उसे काफी पढ़ाई भी करनी थी। उसने फिर आने का वायदा किया, और रुद्रांक्ष को प्यार किया। मीठी यादों में हमें डुबोकर, वह वापस चली गई।

 रश्मि! हम सब तुम्हारा इंतजार करेंगे!

Wednesday, July 17, 2024

भरत की बारहमासी

हवेली के आंगन में ठिठोली करती हुई, घर की स्त्रियां, विभिन्न कार्यों में व्यस्त रहती थीं।  इसमें काढना, बुनना, कढ़ाई करना, अनाज बीनना आदि प्रमुख रहते थे। लेकिन इस व्यस्तता को भी मनोरंजक बनाने के लिए, वे कार्य के साथ ही, गीतों का, भजनों का, सामूहिक गायन भी किया करती थीं। बच्चे आसपास ही खेलते रहते थे। इसीलिए वे भी इन गीतों को, भजनों को, शनैः शनैः आत्मसात करते रहते थे।

 मां की एक बाल विधवा बुआ, "भरत की बारहमासी" बहुत लयबद्ध तरीके से गाती थीं। श्रुत परंपरा से आई यह विधा, उन दिनों बहुत प्रचलित थी। इस "भरत की बारहमासी" की भाषा बहुत सहज और सरल है; लेकिन इसमें तत्सम शब्दों का भी प्रयोग है! काव्य की चित्रात्मकता भी अद्भुत है। साल के बारह महीनों में, एक प्रसंग के संपूर्ण विवरण की अनुपम अभिव्यक्ति है। अंतिम पद में,रचनाकार ने अपने नाम, स्थान और रचना के समय का बड़ी कुशलता से परिचय दिया है। आप भी आनंद लें:


रामा चैत पिछले पाख, रामनवमी को जन्म लियो 

 अवधपुरी सुखधाम, सभीन्ह मिल मंगलाचार कियो

 खबर जब दशरथ ने पाई

 दिए दान गजदान; गऊ दिन थोड़े की ब्याही

 सभा सब प्रफुल्लित हो  आई

करम रख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई

 राम गुण गाओ रे भाई

 भजने को हरी नाम; तरण को श्री गंगा माई 


रामा लागत ही वैशाख, कैकई बावरी कर डारी

 भरत कहें  धिक् जीवन; मिली जो तुम सी महतारी

 दुःख सब नगरी को दीन्हा

तीन लोक के नाथ, राम को वनवास दीन्हा

 क्रूर मति ऐसी बन आई 

करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


रामा जेठ पंच मिल कहें, भरत को  गद्दी बैठारो

 भरत धरत कानन पर हाथ, नाथ मोहि गर्दन मत मारो

 सरे नहीं इन बातन काजा

 हम तो उनके दास, राम वे अयोध्या के राजा

 बात सबके ही मन भाई

 करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


रामा आषाढ़ आशा राम मिलन की, लाग रही मन ही 

 राम कौन बन? मोहि बताओ, भरत ने बात कही

 नगर के सब नर अरु नारी

 रथ, डोला, गज, बाजि, भीड़ भई भरत संग भारी

 नदी ज्यों सागर को  धाई

 करमरेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई 


रामा श्रावण शृंगवेरपुर पहुंचे, भीड़ भई भारी

 भीलन जोड़ कटक दल साज्यो, लड़ने की तैयारी

 भरत साें मिलकर रार करो

 राम लषण सिय के हित जूझ, गंगा के तीर मरो

 भरत ने ऐसे सुन पाई

 करमरेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई 


रामा भादों भील भरत सो भेंटे, भक्ति जान मन में

 कंदमूल फल फूल, भरत की भेंट किए बन में

 भरत ने भील अगुवा कर लीन्हे

 द्वादश व्रत प्रयाग में कर, भारद्वाज दर्शन कीन्हे

 प्रयाग की जो दुनिया चली आई

 करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


राम क्वार करी मेहमानी, मुनिजन पूछी कुशलाता

 दोऊ कर जोड करी परिक्रमा, कौशल्या माता

 हमरो जीवन सफल भयो

 ब्रह्मा विष्णु सबन मुनि मिलकर, आशीर्वाद दियो

भरत की माता समझाई

करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


रामा कातिक कूच प्रयाग से कीन्हा, चित्रकूट आए

 बलकल चीर, जटा सिर बांधे, राम लषण पाए

 भरत चरणों में जाय पड़े

 तुरत उठाय राम उर लाये, नैनन नीर भरे 

भरत मेरे भैया सुखदाई

 करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


रामा अगहन बारंबार भरत को, रघुवर समझावें 

 भरत उलट घर जाओ, राज तुम करो अयोध्या में 

 लोग सब ही सुख पाएंगे

 चौदह वर्ष जायें बीत, तब हम घर आएंगे

 भरत सों ऐसे ठहराई

 करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


रामा  पूस मास सिय राम लषण पर, जुड़ गई भीड़ घनी

 जनक वशिष्ठ सभी समझावें, कहें अपनी अपनी

 विनती बहुत भांति किन्हीं

 राम प्रताप और चरण खड़ाऊ, भरत को दीन्हीं

 उलट तुम घर जाओ भाई

 करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


रामा माह मनायो मान गए तब, भली लगी रामे

 जनक तो आए जनकपुरी में, भरत अयोध्या में

 खड़ाऊ गद्दी धर दीन्ही

 राम लषण से कठिन तपस्या, भरत ने कीन्ही

बडाई या ही ने पाई

करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


रामा फागुन फेर हरि सिय रावण, उसको बस कीन्हा

 लंका जाय भक्ति मन भावन, राज विभीषण को दीन्हा  

विभीषण गद्दी बैठाये

 शिव सनकादि आदि ब्रह्मादिक, दर्शन को धाये

 राम को गद्दी ठहराई

 करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


रामा नब्बे मास लौंद के भादों, अगहन ग्रहण पडो

 बांस बरेली के लाल दास ने, राम नाम उचरो

 भरत की यह बारहमासी

 गावे, सुने, परम पद पावे, कट जा यम फांसी

 वेद में ऐसे ही गाई

 करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई

 राम गुण गाओ रे भाई

 भजन को हरी नाम, तरण को श्री गंगे माई


Saturday, July 6, 2024

मूक अभिव्यक्ति

 सांस जब थिरकती हैं 

 अपने सुर ताल में

 दर्शन तब होता है 

मन दर्पण संजोता है 

अपने ही बिम्ब को

 अपने ही भाल में।


 मायावी कारीगर

 तंतु तंतु बुनता है 

रूप रंग चुनता है

 कंपन भर देता है

 सृष्टि विशाल में।


 कितना हितकारी है

 किसके सिर भारी है

कौन कभी उलझा नहीं 

पल-पल के रचित घटित

 मायावी जाल में।


 कुंठा जब दूर हुई

सरलता का साथ मिला

 पाया तब विश्व विदित 

व्यापक उस नायक को

 निज मन विशाल में।

Monday, July 1, 2024

अपनी अपनी अपेक्षा!

 टिंकू को बुखार था। वह कुछ भी खा पी नहीं रहा था। बुखार भी उतरने का नाम नहीं ले रहा था।

 राधा के तीन बच्चों में से, टिंकू बीच वाला बेटा था। सबसे छोटा बेटा रिंकू, खिलौनों से खेल रहा था और सबसे बड़ा बेटा बंटी, होम वर्क कर रहा था।

 दादी बाहर से आई, तो उसके हाथ में सेब से भरा थैला था। दादी को टिंकू के बुखार की बहुत चिंता थी। उसने राधा से टिंकू के बुखार के बारे में पूछा। राधा ने बताया कि टिंकू कुछ खा पी नहीं रहा है। दादी ने राधा को सेब देते हुए कहा, "इसे यह सेब काटकर खिला दे। इसे अच्छा लगेगा। मुंह का स्वाद कड़वा हो रहा होगा; जायका बदल जाएगा।"

 राधा ने प्लेट मे सेब रखा और छीलना शुरू किया।  रिंकू ने जब यह देखा, तो झटपट खिलौने छोड़कर, मां के पास आकर खड़ा हो गया। राधा प्लेट में छिले हुए सेब काट कर, फांकें रख रही थी। साथ-साथ टिंकू को भी खिला रही थी। टिंकू की तबीयत ठीक नहीं थी। वह धीरे-धीरे सेब खा रहा था। लेकिन रिंकू जल्दी-जल्दी प्लेट से उठाकर, सेब की फांकें,  गपा-गप कर रहा था। यह सब देखकर, बंटी भी, वहीं आकर खड़ा हो गया। वह देखता रहा। जब सब खत्म हो गया, तो वह फिर से होमवर्क करने लगा।

 रात को, बंटी दादी के साथ बिस्तर पर लेटा, तो दादी बोली, "देख बंटी! तेरी मम्मी ने, रिंकू को सेब खाने के लिए, बिल्कुल भी मना नहीं किया। बेचारा टिंकू तो सेब की एक दो फांक ही खा पाया। बता मुझे, कि तेरी मम्मी को, रिंकू को, डांट लगानी चाहिए थी कि नहीं?"

 "पता नहीं दादी।" बंटी उदासीन भाव से बोला, "मुझे तो मम्मी ने सेब की, एक भी फांक नहीं दी।"

Thursday, June 27, 2024

दोगुनी मिठास!

 "मां! यह वीडियो तो बहुत अच्छा है।" पुष्पा बोली। 

"सारा दिन फोन हाथ में रहता है। बस, वीडियो देखती रहती है। कुछ काम भी कर लिया कर कभी!" उसकी मां ओमवती ने उसे फटकारा।

 "नहीं मां! ऐसा नहीं है। कई वीडियो बड़े काम के होते हैं। देखो तो! इस वीडियो में आम पापड़ बनाना सिखाया है। बड़ा ही आसान है, आम पापड़ बनाना।"

 "तुझे कुछ काम तो है नहीं। अब आमपापड़ के सपने लेती रह! मैं जा रही हूं सब्जी लाने के लिए। बाहर से सूखे कपड़े उतार ले। बारिश आने वाली है।" कह कर ओमवती बाजार चली गई।

 बाजार में एक ठेले पर, बहुत बढ़िया आम, बड़े ही कम दामों पर मिल रहे थे। ओमवती ने दो किलो आम खरीद लिए। और बाकी सब्जियां लेकर घर वापस आई। पुष्पा ने थैले में आम देखे, तो वह खुश हो गई। बोली, "मां! एक दो आम का आम पापड़ बनकर देख लूं। क्या पता, सचमुच आम पापड़ बन ही जाए।"

 "तू रहने ही दे। आम बेकार जाएंगे। कोई फायदा नहीं होगा। छोड़ इस झंझट को। चुपचाप आम और सब्जियां फ्रिज में रख दे। और मुझे एक गिलास पानी पिला दे। बहुत गर्मी थी, बाहर।" ओमवती पसीना पहुंचती हुई कुर्सी पर बैठ गई।

 पुष्पा भी हार मानने वाली नहीं थी उसने बार-बार आग्रह करके ओमवती को दो आमों का आम पापड़ बनाकर देखने के लिए, राजी कर ही लिया। आमों का गूदा निकाल कर, उसमें चीनी मिलाई, और गैस पर थोड़ी देर पका दिया। जैसे ही गूदा गाढ़ा होने लगा, उसने उसे चिकनाई लगी हुई प्लेट में डाल दिया, और फैला दिया। 

ओमवती को पक्का यकीन था, कि यह गूदा ऐसे ही पड़ा रहेगा। पुष्पा से वह बोली, "चल रख दे इसे एक तरफ। कल इस गूदे को प्लेट से उतारकर आमरस बना लेंगे।"

 पुष्पा ने विश्वास से कहा, "नहीं मां! वीडियो में तो इसी गूदे से दो दिन बाद आम पापड़ बना हुआ दिखाया था।"

 "हां! हां! ठीक है। देख लेंगे। अब तू फोन एक तरफ रख। शाम के खाने की तैयारी भी करनी है।" ओमवती रसोई में चली गई।

 पुष्पा में प्लेट पंखे के नीचे रखी; जिससे की प्लेट पर पूरी हवा लगती रहे। रात को पुष्पा को देर से नींद आई। वह सोच रही थी कि सवेरे प्लेट में आम पापड़ बन पाएगा या नहीं। और आम पापड़ बना तो वह कैसा होगा? क्या वह वीडियो में दिखाए गए अनुसार ही होगा या कुछ अलग! सोचते सोचते उसे नींद आ गई। 

पुष्पा सवेरे बहुत जल्दी उठ गई। उसने उठकर सबसे पहले प्लेट को देखा। उसकी सतह छूकर उसे लगा कि वह सूख चुकी है। वह रसोई से एक चाकू लाई। वीडियो की तरह उसने किनारे से आम पापड़ को प्लेट से अलग करने का प्रयास किया। वह हैरान हो गई। सचमुच, आम पापड़ किनारों से, इस प्रकार उतर रहा था; जैसा की वीडियो में दिखाया गया था।

 धीरे-धीरे उसने पूरा आम पापड़ प्लेट से उतारा, और दोनों हाथों से पकड़ लिया। वह आम का पापड़ ही था! पतला सा, आम पापड़! वह खुशी से नाच उठी। उसने ओमवती को जगाया। 

"मां! देखो! आम पापड़ बन गया।"

 ओमवती की नींद खुली। वह बोली, "क्या हुआ? क्यों जगाया?"

 पुष्पा ने दोनों हाथों में आम पापड़ पकड़ा और मां के सामने ले आई। "अरे पुष्पा! यह तो आम पापड़ बन गया। इतना आसान होता है क्या, आम पापड़ बनाना?" ओमवती बहुत आश्चर्य से पुष्पा और आम पापड़ को देख रही थी। 

"हां मां! वीडियो में यही तो दिखाया था कि, आम पापड़ बनाना इतना आसान है।" पुष्पा ने कहा और ओमवती के मुंह में आम पापड़ का छोटा सा टुकड़ा डाल दिया।

 "यह तो बहुत स्वादिष्ट है। इसमें दोगुनी मिठास है। आमों के साथ, तेरी मेहनत की भी तो मिठास है।" ओमवती बहुत खुश थी ।

"मां! मैं सभी आमों का आम पापड़ बना लूं?" पुष्पा चहकी।

 "हां! हां! क्यों नहीं। ऐसी दोगुनी मिठास वाले आम पापड़ तो खुद भी खाएंगे; और सब को भी खिलाएंगे।" ओमवती ने पुष्पा की पीठ थपथपाई।

Monday, June 17, 2024

वैराग्य और आनंद

 सुनीता किचन में इडली बनाने की तैयारी कर रही थी। तभी आभा का फोन आया। "सुनीता! मैं इडली की चटनी बना रही हूं। तेरी इडली तैयार हो गई क्या?"

 "अरे नहीं! अभी बस शुरू ही कर रही हूं। 20-25 मिनट ही लगेंगे। हां, कंचन का फोन आया था। वह भल्ले तैयार कर चुकी।"

 "ठीक है।" आभा ने कहा, "आधे घंटे में हम टैक्सी बुला लेते हैं। मैं कंचन को भी बता देती हूं।" आभा ने फोन रख दिया और फटाफट चटनी बनाने लगी।

 इन तीनों सहेलियां ने आज इंडिया गेट जाने का प्रोग्राम बनाया था। हर महीने ये तीनों, किसी जगह पर, घूमने का कार्यक्रम बना लेती थीं। और फिर पूरा दिन मजे करती। शाम को घर वापस आ जाती थीं। वैसे रोज-रोज फोन पर, या व्हाट्सएप पर, गुफ्तगू तो हो जाती थी। लेकिन इकट्ठे मिलकर मस्ती करने का कुछ अलग ही मजा था। तीनों सहेलियां वरिष्ठ नागरिक थी। जी हां! तीनों रिटायर हो चुकी थी। अब उन्हें और कुछ विशेष कार्य तो था नहीं। सो हंसी-खुशी जीवन का आनंद ले रही थी। ऐसा नहीं था कि उन्होंने सेवानिवृत्ति से पहले ही यह योजना बना ली थी। परंतु, उनकी परिस्थितियों के कारण ही कुछ ऐसा  हो गया था। 

बहुत दिन पहले,  तीनों एक ही विद्यालय में अध्यापिका के पद पर कार्यरत थीं। सुनीता का एक बेटा था। वह पढ़ लिखकर इंजीनियर बनना चाहता था। वह बहुत देशभक्त था। वह भारत देश के बाहर तो कतई नहीं जाना चाहता था और देशभक्त होने के साथ-साथ मातृभक्त भी था। मां से बहुत लगाव था उसे! धीरे-धीरे समय बीता। वह इंजीनियर बन गया। उसकी बहुत अच्छी नौकरी भी लग गई। लेकिन दो-चार वर्ष बीतते तक, उसने देखा कि, उसके बहुत से मित्र विदेश चले गए। और वहां बहुत अच्छी तनख्वाह पर, उन्हें नौकरी मिल गई। उसने सोचना शुरू किया कि,  ज्यादा देशभक्त होना अच्छा नहीं। उसने भी विदेश में नौकरी ढूंढनी शुरू की।

 उसे स्विट्जरलैंड में बहुत अधिक तनख्वाह पर एक नौकरी मिली। काम भी उसका मन पसंद था। सुनीता ने थोड़ा बहुत विरोध तो किया; लेकिन अंतत उसका बेटा स्विट्जरलैंड चला ही गया। और वहीं रहने लगा। कंपनी में काम करते-करते, स्विट्जरलैंड की ही एक लड़की, उसकी मित्र बन गई। सुनीता के बेटे को वह इतनी अच्छी लगी कि उसने, उसके साथ विवाह करने का निर्णय कर लिया। सुनीता को यह निर्णय पसंद नहीं आया। लेकिन उसके बेटे ने मातृभक्ति की कोई परवाह न की और उससे विवाह कर लिया।

 प्रारंभ में तो उसके बेटे बहु वर्ष दो वर्ष में उसके पास ठहरने भी आते थे। लेकिन विदेशी बहू और सुनीता का तालमेल कुछ अधिक दिन तक नहीं चला। सुनीता का मन इस बात से बहुत परेशान रहता। जब तक नौकरी रही, तब तक तो फिर भी सुनीता ने जिंदगी गुजार ली। लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद जीवन दूभर हो चला। इस समय उसकी बातचीत आभा से कुछ अधिक होने लगी। खाली समय में फोन पर गपशप करने से समय बीत जाता था।

 बातों बातों में सुनीता को पता चला कि आभा भी जीवन में बहुत खुश नहीं है। आभा का बेटा था टुन्नू। टुन्नू, का जन्म आभा के विवाह के सात वर्ष बाद हुआ था। इतनी कठिनाई से प्राप्त संतान पर,  आभा जान छिड़कती थी। उसकी जुबान पर टुन्नू- टुन्नू ही रहता था। टुन्नू बडा हुआ  तो पढ़ लिख कर फिजियोथैरेपिस्ट बन गया।

 टुन्नू ने आभा को बताया कि भारत में तो फिजियोथैरेपी का कोई खास महत्व नहीं है। उसका एक दोस्त लंदन जा रहा है। वहां फिजियोथेरेपी के डॉक्टर को बहुत ज्यादा तनख्वाह मिलती है। और वहां सम्मान भी ज्यादा है। आभा ने टुन्नू को लंदन जाने के लिए बहुत मना किया। वह आभा की आंख का तारा था। लेकिन टुन्नू ने तो जिद पकड़ ली। वह लंदन चला गया और वहां नौकरी करने लगा। आभा के भी लंदन के कई चक्कर लगने लगे। टुन्नू  भी भारत आता जाता रहता।

 फिर आभा ने, अपनी जानकारी में, एक सुशील लड़की ढूंढकर, टुन्नू का विवाह कर दिया। शादी के एक-दो साल तक तो आभा  लंदन जाती रही। टुन्नू भी आता रहा। लेकिन बाद में टुन्नू की पत्नी की नाराजगी के चलते, यहां आना जाना कम हो गया। इन्हीं दिनों आभा के पति को कैंसर से मृत्यु हो गई।  पति की मृत्यु के बाद तो आभा जैसे टूट ही गई। टुन्नू पत्नी को नाराज नहीं कर सकता था। इसीलिए वह भी आभा के पास कम ही आता जाता था।

 एक दिन अचानक टुन्नू का फोन आया कि उसकी पत्नी नहीं चाहती कि वह लंदन आए। और ने ही वह चाहती है कि टुन्नू आभा से मिले। इसलिए अब वह कभी भी भारत नहीं आएगा। आभा पर तो जैसे पहाड़ ही टूट पड़ा। वह पति की मृत्यु से तो परेशान थी ही; साथ में टुन्नू का व्यवहार भी असह्य हो चला था।

 सुनीता से फोन पर, अपने मन की बातें साझा की; तो उसे पता चला, कि सुनीता भी बहुत परेशान है। दोनों ने मिलने का कार्यक्रम बनाया। और गाया बगाया, एक दूसरे के घर जाने लगी अपने मन की व्यथा सुनाती, तो मन का बोझ हल्का हो जाता था। 

 एक दिन कंचन आभा के घर आई। आभा को बहुत अच्छा लगा। उसने बताया कि सुनीता और वह तो कभी-कभी मिलते रहते हैं। और अपने दुख सुख बांट लेते हैं। अचानक कंचन की आंख में आंसू आ गए। वह बोली, "मैंने विवाह न करने का फैसला इसलिए लिया था कि अविवाहित रहकर मैं सुखी रह पाऊंगी। मैं स्वतंत्र रहूंगी। और कोई भी मुझे कुछ नहीं कह पाएगा। लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद तो मेरा जीवन नर्क बन चुक चुका है। 

जिस  भतीजे पर, जिंदगी भर मैं जान छिड़कती रही, वे उलटे जवाब देता है। बात बात में गुस्सा दिखाता है। जब तक भतीजे का विवाह नहीं हुआ था; तब तक बुआ जी से वह बहुत प्यार करता था। लेकिन विवाह होने के बाद उसे अपनी बुआ की कतई परवाह नहीं है। भाई-भाभी काफी बूढे हो चुके हैं। भतीजा अपनी मनमानी करता है। और उसकी पत्नी तो,  मेरे अविवाहित रहने पर, कटाक्ष भी करती रहती है। अब तो मैं एक अलग कमरे में रहती हूं। और अपना खाना अलग बनाती हूं। बहुत अकेला जीवन हो गया। किससे अपने दुख सुख बांटू?"

 आभा ने अपनी और सुनीता की सब व्यथा  कंचन को सुनाई।  वह बहुत हैरान हुई। उसने सोचा ना था, कि कंचन और आभा के साथ भी किस्मत ने खिलवाड़ किया है।  अब तीनों ने आपस में बातचीत की। और निर्णय लिया कि दुखी मन लेकर जीवन बिताना कोई समझदारी नहीं है।

 सुनीता ने किसी धार्मिक संस्था में जाना शुरू किया था। उसने कहा कि, प्रसन्न रहने के लिए जरूरी है कि सब कुछ भूल कर स्वयम् में स्थित हो जाओ। तभी स्वस्थ रहोगे। आभा बोली,  "हां भई! अपनी सेहत का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा। नहीं तो जीवन दूभर हो जाएगा।"

 कंचन बोली, "हमारे ऊपर कोई जिम्मेदारी तो है नहीं। हमें चाहिए, जो हमारा मन करे, हम वही करें। घूमें, फिरें,नाचें,गाएं मजे में खाएं-पीएं।"

 सुनीता बोली,  "मुझे तो एक आईडिया आ गया। क्यों ना हम, कभी-कभी घूमने फिरने जाए और मौज मस्ती करें। कंचन बोली,  "हर महीने में एक दिन प्रोग्राम बना लेते हैं। कभी घर से खाना बनाकर ले आएंगे; कभी बाहर भी खा लेंगे। पूरा दिन मस्ती करेंगे, फोटो खींचेंगे, और शाम को घर वापस आ जाएंगे। आभा ने कहा, "यह बढ़िया रहेगा। हमें नए-नए अनुभव होंगे, जिन्हें हम आपस में, और अपनी सहेलियों में साझा करेंगे। इससे हम अपने पिछले कटु अनुभव भी भूल सकेंगे। जिनसे हमें बहुत अधिक राग था; उनसे वैराग्य हो सकेगा।"

"वाह! क्या शब्द निकला!" सुनीता बोली। "वैराग्य! ठीक ही तो है। राग का न होना ही तो वैराग्य है। हम परेशान भी इसी अधिक राग के कारण ही तो थे।  अब तो वैराग्य और आनंद दोनों ही प्राप्त हो सकेंगे।"

और वास्तव में भी, उन तीनों को जीवन में अपनों से, वैराग्य के बाद, वास्तविक आनंद की अनुभूति होने लगी।

Friday, June 14, 2024

मोह की परतंत्रता!

 किशन चंद अपने पुत्र माधव से अथाह प्रेम करता था।  वह उसके मोह में लगभग अंधा ही था। माधव शहर में पढ़ने के लिए गया; तब भी वह यही चाहता था कि माधव गांव में खेती-बाड़ी करे। कुछ कारोबार कर ले, पर शहर में न जाए। परंतु माधव तो शहर की चकाचौंध से बहुत आकर्षित था।

 उसने शहर में रहकर पढ़ाई की। फिर उसकी नौकरी भी शहर में लग गई। उसका विवाह भी हो गया था। उसकी पत्नी रजनी भी एक कंपनी में नौकरी करती थी। रजनी कुछ अजीब प्रकृति की लड़की थी। उसे ऐशो आराम पसंद था। काम को वह हाथ भी नहीं लगाना चाहती थी। सज-धज कर ऑफिस जाती;  और वापस आने पर आराम फरमाती। घर के कामों को कौन करें; इस विषय पर दोनों में नोंक झोंक होती रहती थी। 

माधव के दो बच्चे भी हुए। तब माधव की मां कुंती ने घर को पूरी तरह संभाला। घर को संभालना रजनी को इतना पसंद आया कि वह सोचने लगी कि इन्हें अपने साथ ही रख लेते हैं। उसने अपने मन की बात माधव को कही। उसने माधव से आग्रह किया कि वह अपनी मां को शहर में अपने साथ रख ले। 

माधव अपनी मां के पीछे पड़ गया कि वह उनके साथ शहर में ही रह जाए। माधव की मां कुंती बहुत सीधी और परिश्रमी महिला थी।  लेकिन उन्हें अपना गांव ही पसंद था। शहर में वह परेशान हो जाती थी। फिर गांव में अपने पति की देखभाल अपने घर की जिम्मेदारी सब उसी के ऊपर थी। कुंती ने यह भी समझ लिया था कि उसकी बहू रजनी कामचोर है। वह उसको अपनी नौकरानी के रूप में देख रही है। इस बात को समझते हुए उसने माधव के पास जाने से इनकार कर दिया था।

 इस बात से माधव और उसकी पत्नी बहुत नाराज हो गए। माधव ने अपने माता-पिता से बातचीत कम कर दी। वह हर बात में गुस्सा और नाराजगी दिखाता। वह अधिक बोलता नहीं था बस माता-पिता को ऐंठ  दिखाता था। अब माता-पिता भी ज्यादा कुछ नहीं कर सकते थे। वह बेटे की बदतमीजी को नजर अंदाज कर देते। वे सोचते कि शहर में कितनी परेशानी से वह रह रहा होगा; इसलिए झल्लाता है। कोई बात नहीं। वह ठीक-ठाक रहे; इतना बहुत है। वे भी माधव से ज्यादा बात नहीं करते थे। और गांव में खुशी-खुशी जी रहे थे। लेकिन मन में माधव के लिए मोह बहुत होने के कारण, कभी-कभी खिन्न हो जाते थे। 

किशन चंद, माधव को कई बार गांव बुला चुका था; पर वह टाल-मटोल कर देता था। एक बार ऐसा हुआ कि माधव की पत्नी रजनी, के किसी रिश्तेदार के यहां विवाह के अवसर पर, रजनी को बुलाया गया। रजनी का गांव भी माधव के गांव के पास ही था। तब माधव ने सोचा कि कुछ छुट्टियां लेकर पहले विवाह में चले जाएंगे। और फिर दो-चार दिन अपने पिता के पास भी ठहरकर वापस आ जाएंगे।

 किशनचंद का तो खुशी का ठिकाना न था। उसने सोचा कि माधव पहले यहां आएगा फिर ससुराल के यहां विवाह में जाएगा। विवाह के बाद माधव फिर कुछ दिन यही रखेगा। बहुत आनंद रहेगा। किशन चंद की पत्नी भी बहुत प्रसन्न थी। 

विवाह के पहले दिन माधव गांव पहुंचा। लेकिन अपने गांव नहीं पत्नी के गांव पहुंचा और वहीं रुक गया। उसने माता-पिता को बता दिया कि वह रजनी के गांव विवाह में आ गया है; और वहीं ठहरा हुआ है। किशन चंद और उसकी पत्नी बहुत खुश हुए। वे दोनों उससे मिलने उसकी ससुराल ही चल दिए। लेकिन वहां पहुंचकर बहुत वे हैरान हुए; क्योंकि माधव और उसकी पत्नी रजनी ने उनसे कोई खास बातचीत नहीं की। बल्कि वे दोनों तो उनके  वहां से आने से परेशान लग रहे थे। खैर, वे दोनों अपने गांव वापस आ गए।

5-6 दिन बाद माधव, रजनी और बच्चे किशन चंद के घर आए। उन्हें बहुत अच्छा लगा। लेकिन माधव परेशान था। उसका एक बच्चा बीमार था। माधव की मां भी बच्चों के लिए चिंतित थी। वह माधव के लिए बढ़िया खाना बना चुकी थी। लेकिन बच्चे के लिए उसने खिचड़ी भी बनाई। बच्चा खिचड़ी खा नहीं रहा था। रजनी भी उसे खिलाने की कोई कोशिश नहीं कर रही थी। उसने एक कमरे में सारा सामान बेतरतीब, फैलाकर कर रख दिया था और वहां कमरे को बंद करके आराम कर रही थी। माधव भी कमरे में चला गया।

 बच्चे कुछ खा नहीं रहे थे। थोड़ी देर में बाहर आकर माधव और रजनी ने तो खाना खा लिया; पर बच्चों को कुछ भी नहीं खिलाया। किशन चंद और उसकी पत्नी ने जब उन्हें खाना खिलाने के लिए कहा, तब माधव बेरुखी से बोला कि उन्हें शहर का ही खाना पसंद है। वह आपके घर का खाना नहीं खाएंगे।

 किशन चंद और उसकी पत्नी बहुत हैरान हुए माधव चार दिन तक अपने माता-पिता के घर रहा लेकिन उसने अपने माता-पिता से कोई बात न की। वह स्मार्टफोन पर ही व्यस्त रहता था बात-बाद में गुस्सा करता था। वह अधिकतर कमरे में रजनी के साथ ही बंद रहता। वे पति पत्नी अपने बच्चों को नहलाते तक नहीं थे। और न ही उनकी देखरेख कर रहे थे। सब कुछ अजीब सा हो रहा था।

 वापस जाने के एक दिन पहले माधव के बड़े बच्चे को जोर से उल्टियां आई और उसे तेज बुखार भी हो गया। किशन चंद और उसकी पत्नी घबरा गए। उनके घर बुखार की दवाई रखी थी। लेकिन माधव और उसकी और रजनी बच्चों को दवाई न देना चाहते थे। वे डॉक्टर के पास भी ले जाने को तैयार नहीं थे। वे  कह रहे थे, कि बच्चा बिना दवा के ही ठीक हो जाएगा।

 किशन चंद और उसकी पत्नी बहुत हैरान हुए यह देखकर कि बुखार में भी, माधव और उसकी पत्नी, बच्चों की कोई देखभाल नहीं कर रहे हैं; बल्कि अपने कमरे में बंद है। किशन चंद की पत्नी बच्चों के लिए, पानी फलों का जूस और न जाने क्या-क्या खिलाने-पिलाने का प्रयत्न कर रही थी। परंतु बच्चा कुछ लेने को तैयार ही नहीं था। 

किशन चंद को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये सब  क्या हो रहा है। कहीं बच्चे को कुछ हो गया तो? यह सोचकर वह और उसकी पत्नी बहुत घबरा रहे थे। माधव को तो शहर वापस जाना ही था। वह उसी अवस्था में बच्चों को लेकर वापस शहर चला गया। ऐसा लगता था कि उसे न तो माता-पिता की कोई चिंता है; और न ही बच्चों की।  ऐसा भी हो सकता है कि वह अपनी मां कुंती के, शहर में न आने का, विरोध कर रहा हो। और झल्लाहट दिखा रहा हो। लेकिन किशन चंद और कुंती को यह सब नहीं समझ आया।

 माधव ने शहर पहुंचकर पिता को बताया कि बच्चे ठीक है। बच्चे का बुखार ठीक हो गया है। बच्चों को गांव में रहना पसंद नहीं है। और वह भी गांव नहीं आना चाहता। 

किशन चंद सोच रहा था कि माधव कितना बदल चुका है। इतने वर्षों में उसमें बहुत बदलाव आ गया है। वह पहले वाला माधव नहीं है; जिससे कि उसको इतना मोह था।

 उसकी आंखों में पिछले चार दिन चलचित्र की तरह घूमने लगे माधव का गुस्सा, बच्चों के प्रति लापरवाही और उसकी पत्नी का व्यवहार। और फिर बच्चों का बीमार पडना, उनका भूखा रहना। एक दिन एक-एक बात उसके दिल पर आघात कर रही थी। ठंडे दिमाग से उसने स्थिति को समझने की कोशिश की। वह समझ गया कि भविष्य में भी, बच्चे गांव में जाकर, बीमार तो पड़ेंगे ही। और उनकी देखभाल भी कोई नहीं करेगा। फिर  से यदि किसी बच्चे को,  यहां आकर फिर बुखार हो गया, तो कुछ भी हो सकता है; यह सोचकर वह सिहर गया।  

फिर उसने सोचा कि, माधव को, अब शहर में रहने की आदत पड़ चुकी है। पहले वह पहले वाला माधव नहीं रह गया है। उसका व्यक्तित्व बदल चुका है। माता-पिता के साथ सामंजस्य करने में उसे बड़ी कठिनाई हो रही है। फिर माधव की अपनी व्यक्तिगत समस्याएं भी हैं; जो कि शायद वह उससे साझा भी नहीं करना चाहता।

 वह गांव में आकर खुश न रह पाएगा। वह बहुत परेशान हो जाएगा। उसकी पत्नी और बच्चे भी परेशान होंगे। वह शहर में ही रहे, इसी में माधव की और उसकी अपनी भलाई है। 

उसने एक निर्णय लिया। किशन चंद ने पास रखा मोबाइल फोन उठाया, बेटे का नंबर मिलाया और कहा, "बेटा माधव! तुम जहां भी रहो, खुश रहो। अब मैं तुम्हें गांव में आने के लिए कभी नहीं कहूंगा। तुम शहर में रहने के आदी हो चुके हो अब तुम गांव में आते हो तो तुम्हें भी परेशानी होती है और तुम्हारे परिवार को भी परेशानी होती है। मैं नहीं चाहता कि तुम या तुम्हारा परिवार किसी भी तरह से दुखी हो। तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है। इसीलिए अब तुम शहर में ही रहो। गांव में मत आना। जब तुम्हारे बच्चे बड़े हो जाए ,और अगर मैं जिंदा रहूं; तभी गांव आना। तब तक गांव में, मेरे घर मत आना।" यह कहकर किशनचंद ने मोबाइल फोन बंद कर दिया। 

उसे समझ आ चुका था, कि उसका बेटे के अंदर बहुत मोह है। लेकिन बेटे का व्यक्तित्व बदल चुका है। वह अपने दायित्व निभाने में, बहुत अधिक व्यस्त हो चुका है। अब उसे गांव आने में कोई रुचि नहीं है; बल्कि उसे परेशानी ही महसूस होती है। बेटे के लिए ज्यादा मोह में पडना, उसके अपने लिए भी हितकारी नहीं है। 

वास्तव में अधिक मोह भी परतंत्रता का ही एक रूप है। अधिक मोह में पडना, अपनी स्वतंत्रता को खो देने के समान है। मनुष्य ही इसी मोह की, परतंत्रता को ओढ़े रहता है। जबकि आम जीव जगत में, एक समय के बाद कोई भी प्राणी मोह नहीं रखता। 

इसीलिए अब उसे अपना मोह भंग करना होगा। और अपने को अपने लिए हितकारी कार्यों में लगाना होगा। उसे अपने स्वास्थ्य  के ऊपर भी अधिक ध्यान देना होगा। बेटा, अपनी चिंता कर रहा है। वह बड़ा हो चुका है। वह कोई छोटा अबोध बालक नहीं है; जिसके मोह में पडा जाए। 

अब वह स्वयं बूढ़ा हो चुका है। इसीलिए बेटे की चिंता को छोड़, उसे अपनी स्वयं की भी चिंता करनी चाहिए। इस प्रकार से वह स्वयं भी अधिक सुखी रह सकेगा। 

उसे लगा कि वह अपनी सुध बुध बिसार बैठा था। अब उसे अपनी सुध वापिस आई है। वह स्वयं ही झूठे मोह में फंस गया था। मोह की परतंत्रता को उतार फेंकने के बाद, वह अब वह स्वयं को बंधन मुक्त अनुभव कर, खुलकर सांस ले रहा था। लगता था; जैसे सिर पर से, कोई भारी बोझ उतर गया।

Sunday, May 19, 2024

Coffee and chemist!

Someone sent me this story. I found it very interesting and inspiring. So I am presenting it here:


The proprietor of a coffee shop had been busy all day. Being Saturday, it was very crowded and the customers were just unending. He had been on his toes since morning.


Towards the evening he felt a splitting headache surfacing. As the clock ticked away, his headache worsened. Unable to bear it, he stepped out of the shop leaving his staff to look after the sales.


He walked across the street to the Chemist, to buy himself a painkiller to relieve his headache. He swallowed the pill and felt relieved. He knew that in a few minutes he would feel better. 


As he strolled out of the shop, he casually asked the salesgirl, "Where is Mr Verma (the Chemist)? 

He's not at the cash counter today!" 


The girl replied, "Sir, Mr Verma had a splitting headache and said he was going across to the coffee shop. 

He said a cup of hot coffee would relieve him of his headache."


The man's mouth went dry and he mumbled, "Oh! I see."


*This is a typical case of looking outside ourselves for something that we have within us.


How strange but true!


The chemist relieves his headache by drinking coffee and the coffee shop owner finds relief in a pain relieving pill!


A person hunts across the lengths and breadths of the universe to find peace. 


Eventually he finds it in his heart and realizes that peace is really a state of mind!!


Saturday, April 20, 2024

धनिया;अद्भुत औषधि!

 धनिया केवल रसोई का मसाला ही नहीं है; वरन एक अदभुत औषधि भी है। 

एसिडिटी की समस्या है, तो 25 ग्राम धनिया ले लें और उसमें 100 ग्राम मिश्री मिलाकर पीस लें। इस पाउडर को सवेरे, दोपहर, शाम एक-एक चम्मच पानी के साथ ले लें। इससे एसिडिटी की समस्या तो हल होती ही है; साथ ही यूरिन भी खुलकर आता है। मिश्री न लेना चाहें, तब भी, अकेले धनिया से ही लाभ हो जाता है।

 अगर सूखा धनिया न लेना चाहें, तो तीन-चार ग्राम धनिए के पाउडर को 500 मिलीग्राम पानी में मिलाकर थोड़ा उबलने दें और जब डेढ़ सौ मिलीग्राम पानी रह जाए तो उसे छान कर पी लें। इस काढे से एसिडिटी की समस्या तो हल होती ही है; साथ में ओवर ब्लीडिंग या ब्लीडिंग की समस्या भी हल हो जाती है।

 गर्मी बहुत लग रही हो या बेचैनी हो रही हो; तब भी यह काढा अद्भुत लाभ करता है। अगर उल्टी की समस्या हो रही हो या जी मचल रहा है; तब भी इस काढे को लिया जा सकता है।

 छोटे बच्चों को उल्टी आ रही है तो थोड़ा सा धनिया, मोटा कूट कर, पानी में तीन-चार घंटे के लिए भिगो दे। उसके बाद उसमें थोड़ी मिश्री मिलाकर, बच्चे को पिला दें। इससे बच्चों की, उल्टी की समस्या बिल्कुल ठीक हो जाती है।

 गर्भावस्था में भी अगर उल्टी आती हो तो मोटा धनिया कूटकर 3 घंटे पानी में भिगोने के बाद उसे पानी को छान दें उसमें मिश्री मिलाकर पीलें। 

 दस्त लग गए हैं; या खूनी दस्त भी हो गए हैं, तब भी धनिए का यह पानी आराम लाता है।

 सिर दर्द की समस्या है तो, धनिए के पत्ते और पाउडर मिलाकर पीस ले, और इसका माथे पर लेप कर लें। उससे सिर दर्द में आराम आता है। 

अगर चेहरे पर झाइयां या पिंपल्स हो गए हैं; तो धनिये के पत्ते, धनिया का पाउडर और थोड़ी सी हल्दी मिला ले और इसके पेस्ट को चेहरे पर अच्छे से लगा लें। इससे चेहरे की झाइयां भी ठीक होती है।  पिंपल्स की समस्या भी खत्म हो जाती है और चेहरे पर निखार आता है। 

थायराइड की समस्या होने पर धनिया का पानी लेने से आराम आता है। इसे लगातार कुछ महीने लेने पर थायराइड की समस्या खत्म हो जाती है।

 किडनी की समस्या होने पर धनिये का पानी लगातार लेते रहने से, किडनी के रोग ठीक हो जाते हैं।

तो, है न धनिया, एक अद्भुत औषधि!

Tuesday, March 19, 2024

"बुलशिट"

 वर्ष में एक ऐसा समय आता है, जब धमाकेदार सेल लगती है। हर वस्तु सस्ते दाम पर मिल जाती है। किसी के दाम आधे हो जाते हैं; और कोई तिहाई रेट पर मिल जाती है। कभी-कभी तो बिल्कुल कम दामों में, कोई बहुत बढ़िया सौदा हाथ लग जाता है। एक बार ऐसी ही बम्पर सेल में तरह-तरह के वस्तुएँ मिल रही थीं। इलेक्ट्रॉनिक्स, आधुनिक घरेलू उपकरण, रसोई के बर्तन, घर का सामान व खिलौने, बोर्ड गेम आदि।  

ऐसा ही एक विज्ञापन था। जिसमें लिखा था,"बुलशिट बहुत सस्ते रेट में; ऐसा सौदा बार-बार नहीं मिलता। केवल सात दिन का समय है। जल्दी खरीदिए!"

 यह विज्ञापन; खिलौने, बोर्ड गेम्स  आदि के विज्ञापनों के आसपास ही था। दाम इतने कम थे, कि अधिकतर लोगों ने यह सोचा कि किसी बोर्ड गेम का नाम, "बुलशिट" होगा। बहुत ही कम दाम पर मिल रहा है। खरीद ही लिया जाए। हो सकता है कि बोरिंग गेम हो! लेकिन इसे मंगवाने में हर्ज ही क्या है? 

 इस कंपनी के पास इतने आर्डर आ गए, कि कंपनी वाले भी हैरान थे! लेकिन सप्लाई तो सभी को करनी थी। सभी को कंपनी ने पक्का वादा किया हुआ था, कि सबको बुलशिट मिलेगा।

 और कंपनी ने अपना वायदा पूरा भी किया। जिन्होंने बुलशिट के लिए आर्डर किया था,उन सभी के घर एक पार्सल पहुंच गया । पार्सल खोलने पर उसमें एक छोटा सा डिब्बा मिला। 

जब डिब्बा खोला गया तो उसमें था, "बुलशिट"। यानि वास्तविक बुलशिट!!

 समझ गए न आप।

Monday, February 19, 2024

शुष्क पुष्प का संदेश!

 भोले पुष्प की कोमलता से,

ऊब गए हो।

 अब बदलाव की आशा से, 

उसे दबाकर सुखाना चाहते हो?

सुखाने से पहले उस पर, 

थोड़ा लवण भी लगाते हो!

शुष्क पुष्प को देखकर,

अपनी सफलता पर इतराते भी हो!

रंग फीका हो गया तो क्या? 

अभी भी पुष्प ही तो है!

 तुमने पुष्प को पा लिया,

सदा सदा के लिए।

अब वह कभी तुमसे,

 अलग नहीं होगा।

 यह सोचकर कितने प्रसन्न होते हो!

 गर्व से भर जाते हो। 

फिर एक दिन, 

उस पुष्प को,

सहलाने की इच्छा से,

छू भर देते हो।

 हैरान होते हो क्योंकि; 

कोमलता तो है नहीं!

सुखा पुष्प का लचीलापन,

कहां खो गया?

सोच-सोच कर होते हो,

 हैरान परेशान! 

 झकझोर देते हो,

 सूखे पुष्प को, 

और वह  झेल कर,

 शक्तिशाली आघात;

बिखर जाता है।

चूर-चूर हो जाता है।

 निराश तुम्हारी आंखें,

निहारती रहती हैं; 

सूखे चरमराते पुष्प को।

 तुम्हें याद आती है,

 कोमलता पुष्प की।

 जिसका तुमने ही,

अपने हाथों से,

विनाश कर डाला।

अब हाथ मलते हो?

 मलते रहोगे!

 यह भूल नहीं थी;

हठपूर्वक किया गया,, 

दुष्कर्म था।

 परिणाम अपेक्षित था।

 तुम्हीं अनभिज्ञ थे।

 कोमलता को अवशोषित कर 

 प्यार पाने का उपक्रम,

 निरी मूर्खता है!!

 

Thursday, February 15, 2024

चील की चालाकी

 सुंदर नर्सरी वास्तव में बहुत ही सुंदर है।  केवल पौधों में ही सुंदरता नहीं है, बल्कि सुंदर नर्सरी की वास्तुकला भी, सुंदरता की अनोखी मिसाल है। सुंदर मनोरम मन को लुभाते दृश्यों का आनंद लेते-लेते थक गए थे। थोड़ा-थोड़ा तरो ताजा होने का वक्त आ गया था। एक जगह कोमल मखमली घास थी और आसपास काफी वृक्ष भी थे। सोचा वहीं पर चादर बिछाकर नाश्ता कर लिया जाए।  

सभी ने थर्माकोल की एक-एक प्लेट ली। टिफिन बॉक्स में से सूखी आलू की सब्जी, और गरम-गरम पूरियां निकाल कर बीच में रख दी गई। सभी ने सब्जी और पूरी अपनी प्लेट में डाली और भोजन का आनंद लेना शुरू किया। पूरियां बीच में ही इकट्ठी रखी हुई थी, जिससे कि जिसे जरूरत हो, तो स्वयं ले ले। 

अचानक मुझे महसूस हुआ कि एक काला सा कपड़ा उड़कर मेरे मुंह के पास तेजी से आया;  और ऊपर चला गया। मैं हैरान! तेज हवा या आंधी भी नहीं थी । यह सब एक पल में हो गया।  तभी किसी ने कहा," वह पूरियां ले गई, पंजे में दबोच कर।"  किसी दूसरे ने कहा, "अरे! दो पूरियां गिरा भी दी है।" 

 मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैंने देखा कि सभी ऊपर की ओर देख रहे थे। एक चील के पंजे में पूरियां थीं और वह तेजी से उड़कर दूर एक पेड़ पर जा बैठी। यह सब एक पल में ही हो गया। सभी भौचक्के थे। किसी ने कहा, "मुझे लगा कि कोई काला छाता टकरा गया है। किसी दूसरे ने कहा, "मुझे तो लगा काली परछाई, गाल से छूकर निकली है।"

 वास्तव में एक चील  एक पेड़ पर छिपी बैठी हुई थी। जब हमने खाने पीने का सामान बाहर निकाला; और हम खाने के लिए तैयार हुए, तो पलक झपकते ही, उसे चील ने उड़ान भरी और पूरियां पंजे में दबोच कर उड़ गई। यह सभी इतनी फुर्ती और दक्षता के साथ हुआ,  कि हम सभी स्तब्ध थे।  किसी को रत्ती भर भी चोट नहीं आई। 

 चील बिना किसी को नुकसान पहुंचाए; इतनी कुशलता से, पूरियों को उठा ले गई, कि विश्वास ही नहीं हो रहा था। लेकिन जो दो पूरियां उसने नीचे गिरा दी थी; वह इस अविश्वसनीय घटना का प्रत्यक्ष प्रमाण थी। हम काफी सहम गए थे। लेकिन फिर से हमने खाना शुरू किया।

  अब हमें यह घटना थोड़ी मजेदार लग रही थी। खाना खाकर जब एक पेड़ की तरफ नजर गई, तो एक चील वहां बैठी दिखाई दी। "अरे! इस चील ने ही हमारी पूड़ियां ले ली है!"  बच्चे बोल उठे। वे भी पहले तो से सहम गए थे। लेकिन अब वे भी उत्सुकता से उस चील को देख रहे थे।

 अचानक उस चील ने उड़ान भरी। एक छोटा सा बच्चा कप केक लेकर चल रहा था। चील ने बड़ी फुर्ती से उसका कप केक पंजे में दबोचा,  और वापस उसी पेड़ पर चली गई। वह रोता हुआ अपनी मां से लिपट गया। 

तब हमें भी समझ आया, कि इसी तरह चीज ने हमारी पूरियां दूर से ही देख ली होंगी। इसी तरह उड़ान भरकर इसने हमारे पूरियां पंजे में दबोच ली होंगी।

 शायद वह चीज बूढी हो गई होगी। शिकार न कर पाती होगी। तभी तो पेड़ पर बैठकर पिकनिक करने वाले समूहों का खाना चालाकी से चट कर जाती है। 

आज भी वह घटना याद आती है, तो शरीर से सिहर उठता है।  

यद्यपि, बिना किसी को नुकसान पहुंचाए, खाने पर डाका डालना भी एक कला है। मैं सचमुच उसकी दक्षता और गजब की स्फूर्ति प्रशंसक हूं। लेकिन चील की "चालाकी" इतनी ज्यादा काबिले तारीफ नहीं है।

Tuesday, February 13, 2024

चिड़िया अटक गई!

 

जी हां! चिड़िया पेड़ पर अटक गई। यह कोई मामूली चिड़िया नहीं थी। यह एक विशेष चिड़िया थी, जो चिक्के  के साथ होती है। और ऐसी चिड़िया पेड़ पर चढी कि उतरी ही नहीं। समझ गए ना आप। जी हां! शटल! बैडमिंटन वाली शटल!  

हुआ यूं, कि एक दिन बच्चे पार्क में बैडमिंटन खेल रहे थे;  और होड़ लगी हुई थी कि कौन सबसे ऊपर शटल उछाल सकता है। शटल यानी चिड़िया! किसी बच्चे की बहुत ऊपर जा रही थी और किसी की तो जाल में उलझ कर रह गई। हां लेकिन मजा बड़ा आ रहा था बच्चों को!

अचानक चिड़िया पेड की सबसे ऊपर वाली फुनगी पर अटक गई।  बच्चों ने पेड हिलाया तो वह बीच में जा फंसी। बहुत जोर से बार  बार हिलाने पर भी वह जस की तस अटकी रही। बच्चे हार थक कर घर चले गए।  

अगले दिन सवेरे आंधी और बारिश आ गई।  बच्चो ने देखा कि चिड़िया पेड के नीचे गिर गई थी। वे खुश हुए और फिर से उसी चिड़िया के साथ खेलने लगे। 1 घंटा बीतते बिताते फिर से उनकी चिड़िया उसे दूसरे पेड़ में उलझ गई।

 बच्चों ने पेड़ हिलाना शुरू कर दिया किसी ने चप्पल निकाल ली; और कोई पत्थर मारने की तैयारी करने लगा। तभी किसी ने देखा कि एक चिड़िया पेड़ पर बैठी है;  और उसे चिड़िया के पास एक छोटा सा घोंसला भी था। एक बच्चे ने कहा," यहां तो चिड़िया का घोंसला है। इस पेड़ पर चप्पल नहीं मारेंगे।"  वह पेड़ को धीरे-धीरे हिलाने लगे।  लेकिन चिड़िया अर्थात शटल नीचे नहीं आई। लेकिन असली चिड़िया तो उड़ गई। बच्चों ने सोच विचार किया, कि पेड़ को हिलाए और शटल को निकालें या उसे ऐसे ही छोड़ दें। 

 किसी ने कहा," अरे! इस चिड़िया का घोंसला टूट जाएगा। इस शटल को वहीं पर रहने दो। हम दूसरी शटल ले आएंगे उस बैडमिंटन खेल लेंगे।"

 इसके बाद सभी बच्चे वहां से चले गए और दूसरी चिड़िया लाकर बैडमिंटन खेलने लगे।  लेकिन, उनकी पहली चिड़िया तो चिड़िया के घोंसले के पास, अटक ही गई थी!

Monday, February 12, 2024

धरमू मामा

 मां की बड़ी बुआ रेवाड़ी में रहती थी। और छोटी बुआ सिवाडी में।  सिवाडी फारुखनगर के पास एक गांव है।  छोटी बुआ की एक बड़ी सी हवेली थी और दूर तक फैले खेत थे। इन्हीं बुआ के एकमात्र पुत्र थे, धर्मसिंह। प्यार से इन्हें बचपन में धरमू कहकर बुलाया जाता था।

धरमू मामा बचपन में पता नहीं कैसे रहे होंगे। लेकिन बड़े होने पर तो वह बड़े बेफिक्र और मस्त स्वभाव के थे। किसी भी बात की ज्यादा चिंता नहीं करते थे। उन्हें थोड़ा बहुत लापरवाह और बेपरवाह भी कहा जा सकता है।  लेकिन मस्त मौला होते हुए भी मोटे नहीं थे।  पतले, लंबे और तनिक सांवले वर्ण के थे। उनके चेहरे पर कभी शिकन न दिखाई देती थी।

मुझे याद है कि उनकी पत्नी,  यानि मामी भी शायद वैसी ही बेफिक्र थी। कभी हमारे घर मामा मामी आते तो, मामी एक पीढ़े पर घूंघट काढ कर बैठ जाती थी। मामा अपनी जीजी से बतियाते। उनकी जीजी, यानी मां उनकी बात सुनते-सुनते उनकी खातिरदारी भी करती रहती थी। मामी तो पीढे पर ही विराजमान अपनी खातिरदारी करवाती रहती थी। पता नहीं वह उनका आलस था; या घूंघट वाली शर्म! जो भी हो,  दोनों मामा मामी का जोड़ा था कमाल का! मामा, शायद मां से उधार लेने आते थे। ऐसा इसलिए लगता है, क्योंकि मामा मेहनती तो थे नहीं। तो खेत शायद बेच खाए होंगे।  नौकरी कोई करते नहीं थे । कहीं-कहीं से उधार लेते रहते होंगे।

मेरे नाना जी धरमू मामा से बहुत चिढ़ते थे। नाना जी के भांजे लगते थे धरमू मामा। इसलिए डांटते तो नहीं थे। लेकिन ठीक तरह से बात भी नहीं करते थे। नाना जी झज्जर में रहते थे। धरमू मामा यदा कदा झज्जर भी जाते रहते थे। एक बार ऐसे ही धरमू मामा अपने दो बैलों को लेकर, नाना जी के पास झज्जर में आए। वहां पर मां भी गई हुई थीं। मेरे भाई तब 5 वर्ष के होंगे। वह भी झज्जर में ही थे। धरमू मामा बैलों को लेकर बाजार की तरफ निकले। साथ ही वे मेरे भाई को भी साथ ले गए। रास्ते में उन्हें कुछ परिचित लोग मिल गए। वे उनसे बात करने लगे। बात करते करते, दोनों बैलों की रस्सियां उन्होंने भाई के हाथ में पकड़ा दीं। 

बैलों की रस्सियां जैसे ही भाई ने पकड़ी; कि दोनों बैल चलने शुरू हो गए। भाई भी साथ-साथ चलने लगे। आगे आगे बैल पीछे-पीछे भाई!

 लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि बैल बच्चों को ले जा रहे हैं; या बच्चा बैलों को ले जा रहा है! और धरमू मामा बातों में  व्यस्त थे। उन्हें होश ही नहीं था, कि बैल और बच्चा कहां गए? 

 अचानक नाना जी के किसी परिचित ने भाई को पहचाना। वह बोला, "अरे! यह तो लाला हरद्वारी लाल जी का धेवता है। यह बैलों को कहां लेकर जा रहा है?"

 उसने तुरंत बैलों की रस्सियां पकड़ी, और नाना जी के घर की तरफ ले चला। घर पहुंच कर नाना जी को उसने पूरी बात बताई। भाई तो सहमे हुए थे और हैरान भी थे। नानी ने भाई को गोद में उठाया, और प्यार से पुचकारा। लेकिन नाना जी तो क्रोध से आग बबूला हो गए। वे बहुत गुस्से वाले थे और धरमू मामा से तो बहुत ही चिढते थे। वह वास्तव में धरमू मामा के आलस और लापरवाही से ही  चिढते थे। और आज इसी का नमूना सामने था।

 धरमू मामा जब गपशप मारकर घर आए, तो नाना जी का रौद्र रूप देखकर घबरा गए। नाना जी ने कहा, "अभी इन बैलों को पकड़; और वापस  सिवाडी चला जा। यहां एक मिनट भी नहीं रुकना है।"

 नानी बीच बचाव के लिए आई। वह बोली, "इतना गुस्सा नहीं करते। यह कल आराम से चला जाएगा। अभी तो अंधेरा होने वाला है। अभी यही आराम करने दो।" बड़ी मुश्किल से नाना जी को, उन्होंने राजी किया। तब कहीं जाकर रात को धरमू मामा वहां रह पाए, और सवेरा होते ही वापस सिवाडी चले गए।

 भाई थोड़े बड़े हुए, तो मां के साथ एक बार धरमू मामा के यहां  जाने का मौका मिला। धरमू मामा का, खेतों में जब कटाई का काम चल रहा होता था, तो कभी-कभी वह मां को भी गांव में बुला लेते थे। 

शायद मक्का की कटाई का समय था। मवेशियों के लिए मक्का के डंठलो को, सानी काटने वाली मशीन से, काटना होता था। मामा सानी काट रहे थे। वे भाई को सानी काटने का काम देखकर कहीं चले गए। वैसे यह बहुत गलत था। छोटे लड़के को सानी की मशीन से, हाथ भी कटने का खतरा हो सकता है।  लेकिन भाई बताते हैं कि, उन्हें तो सानी काटने में मजा आया। विशेष तौर पर डंठल के छोटे-छोटे टुकड़े चबाकर, चूसने में बहुत मीठे-मीठे लग रहे थे। मामा वापस आए, तो उन्हें बहुत सारा काम किया हुआ मिला। मामा जरूर खुश हो गए होंगे।  

गेहूं की कटाई के समय पर कभी मां वहां जातीं, तो गेहूं के तिनके की डलिया बनाकर लातीं। वे मां से कई डलिया बनवा लेते होंगे। जिनमें से एक मां भी अपने साथ ले आती थीं। बड़ी जीजी को छोटा भाई ज्यादा कुछ तो क्या उपहार देगा; अलबत्ता बड़ी जीजी से काम तो खूब लेता होगा। आखिरकार मामी भी तो पूरी आलसी थीं। 

जब आखिरी बार मामा, मामी के साथ हमारे घर आए थे; तब मां ने उन्हें सुझाव दिया, कि कोई दुकान खरीद कर कुछ काम शुरू कर दें। इस पर मामा ने ज्यादा विरोध तो नहीं किया होगा;  लेकिन मुझे याद नहीं; कि उन्होंने कोई दुकान का काम शुरू किया हो। धरमू मामा का उसूल रहा होगा:

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम। 

दास  मलूका कह गए, सबके दाता राम।।

Friday, February 2, 2024

दाल मखानी

 जगन्नाथ जी के दर्शन की अभिलाषा हो, तो आवश्यक है कि उड़ीसा राज्य में जाना होगा। और जब जगन्नाथ जी के दर्शन हेतु हम पुरी पहुंचे,  तब तक बहुत थक चुके थे। थोड़ा विश्राम करने के बाद भगवान जगन्नाथ जी के दर्शन किए। इसके पश्चात बाजार की रौनक देखने के लिए निकले। 

बहुत बड़ा बाजार है जगन्नाथ पुरी का। पूजा की सामग्री के अतिरिक्त खाने-पीने के सामान की भी कोई कमी नहीं है। वहां का स्थानीय भोजन तो वहां पर मिलता ही है, साथ ही उत्तर भारतीय खाना भी आसानी से मिल जाता है।

चलते-चलते नजर पड़ी एक साइन बोर्ड पर। लिखा था 'दाल मखानी'। भई वाह! यहां तो दाल मखनी भी मिलती है। भूख जोरों की लगी थी। सभी खुश हो गए। दाल मखनी का आर्डर दिया और इंतजार करने लगे।

थोड़ी देर में हमारे सामने दाल मखनी और नान आ गया। दाल मखनी के ऊपर से ढक्कन हटाया गया। यह क्या! पीली दाल? यानी अरहर की दाल! दाल में बहुत से मखाने भी तैर रहे थे। हम सब हैरान होकर एक दूसरे का मुंह देख रहे थे। यह कौन सी रेसिपी है? वेटर को बुलाकर हमने कहा दाल मखनी लाओ। यह क्या लाए हो?

वह बड़ी सहजता से बोला 'यहां पर इसे दाल मखानी कहते हैं।' इसमें दाल है, और मखाने भी हैं।  यह बन गई दाल मखानी।

अच्छा तो यह दाल मखानी है! हम मुस्कुरा रहे थे और 'दाल मखानी' का आस्वादन कर रहे थे।