अर्धवार्षिक परीक्षा समाप्त हो चुकी थी। अगले दो दिन तक सभी उत्तर पुस्तिकाओं की जांच कर लेनी थी। उसके बाद विद्यार्थियों के प्राप्तांकों की सूची, विद्यालय के मुख्य परीक्षक को सौंप देनी थी।
मेरे पास उत्तर पुस्तिकाओं के छः बंडल थे। एक-एक बंडल में कम से कम साठ उत्तर पुस्तिकाएं तो थीं ही। छठी से नवीं तक प्रत्येक कक्षा का एक-एक बंडल, और दसवीं के दो बंडल।
अब लगभग पौने चार सौ उत्तर पुस्तिकाओं को जांच कर, दो दिन बाद तक, अंक सूची बना देना कोई सरल कार्य नहीं था। एक-एक उत्तर पुस्तिका की जांच में कम से कम दस पन्द्रह मिनट का समय तो लगता ही है। इसीलिए इतनी सारी उत्तर पुस्तिकाएं जांचना, बड़ा सिर दर्द बन जाता है।
चाय का प्याला मेज पर रख कर, अभी जांच कार्य प्रारंभ ही किया था; कि दरवाजे की घंटी बजी। सामने कटारिया आंटी अपने जर्मन शेफर्ड कुत्ते के साथ खड़ी थीं।
"नमस्ते आंटी! अंदर आइए ना।"
औपचारिकता वश ऐसा तो मुझे कहना ही था। यद्यपि मैं बिल्कुल भी नहीं चाहती थी, कि वह इस समय वे मेरे व्यस्त कार्यक्रम में व्यवधान डालें। लेकिन आंटी तो अंदर आकर बैठना ही चाहती थीं।
वे बोलीं, "हां! हां! मैं तुझसे मिलने ही आई हूं। तू तो कभी घर से बाहर निकलती ही नहीं। तो मैंने सोचा कि मैं ही मिल आती हूं।" इतना कह कर वे अपने कुत्ते के साथ अंदर आ गई, और सामने वाले सोफे पर बैठ गई। कुत्ता भी जमीन पर बैठ गया।
कटारिया आंटी, हमारे घर के सामने वाले घर में ही रहती हैं। उनकी बहू डॉक्टर है, और बेटा बैंक में कार्यरत है। पोता-पोती स्कूल जाते हैं। एक नौकर है; जो उनके घर के सारे काम निपटा देता है। इसीलिए आंटी को कुछ काम तो है नहीं। वे कभी किसी के घर चली जाती हैं; और कभी सामने पार्क के बेंच पर बैठ जाती हैं। विभाजन से पूर्व लाहौर में उनके क्या ठाठ थे; इसी विषय पर अक्सर उनके वार्तालाप में झलक होती है।
"आंटी! मैं अभी चाय पी रही थी। आपके लिए बनाऊं क्या?"
"अरे नहीं। मैंने चाय छोड़ दी है। तू आराम से बैठ। कुछ गपशप करेंगे।" आंटी बोली।
उनका कुत्ता बहुत ही शांत स्वभाव का है। वह आंटी के पैरों में चुपचाप बैठा था और अपनी भोली भाली आंखों से मुझे निहार रहा था।
खैर, छोड़िए इन सब बातों को! वास्तविक मुद्दा तो यह है, कि मेरे सामने बहुत सारा कार्य था और समय का नितांत अभाव था यहां आंटी मेरे साथ समय को व्यतीत करने आई थीं। अब चाय के लिए तो उन्होंने मना कर ही दिया था। अतः मैं कुर्सी पर बैठी, और उत्तर पुस्तिकाएं जांचनी शुरू की।
आंटी ने अपनी बातें करनी प्रारंभ कर दी। इधर-उधर के किस्से, अड़ोस पड़ोस की बातें या अपनी बीमारी की परेशानियां। यही सब विषय होते हैं; उनकी वार्तालाप के! मैं उत्तर पुस्तिकाएं जांचते हुए, बीच में हां, हूं, करती रही।
अचानक वह बोलीं, "तू तो कुछ बात कर ही नहीं रही है। मैं ही बोले जा रही हूं।"
"आंटी! मुझे पेपर चेक करने है ना! आज मैं ज्यादा बात नहीं कर पाऊंगी।"
"ले! यह क्या बात हुई? ऐसी कौन से पेपर है; बाद में चैक कर लियो। ऐसी भी क्या जल्दी है?"
"आंटी! ये दो दिन बाद चैक करके वापस देने हैं। बहुत सारा काम है।"
"तू तो बहुत बिजी है। मैं जा रही हूं।" ऐसा कहकर वह अपने कुत्ते को के साथ दरवाजे की और बढीं। शायद सोच रही होंगी कि मैं उन्हें रोक लूंगी।
लेकिन मैंने कहा, "ठीक है आंटी! फिर कभी इत्मीनान के साथ बात करेंगे।"
वे जल्दी से बाहर निकल गई। मैंने भी चैन की सांस ली और दरवाजा बंद करके फिर अपने जांच कार्य में लग गई।
लगभग पांच मिनट बाद, फिर दरवाजे की घंटी बजी। मैंने दरवाजा खोला तो पाया, कि कटारिया आंटी सामने खड़ी हैं।
"हांजी आंटी?!"
"मेरी कान की लौंग गिर गई है। हीरे की लौंग थी। तेरे घर में तो नहीं गिर गई?" आंटी बहुत चिंतित और घबराई हुई लग रही थी।
"अंदर आ जाओ आंटी! सोफे के आस-पास और फर्श पर ढूंढ लेते हैं।"
हमने सोफे की गद्दियां उलट पलट कर, पूरे फर्श का दरवाजे तक बड़े ध्यान से निरीक्षण किया। लेकिन कुछ भी दिखाई नहीं दिया।
"पता नहीं कहां गिर गई मेरी हीरे की लौंग? बस अपने घर से तेरे घर तक ही आई हूं। अपने घर में फिर से ढूंढ लेती हूं।" ऐसा कह कर आंटी चली गईं।
परेशान तो मैं भी हो गई। उत्तर पुस्तिकाएं छोड़कर मैं उनकी लौंग ढूंढने का प्रयत्न करने लगी। अचानक मेरी निगाह सोफे के नीचे की तरफ गई। वहां लौंग के पीछे का सोने का पेच पड़ा हुआ था। लेकिन लौंग का नामो निशान न था। मैंने दोबारा सोफे की गद्दियां झाड़-झाड़ कर देख लीं। लेकिन कहीं भी पर भी लौंग न दिखाई दी।
मैं पेच लेकर उनके दरवाजे पर गई। आंटी ने दरवाजा खोला तो मैंने उन्हें पेच दिखाया। मैंने कहा, "आंटी! आपकी लौंग का पेच तो मिल गया; लेकिन लौंग कहीं नहीं मिली।"
आंटी एकदम खुश हो गई। वे बोलीं, "हां। यह पेच उसी लौंग का है। जहां पेच गिरा था, वहीं लौंग होगी। मेरी हीरे की लौंग थी। फिर से ढूंढते हैं।"
आंटी दोबारा मेरे घर आई और बड़ी शिद्दत से लौंग ढूंढने लगीं। मैं भी उनके साथ ढूंढने में लग गई। लेकिन लौंग न मिलनी थी, तो नहीं मिली। आंटी मुझे देखते हुए, बार बार यही कहे जा रही थी, "जहां पर पेच गिरा, वहीं लौंग होनी चाहिए। लौंग और कहां जा सकती है? यहीं पर ही मिलनी चाहिए।"
मैं सकपका गई। कहीं ये ऐसा तो नहीं सोच रही है कि मैंने लौंग अपने पास रख ली है और पेच उन्हें वापस कर दिया है? ऐसा प्रतीत हो रहा था; जैसे उनकी संदेह भरी नजरें और वाणी, मेरे मन और मस्तिष्क का एक्सरे ले रही हों। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अब मैं क्या करूं? मैंने सोचा कि देखा जाएगा; जो होगा, सो होगा। अभी तो उत्तर पुस्तिकाएं जल्दी-जल्दी जांच कर, अपना कार्य निपटाती हूं।
मैंने कहा, "ठीक है आंटी! थोड़ी देर बाद, फिर से ढूंढ कर देखती हूं।"
उनके जाने के बाद, मैंने जल्दी-जल्दी पेपर चेकिंग शुरू की। दो-चार उत्तर पुस्तिकाएं ही जांच पाई हूंगी; कि आंटी ने फिर दरवाजे की घंटी बजाई। मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई। मैंने सोचा कि अब क्या शामत आने वाली है?
दरवाजा खोला, तो कटारिया आंटी हाथ में हीरे की लौंग लिए हुए खड़ी थीं। वे बोलीं, "मैं तेरे घर से अपने घर तक, रास्ते में ध्यान से देखी हुई जा रही थी। तभी मुझे कुछ चमकता हुआ लगा। यह लौंग, एक सूखे पत्ते के नीचे से चमक रही थी। भगवान का लाख-लाख शुक्र है, कि मेरी हीरे की लौंग मिल गई।"
मेरी जान में जान आई। मैंने कहा, "आंटी! यह तो बहुत ही अच्छा हो गया, कि लौंग वापिस मिल गई। भगवान का धन्यवाद तो करना ही चाहिए; लेकिन अब आप लौंग के पेच को कसकर बंद किया करना। "
"हां! हां! और क्या? अब तो मैं ज्यादा ध्यान रखूंगी।" कह कर आंटी वापस चली गईं।
मैंने उनके जाने के बाद चैन की सांस ली। मुझे लगा कि पत्ते के नीचे छिपी हीरे की लौंग ने, अपनी झलक दिखा कर, आंटी की नजरों में, सदा के लिए बस जाने वाली 'चोर' की उपाधि से मुझे बाल-बाल बचा लिया।
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