Monday, February 12, 2024

धरमू मामा

 मां की बड़ी बुआ रेवाड़ी में रहती थी। और छोटी बुआ सिवाडी में।  सिवाडी फारुखनगर के पास एक गांव है।  छोटी बुआ की एक बड़ी सी हवेली थी और दूर तक फैले खेत थे। इन्हीं बुआ के एकमात्र पुत्र थे, धर्मसिंह। प्यार से इन्हें बचपन में धरमू कहकर बुलाया जाता था।

धरमू मामा बचपन में पता नहीं कैसे रहे होंगे। लेकिन बड़े होने पर तो वह बड़े बेफिक्र और मस्त स्वभाव के थे। किसी भी बात की ज्यादा चिंता नहीं करते थे। उन्हें थोड़ा बहुत लापरवाह और बेपरवाह भी कहा जा सकता है।  लेकिन मस्त मौला होते हुए भी मोटे नहीं थे।  पतले, लंबे और तनिक सांवले वर्ण के थे। उनके चेहरे पर कभी शिकन न दिखाई देती थी।

मुझे याद है कि उनकी पत्नी,  यानि मामी भी शायद वैसी ही बेफिक्र थी। कभी हमारे घर मामा मामी आते तो, मामी एक पीढ़े पर घूंघट काढ कर बैठ जाती थी। मामा अपनी जीजी से बतियाते। उनकी जीजी, यानी मां उनकी बात सुनते-सुनते उनकी खातिरदारी भी करती रहती थी। मामी तो पीढे पर ही विराजमान अपनी खातिरदारी करवाती रहती थी। पता नहीं वह उनका आलस था; या घूंघट वाली शर्म! जो भी हो,  दोनों मामा मामी का जोड़ा था कमाल का! मामा, शायद मां से उधार लेने आते थे। ऐसा इसलिए लगता है, क्योंकि मामा मेहनती तो थे नहीं। तो खेत शायद बेच खाए होंगे।  नौकरी कोई करते नहीं थे । कहीं-कहीं से उधार लेते रहते होंगे।

मेरे नाना जी धरमू मामा से बहुत चिढ़ते थे। नाना जी के भांजे लगते थे धरमू मामा। इसलिए डांटते तो नहीं थे। लेकिन ठीक तरह से बात भी नहीं करते थे। नाना जी झज्जर में रहते थे। धरमू मामा यदा कदा झज्जर भी जाते रहते थे। एक बार ऐसे ही धरमू मामा अपने दो बैलों को लेकर, नाना जी के पास झज्जर में आए। वहां पर मां भी गई हुई थीं। मेरे भाई तब 5 वर्ष के होंगे। वह भी झज्जर में ही थे। धरमू मामा बैलों को लेकर बाजार की तरफ निकले। साथ ही वे मेरे भाई को भी साथ ले गए। रास्ते में उन्हें कुछ परिचित लोग मिल गए। वे उनसे बात करने लगे। बात करते करते, दोनों बैलों की रस्सियां उन्होंने भाई के हाथ में पकड़ा दीं। 

बैलों की रस्सियां जैसे ही भाई ने पकड़ी; कि दोनों बैल चलने शुरू हो गए। भाई भी साथ-साथ चलने लगे। आगे आगे बैल पीछे-पीछे भाई!

 लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि बैल बच्चों को ले जा रहे हैं; या बच्चा बैलों को ले जा रहा है! और धरमू मामा बातों में  व्यस्त थे। उन्हें होश ही नहीं था, कि बैल और बच्चा कहां गए? 

 अचानक नाना जी के किसी परिचित ने भाई को पहचाना। वह बोला, "अरे! यह तो लाला हरद्वारी लाल जी का धेवता है। यह बैलों को कहां लेकर जा रहा है?"

 उसने तुरंत बैलों की रस्सियां पकड़ी, और नाना जी के घर की तरफ ले चला। घर पहुंच कर नाना जी को उसने पूरी बात बताई। भाई तो सहमे हुए थे और हैरान भी थे। नानी ने भाई को गोद में उठाया, और प्यार से पुचकारा। लेकिन नाना जी तो क्रोध से आग बबूला हो गए। वे बहुत गुस्से वाले थे और धरमू मामा से तो बहुत ही चिढते थे। वह वास्तव में धरमू मामा के आलस और लापरवाही से ही  चिढते थे। और आज इसी का नमूना सामने था।

 धरमू मामा जब गपशप मारकर घर आए, तो नाना जी का रौद्र रूप देखकर घबरा गए। नाना जी ने कहा, "अभी इन बैलों को पकड़; और वापस  सिवाडी चला जा। यहां एक मिनट भी नहीं रुकना है।"

 नानी बीच बचाव के लिए आई। वह बोली, "इतना गुस्सा नहीं करते। यह कल आराम से चला जाएगा। अभी तो अंधेरा होने वाला है। अभी यही आराम करने दो।" बड़ी मुश्किल से नाना जी को, उन्होंने राजी किया। तब कहीं जाकर रात को धरमू मामा वहां रह पाए, और सवेरा होते ही वापस सिवाडी चले गए।

 भाई थोड़े बड़े हुए, तो मां के साथ एक बार धरमू मामा के यहां  जाने का मौका मिला। धरमू मामा का, खेतों में जब कटाई का काम चल रहा होता था, तो कभी-कभी वह मां को भी गांव में बुला लेते थे। 

शायद मक्का की कटाई का समय था। मवेशियों के लिए मक्का के डंठलो को, सानी काटने वाली मशीन से, काटना होता था। मामा सानी काट रहे थे। वे भाई को सानी काटने का काम देखकर कहीं चले गए। वैसे यह बहुत गलत था। छोटे लड़के को सानी की मशीन से, हाथ भी कटने का खतरा हो सकता है।  लेकिन भाई बताते हैं कि, उन्हें तो सानी काटने में मजा आया। विशेष तौर पर डंठल के छोटे-छोटे टुकड़े चबाकर, चूसने में बहुत मीठे-मीठे लग रहे थे। मामा वापस आए, तो उन्हें बहुत सारा काम किया हुआ मिला। मामा जरूर खुश हो गए होंगे।  

गेहूं की कटाई के समय पर कभी मां वहां जातीं, तो गेहूं के तिनके की डलिया बनाकर लातीं। वे मां से कई डलिया बनवा लेते होंगे। जिनमें से एक मां भी अपने साथ ले आती थीं। बड़ी जीजी को छोटा भाई ज्यादा कुछ तो क्या उपहार देगा; अलबत्ता बड़ी जीजी से काम तो खूब लेता होगा। आखिरकार मामी भी तो पूरी आलसी थीं। 

जब आखिरी बार मामा, मामी के साथ हमारे घर आए थे; तब मां ने उन्हें सुझाव दिया, कि कोई दुकान खरीद कर कुछ काम शुरू कर दें। इस पर मामा ने ज्यादा विरोध तो नहीं किया होगा;  लेकिन मुझे याद नहीं; कि उन्होंने कोई दुकान का काम शुरू किया हो। धरमू मामा का उसूल रहा होगा:

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम। 

दास  मलूका कह गए, सबके दाता राम।।

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