Monday, June 17, 2024

वैराग्य और आनंद

 सुनीता किचन में इडली बनाने की तैयारी कर रही थी। तभी आभा का फोन आया। "सुनीता! मैं इडली की चटनी बना रही हूं। तेरी इडली तैयार हो गई क्या?"

 "अरे नहीं! अभी बस शुरू ही कर रही हूं। 20-25 मिनट ही लगेंगे। हां, कंचन का फोन आया था। वह भल्ले तैयार कर चुकी।"

 "ठीक है।" आभा ने कहा, "आधे घंटे में हम टैक्सी बुला लेते हैं। मैं कंचन को भी बता देती हूं।" आभा ने फोन रख दिया और फटाफट चटनी बनाने लगी।

 इन तीनों सहेलियां ने आज इंडिया गेट जाने का प्रोग्राम बनाया था। हर महीने ये तीनों, किसी जगह पर, घूमने का कार्यक्रम बना लेती थीं। और फिर पूरा दिन मजे करती। शाम को घर वापस आ जाती थीं। वैसे रोज-रोज फोन पर, या व्हाट्सएप पर, गुफ्तगू तो हो जाती थी। लेकिन इकट्ठे मिलकर मस्ती करने का कुछ अलग ही मजा था। तीनों सहेलियां वरिष्ठ नागरिक थी। जी हां! तीनों रिटायर हो चुकी थी। अब उन्हें और कुछ विशेष कार्य तो था नहीं। सो हंसी-खुशी जीवन का आनंद ले रही थी। ऐसा नहीं था कि उन्होंने सेवानिवृत्ति से पहले ही यह योजना बना ली थी। परंतु, उनकी परिस्थितियों के कारण ही कुछ ऐसा  हो गया था। 

बहुत दिन पहले,  तीनों एक ही विद्यालय में अध्यापिका के पद पर कार्यरत थीं। सुनीता का एक बेटा था। वह पढ़ लिखकर इंजीनियर बनना चाहता था। वह बहुत देशभक्त था। वह भारत देश के बाहर तो कतई नहीं जाना चाहता था और देशभक्त होने के साथ-साथ मातृभक्त भी था। मां से बहुत लगाव था उसे! धीरे-धीरे समय बीता। वह इंजीनियर बन गया। उसकी बहुत अच्छी नौकरी भी लग गई। लेकिन दो-चार वर्ष बीतते तक, उसने देखा कि, उसके बहुत से मित्र विदेश चले गए। और वहां बहुत अच्छी तनख्वाह पर, उन्हें नौकरी मिल गई। उसने सोचना शुरू किया कि,  ज्यादा देशभक्त होना अच्छा नहीं। उसने भी विदेश में नौकरी ढूंढनी शुरू की।

 उसे स्विट्जरलैंड में बहुत अधिक तनख्वाह पर एक नौकरी मिली। काम भी उसका मन पसंद था। सुनीता ने थोड़ा बहुत विरोध तो किया; लेकिन अंतत उसका बेटा स्विट्जरलैंड चला ही गया। और वहीं रहने लगा। कंपनी में काम करते-करते, स्विट्जरलैंड की ही एक लड़की, उसकी मित्र बन गई। सुनीता के बेटे को वह इतनी अच्छी लगी कि उसने, उसके साथ विवाह करने का निर्णय कर लिया। सुनीता को यह निर्णय पसंद नहीं आया। लेकिन उसके बेटे ने मातृभक्ति की कोई परवाह न की और उससे विवाह कर लिया।

 प्रारंभ में तो उसके बेटे बहु वर्ष दो वर्ष में उसके पास ठहरने भी आते थे। लेकिन विदेशी बहू और सुनीता का तालमेल कुछ अधिक दिन तक नहीं चला। सुनीता का मन इस बात से बहुत परेशान रहता। जब तक नौकरी रही, तब तक तो फिर भी सुनीता ने जिंदगी गुजार ली। लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद जीवन दूभर हो चला। इस समय उसकी बातचीत आभा से कुछ अधिक होने लगी। खाली समय में फोन पर गपशप करने से समय बीत जाता था।

 बातों बातों में सुनीता को पता चला कि आभा भी जीवन में बहुत खुश नहीं है। आभा का बेटा था टुन्नू। टुन्नू, का जन्म आभा के विवाह के सात वर्ष बाद हुआ था। इतनी कठिनाई से प्राप्त संतान पर,  आभा जान छिड़कती थी। उसकी जुबान पर टुन्नू- टुन्नू ही रहता था। टुन्नू बडा हुआ  तो पढ़ लिख कर फिजियोथैरेपिस्ट बन गया।

 टुन्नू ने आभा को बताया कि भारत में तो फिजियोथैरेपी का कोई खास महत्व नहीं है। उसका एक दोस्त लंदन जा रहा है। वहां फिजियोथेरेपी के डॉक्टर को बहुत ज्यादा तनख्वाह मिलती है। और वहां सम्मान भी ज्यादा है। आभा ने टुन्नू को लंदन जाने के लिए बहुत मना किया। वह आभा की आंख का तारा था। लेकिन टुन्नू ने तो जिद पकड़ ली। वह लंदन चला गया और वहां नौकरी करने लगा। आभा के भी लंदन के कई चक्कर लगने लगे। टुन्नू  भी भारत आता जाता रहता।

 फिर आभा ने, अपनी जानकारी में, एक सुशील लड़की ढूंढकर, टुन्नू का विवाह कर दिया। शादी के एक-दो साल तक तो आभा  लंदन जाती रही। टुन्नू भी आता रहा। लेकिन बाद में टुन्नू की पत्नी की नाराजगी के चलते, यहां आना जाना कम हो गया। इन्हीं दिनों आभा के पति को कैंसर से मृत्यु हो गई।  पति की मृत्यु के बाद तो आभा जैसे टूट ही गई। टुन्नू पत्नी को नाराज नहीं कर सकता था। इसीलिए वह भी आभा के पास कम ही आता जाता था।

 एक दिन अचानक टुन्नू का फोन आया कि उसकी पत्नी नहीं चाहती कि वह लंदन आए। और ने ही वह चाहती है कि टुन्नू आभा से मिले। इसलिए अब वह कभी भी भारत नहीं आएगा। आभा पर तो जैसे पहाड़ ही टूट पड़ा। वह पति की मृत्यु से तो परेशान थी ही; साथ में टुन्नू का व्यवहार भी असह्य हो चला था।

 सुनीता से फोन पर, अपने मन की बातें साझा की; तो उसे पता चला, कि सुनीता भी बहुत परेशान है। दोनों ने मिलने का कार्यक्रम बनाया। और गाया बगाया, एक दूसरे के घर जाने लगी अपने मन की व्यथा सुनाती, तो मन का बोझ हल्का हो जाता था। 

 एक दिन कंचन आभा के घर आई। आभा को बहुत अच्छा लगा। उसने बताया कि सुनीता और वह तो कभी-कभी मिलते रहते हैं। और अपने दुख सुख बांट लेते हैं। अचानक कंचन की आंख में आंसू आ गए। वह बोली, "मैंने विवाह न करने का फैसला इसलिए लिया था कि अविवाहित रहकर मैं सुखी रह पाऊंगी। मैं स्वतंत्र रहूंगी। और कोई भी मुझे कुछ नहीं कह पाएगा। लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद तो मेरा जीवन नर्क बन चुक चुका है। 

जिस  भतीजे पर, जिंदगी भर मैं जान छिड़कती रही, वे उलटे जवाब देता है। बात बात में गुस्सा दिखाता है। जब तक भतीजे का विवाह नहीं हुआ था; तब तक बुआ जी से वह बहुत प्यार करता था। लेकिन विवाह होने के बाद उसे अपनी बुआ की कतई परवाह नहीं है। भाई-भाभी काफी बूढे हो चुके हैं। भतीजा अपनी मनमानी करता है। और उसकी पत्नी तो,  मेरे अविवाहित रहने पर, कटाक्ष भी करती रहती है। अब तो मैं एक अलग कमरे में रहती हूं। और अपना खाना अलग बनाती हूं। बहुत अकेला जीवन हो गया। किससे अपने दुख सुख बांटू?"

 आभा ने अपनी और सुनीता की सब व्यथा  कंचन को सुनाई।  वह बहुत हैरान हुई। उसने सोचा ना था, कि कंचन और आभा के साथ भी किस्मत ने खिलवाड़ किया है।  अब तीनों ने आपस में बातचीत की। और निर्णय लिया कि दुखी मन लेकर जीवन बिताना कोई समझदारी नहीं है।

 सुनीता ने किसी धार्मिक संस्था में जाना शुरू किया था। उसने कहा कि, प्रसन्न रहने के लिए जरूरी है कि सब कुछ भूल कर स्वयम् में स्थित हो जाओ। तभी स्वस्थ रहोगे। आभा बोली,  "हां भई! अपनी सेहत का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा। नहीं तो जीवन दूभर हो जाएगा।"

 कंचन बोली, "हमारे ऊपर कोई जिम्मेदारी तो है नहीं। हमें चाहिए, जो हमारा मन करे, हम वही करें। घूमें, फिरें,नाचें,गाएं मजे में खाएं-पीएं।"

 सुनीता बोली,  "मुझे तो एक आईडिया आ गया। क्यों ना हम, कभी-कभी घूमने फिरने जाए और मौज मस्ती करें। कंचन बोली,  "हर महीने में एक दिन प्रोग्राम बना लेते हैं। कभी घर से खाना बनाकर ले आएंगे; कभी बाहर भी खा लेंगे। पूरा दिन मस्ती करेंगे, फोटो खींचेंगे, और शाम को घर वापस आ जाएंगे। आभा ने कहा, "यह बढ़िया रहेगा। हमें नए-नए अनुभव होंगे, जिन्हें हम आपस में, और अपनी सहेलियों में साझा करेंगे। इससे हम अपने पिछले कटु अनुभव भी भूल सकेंगे। जिनसे हमें बहुत अधिक राग था; उनसे वैराग्य हो सकेगा।"

"वाह! क्या शब्द निकला!" सुनीता बोली। "वैराग्य! ठीक ही तो है। राग का न होना ही तो वैराग्य है। हम परेशान भी इसी अधिक राग के कारण ही तो थे।  अब तो वैराग्य और आनंद दोनों ही प्राप्त हो सकेंगे।"

और वास्तव में भी, उन तीनों को जीवन में अपनों से, वैराग्य के बाद, वास्तविक आनंद की अनुभूति होने लगी।

No comments:

Post a Comment