सांस जब थिरकती हैं
अपने सुर ताल में
दर्शन तब होता है
मन दर्पण संजोता है
अपने ही बिम्ब को
अपने ही भाल में।
मायावी कारीगर
तंतु तंतु बुनता है
रूप रंग चुनता है
कंपन भर देता है
सृष्टि विशाल में।
कितना हितकारी है
किसके सिर भारी है
कौन कभी उलझा नहीं
पल-पल के रचित घटित
मायावी जाल में।
कुंठा जब दूर हुई
सरलता का साथ मिला
पाया तब विश्व विदित
व्यापक उस नायक को
निज मन विशाल में।
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