"क्या वो नाराज़ है ?"
प्रश्न यही पूछा जब ,
मेरे ही अपने ने ,
" अपनों से क्या पूछें?
क्यों वे परेशान है ?
क्यों वे हैरान हैं ?
क्यों वे उदास हैं ?
क्यों चुपचाप हैं ?
कहाँ गई उनकी हंसी ?
खो गई सारी ख़ुशी
क्यों भला वो रूठे हैं ?
क्या ये रिश्ते झूठे हैं ?
क्या करे जो माने वो ?
अपना ही जानें वो
कौनसी वो अड़चन है ?
आ गई है जो पथ में
हर बुरा भला सहा
कुछ नहीं उनको कहा
फिर क्यों वे गुमसुम हैं
क्यों भला वे चुप चुप हैं
क्यों मेरा जो हर पल है
आवेश से बोझिल हैं
प्रत्येक क्षण जो सूना है
किस तरह से छूना है ?
क्या मेरी तो गलती है ?
क्यों नहीं संभलती है?"
मैंने कहा धीरे से
" एक मन्त्र ये ले लो.
ओ मेरे हितैषी तुम ,
भूल नहीं जाना ये ;
त्याग ही तो जीवन है .
त्याग में अपनापन है .
त्याग में जो खोता है .
कई गुना मिलता है .
त्याग का जो रिश्ता है ,
हर कदम पे पुख्ता है .
स्वार्थ छोड़ अपना जो ,
भूलते अपनी ख़ुशी को .
दूसरे को सुख वो देकर ,
मुग्ध हो जाते वहीँ है .
ख़ुशी वे पाते यही हैं .
त्याग करके देख तो लो .
फिर कोई नाराज़ होगा ?
ये तो नामुमकिन नहीं है .
फिर भी खुशियाँ कम नहीं हैं .
अपने दिल की हो तसल्ली ,
फिर तो कोई ग़म नहीं है .
अपनों को पाने का ,
वापिस बुलाने का ,
बीते दिन लाने का ,
यही अंदाज़ है .
त्याग एक साज़ है .
जब निकलती आवाज़ है ,
सरगम में लिपटकर ,
सब रिश्ते मिल जाते हैं .
सभी गुनगुनाते हैं .
प्यार को पाने का ,
यही एक राज़ है .
मन का खुश हो पंछी तब ,
भरता परवाज़ है.
फिर भला कौन कहे ?
" क्या वो नाराज़ है?"
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