नन्हे चपल पंखों से
दूर तक उडान भर
लाई वो तिनकों को
पल पल चुन चुन कर
दूर खड़ा क्षितिज उसे
निहारता चला गया
तिनके पर तिनका बुन
घोंसला बनता रहा
कोमल शुष्क श्वेत पंखों से
नर्म सा बिस्तर सिया
और फिर उपयुक्त क्षण में
गोल सा अंडा दिया
देखते ही देखते बस
रंग लाया श्रम बड़ा
एक नन्हा सा विहग अब
था बिछोने पर पड़ा
गर्व करती थी स्वयं पर
देखकर अपनी विजय को
चोंच भरभर के वो खाना
तृप्त करती निज शिशु को
समय आया पंख उपजे
और वह शिशु उड़ चला
देखकर अपनी सफलता
युवा माँ का दिल खिला
समय आया पुन: उसने
एक फिर अंडा जना
मानो सुन्दर सीप में इक
बड़ा सा मोती बना
फिर से मेहनत रंग लाई
फिर हुआ वह शिशु बड़ा
और पंखों को पसारे
दूर तक वह भी उड़ा
मुग्ध हो कर माँ ने अपने
पंख भी फेला दिए
यों लगा ज्यों मन में उपवन
खिल रहें हों नित नए
साथ बच्चों के वो अपने
विचरती नभ में रही
हो गए फिर शिथिल जब पर
बैठ कोटर में गई
अब वहीँ से निरख उनको
वह अतीव प्रसन्न है
देख बच्चों की उडाने
हर्ष रस में निमग्न है
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