Wednesday, April 20, 2011

प्यार तो बस है छलावा !

छोटी जब थी भोली सी वह  
घर को पूरा संवार रखती 
माँ की  अनुगामी बन कर वह               
झाड़ पोंछ बुहार करती 
            घर के सारे काम करना 
             एक लड़की का फ़रज है 
             सुगढ़ ,शिक्षित गृहिणी बनना
             नारी  जाति की गरज है 
पढो तुम पर हो सुनिश्चित 
घर के सारे काम आएँ
चलो बेटी काम घर के 
मिल के पूरे हम कराएँ 
                घर के बेटे खूब पढ़ के 
                नाम को रोशन करेंगे 
                और जब ऊँचे चढ़ेंगे 
                मन में सौ दीये जलेंगे 
मुदित हो वह भी लगन से 
मां के संग ही व्यस्त रहती 
और इसके साथ ही वह 
पोथियों में मग्न रहती 
                  भाग्य ने धोखा दिया था ;  
                  या रहा अध्ययन सतह पर  
                  रह गयी वह धरा छूती 
                  और भाई आसमां पर 
देख कर उनको वो उड़ते 
 ह्रदय में पुलकित बड़ी  थी 
मेरे अपने उड़ रहे हैं
सोचती थी वह ठगी सी 
                     चाहती थी वह नहीं कि
                     पंख तो उसके भी आएँ 
                     पर यही थी इक तमन्ना 
                     अपने न उसको भुलाएँ 
एक युग के बाद उसने 
झांककर जब नभ को झाँका 
धुंधले थे सब अपने चेहरे 
कह रहे क्या हमसे नाता?
                      या तो उसका है भुलावा 
                      या कहो तकदीर उसकी 
                     पर यही वह सोचती है 
                     कुछ रही उसकी भी गलती  
चाहे यह नूतन जगत हो 
यही सब चलता है आया 
त्याग  जितना भी करो तुम  
प्यार तो बस है छलावा 




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