क्या मैं परास्त हूँ ?
भीषण इस अग्नि में
सोने सा तपता मन
लपट लपट धधक उठे
बन जाये ये कुंदन
पिघल कर न बह जाए
इस से तो त्रस्त हूँ
क्या मैं परास्त हूँ?
आंधियां जो चलती हैं
मन में घुमड़ती हैं
भावों के वेग लिए
उठती ही रहती हैं
शांत इन्हें करने में
कितनी मैं व्यस्त हूँ
क्या मैं परास्त हूँ?
जीवन के दर्पण में
उज्ज्वल कुछ पल आए
चुपके से सहेजा यों
फिसलकर न वो जाएँ
काले प्रतिबिम्बों से
फिर भी आक्रान्त हूँ
क्या मैं परास्त हूँ ?
दुविधा से बोझिल मन
सुविधा का करे यत्न
पल पल इस जीवन का
कण कण बन जाए मन
भारी गठरी को कब
कर पाई ध्वस्त हूँ ?
हाँ मैं परास्त हूँ .
क्यों मैं परास्त हूँ ?
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