Saturday, April 30, 2011

क्या वो नाराज़ है?

"क्या वो नाराज़ है ?"
प्रश्न यही पूछा जब ,
मेरे ही  अपने ने ,
" अपनों से क्या पूछें?
क्यों वे परेशान है ? 
क्यों वे हैरान हैं ?
क्यों वे उदास हैं ? 
क्यों चुपचाप हैं ?
कहाँ गई उनकी हंसी ?
खो गई सारी ख़ुशी 
क्यों भला वो रूठे हैं ?
क्या ये रिश्ते झूठे हैं ?
क्या करे जो माने वो ?
अपना ही जानें वो 
कौनसी वो अड़चन है ?
आ गई है जो पथ में 
हर बुरा भला सहा 
कुछ नहीं उनको कहा 
फिर क्यों वे गुमसुम हैं 
क्यों भला वे  चुप चुप हैं 
क्यों मेरा जो  हर पल है 
आवेश से बोझिल हैं 
प्रत्येक क्षण  जो सूना है 
किस तरह से छूना है ?
क्या मेरी तो गलती  है ?
क्यों नहीं संभलती है?"
मैंने कहा धीरे से 
" एक मन्त्र ये ले लो.  
ओ मेरे हितैषी तुम ,
भूल नहीं जाना ये ;
त्याग ही तो जीवन है .
त्याग में अपनापन है .
त्याग में जो खोता है .
कई गुना मिलता है .
त्याग का जो रिश्ता है ,
हर कदम पे पुख्ता है .
स्वार्थ छोड़ अपना जो ,
भूलते अपनी ख़ुशी को .
दूसरे को सुख वो देकर ,
मुग्ध हो जाते वहीँ है .
ख़ुशी वे पाते यही हैं .
त्याग करके देख तो लो .
फिर कोई नाराज़ होगा ?
ये तो नामुमकिन नहीं है .
फिर भी खुशियाँ कम नहीं हैं .
अपने दिल की हो तसल्ली ,
फिर तो कोई ग़म नहीं है .
 अपनों को पाने का ,
वापिस बुलाने का  ,          
बीते दिन लाने का ,
यही अंदाज़ है .
त्याग एक साज़ है .
जब निकलती आवाज़ है ,
सरगम में लिपटकर ,
सब रिश्ते मिल जाते हैं .
सभी गुनगुनाते हैं .
प्यार को पाने का ,
यही एक राज़ है .
मन का खुश हो पंछी तब ,
भरता परवाज़ है. 
फिर भला कौन कहे ?
"  क्या वो नाराज़ है?"




Friday, April 29, 2011

वाणी की कोमलता

नन्हा   झरना धीमी गति से 
नर्म मुलायम दूब पर बहे 
ऐसा कोमल स्वर झरता है 
नुपुर छोटे कहीं बज रहे 
          चिकने कोमल पत्तों पर से 
           बूँद कोई कोमल बहती हो 
          जैसे सर्दी के  मौसम में 
           धूप नरम, तन को छूती हो 
छोटी चोंच खोलकर चिड़िया 
हलके से चूं चूं करती हो 
या फिर लहर लहर मिलते ही 
होले होले हिल उठती हो 
          छोटी सी एक कली वृक्ष से 
          धीरे से चुपचाप गिर रही 
          जैसे ठंडी पवन मंद बह 
          अटखेली हर तरफ कर रही 
नन्हा  सा शिशु मन्दे स्वर में 
जैसे किलकारी भरता हो 
या फिर मधुप पास में आकर 
मधुर मधुर गुंजन करता हो 
            कोयल अपने मादक स्वर में            
            नन्हे शावक से ज्यों बोले 
            दूर कहीं एक चतुर पपीहा 
             चुपके चुपके मिसरी घोले 
जैसे शांत पवन में कोई 
धीरे से इक पंख गिराए 
या भोली मछली पानी में 
शांत भाव में बहती जाए 
              जैसे सारंगी के स्वर में 
              वीणा पुलकित सी होती हो 
               या मादक सी जलतरंग में 
               कोमल पावन धुन सजती हो 
 जैसे सुरभित बंद कली को 
छूकर सूर्य किरण चटखाए 
  ऐसी कोमलता से नेहा 
  वाणी में अमृत बरसाए  

Thursday, April 28, 2011

आहत मन


धरती पर सोया मन का खग        
नभ में ऊपर उड़ चलता है 
भूल सभी धरती की दलदल 
इन्द्रधनुष पर पग रखता है 
पर रंगों के पीछे भी जब  
तम में डूबा जग दिखता है 
तब ये व्याकुल हो उठता है   
          कभी करे करुणा से क्रंदन 
          देखे जब भी दु:ख  से पीड़ित
          कुत्सित कातर कंठ स्वरों को
           कठिन वेदना से उत्पीडित
           घायल मन को घायल तन को 
           तब यह विह्वल हो उठता है 
छोटे नन्हे हाथों में जब 
देखे औजारों को चलते 
या फिर  घर के काम में लगे 
दो हाथों को बर्तन मलते
करुणा से भर तब मन बोला  
क्रूर समय क्या क्या करता है ?
            नयी नवेली दुल्हन को जब 
            पति शराबी ने है पीटा
            दो रोटी को तरस गई वो 
            अपने तन को खूब घसीटा 
             फिर भी डांट डपट पड़ती है 
             मन तब  अपमानित होता है
बूढा पिता पुत्र से बोला 
बेटा मेरे संग भी आओ 
मेरे सुख दुःख तो कुछ बाँटो
मेरे संग भी समय बिताओ 
माथे पर सौ त्यौरी लेकर 
बेटा डांट डपट देता है 
तब मन छिन्न भिन्न होता है 
               घर में सूखी रोटी लेकर 
               बेटी ने वह गुड से खाई  
               इस पर माँ ने डंडा लेकर 
               बेटी की, की खूब धुनाई .
               रखा था वह  पिता के लिए, 
               इसीलिए बच्चा पिटता है 
सूखी सर्दी में ठिठुरन है
सभी तनों पर मोटे कपडे  
लेकिन नंगे पैरों  से वे 
चलते बस्ता हाथ में पकडे 
एक वस्त्र पूरा तन ढांपे 
यही देख मन रो उठता है 
             लम्बी बीमारी से लड़ते 
             कोमल शिथिल क्षीण काया से 
             सर्दी में ठन्डे  पानी से 
             काम सभी के करती हँस के 
             देख व्यथा उस मजबूरी की 
             मेरा मन आहें भरता है 
कैसे इन्द्रधनुष को देखूँ?
कैसे सतरंगी  सपने लूँ?
देख दुखी जन की पीड़ा को
नभ पर कैसे झूले झूलूँ ?
कैसे व्यथा मिटाऊँ सबकी?
यही प्रश्न मन भी करता है
                 मेरे मन का व्याकुल पंछी
                 धरती पर ही तब रहता है
                 देख व्यथा के घिरते बादल
                 मूक सभी कुछ ये सहता है
                " कभी छंटेगी  सभी वेदना "
                  आस , उसे संबल देता है
               



  

love is to be felt


यह कविता मेरी पुत्रवधू रिद्धिमा ने छ: महीने पहले लिखी 


The warmth of a hug,
the closeness of a kiss.
Such moments of belonging
should never be missed!
Hearts pound
and hearts melt
Love is not love
until it is felt

A look in a crowd
a whisper not loud
silence that speaks
a clock that ticks
A pat on the shoulder,
a cuddle in the bed.
a soft touch on the cheek
shaking hands when you meet
Hearts flutter
and hearts melt
Love is not love
until it is felt.

A massage on the back,
when it pains the most.
A lap to lie down
when you want to cry the most.
Hearts suffer
and hearts melt
Love is not love
until it is felt.

Violins play and bells ring
but eyes cant help but stare
everything turns beautiful
coz music is in the air
Sometimes resounding giggles,
that takes your breath away.
sometimes hiding tears,
tough to breathe anyway.

Love so simple,
yet so profound.
ignorant to its core
yet so pure
Two hearts meet
two hearts melt
Love is not love
until it is felt.



-- Ridhima

capture every moment



मेरी पुत्रवधू रिद्धिमा ने यह सुन्दर सी कविता तीन वर्ष पहले लिखी



The day begins... the day ends.....
its how the time flies....
and i dont realize....
one day this life will get over...
and i ll still be wondering "where did i keep my house keys?"...
There are so many things that I would still like to do...
There is lots of music that I still want to hear.....
There are lots of dreams that I still have to dream.......
There is a lot of earth that I still want to walk on....
Moment by moment... life slips by.....
like a small river under a huge bridge...
and all i see are shadows of myself searching for the right path......
In the end... I cant help feeling.. wish I had walked that path....
A lot has gone... A lot is awaited.....
what left are the moments....
moments i love..
moments i cherish......
moments that motivate me to live......
cant help feeling the beauty of it...
because even at this moment... as i write this......
time is slipping by.................
There is a lot of earth that I still want to walk on....

Wednesday, April 27, 2011

नशा छुड़ाने की दवाई

जिन सरकारी स्कूलों में मैंने पढ़ाया , वहाँ लगभग ऐसे बच्चे आते थे ,जिनके घर में आय के सीमित साधन थे . उनके घरों में और भी पैसे की तंगी इसलिए हो जाती थी ,क्योंकि बहुत बच्चों के पिता शराब की लत से ग्रसित थे . मुझे आदत थी कि हफ्ते दो हफ्ते में कभी कभार मैं उन्हें आम ज़िन्दगी में काम आने वाली बातें भी बताती थी .       
एक बार मैंने सोचा क्यों न बच्चों को बताया जाए कि शराब की लत कैसे छुडवाई जा सकती है . यही सोचकर उस दिन मैं नवीं कक्षा के क्लासरूम में गई।
                         कक्षा में जाते ही मैंने बताया कि आज पढाई नहीं करेंगे . बल्कि कुछ अलग तरह  की जानकारियाँ  लेंगे . बच्चे बहुत खुश हुए . अगर किसी पीरियड में बच्चों को पाठ्यक्रम सम्बन्धी बात न बताकर कुछ अलग बातें की जाएँ, तब उनके चेहरे पर जो चमक होती है , वह देखते ही बनती है . सबका ध्यान पूरी तरह केन्द्रित होता है ,और आँखें एकदम टकटकी लगाकर, टीचर को देख रही होती हैं कि बस अब जल्दी से वे कुछ बताएं .
 मैंने बच्चों से कहा,"देखो भई! हमारे समाज में एक बहुत बुरी समस्या है. वह है, शराब पीने की लत ." बच्चों ने एकदम मुझे ध्यान से देखा. उनके मुखमंडल पर हैरानी साफ़ दिख रही थी. और उतावलापन भी था ,जैसे जल्दी से ही जान लेना चाहते हों कि अब आगे क्या?
                              मैंने बताना ज़ारी रखा ,"तुम सभी आस पास देखते होगे कि कई लोग अपने पैसे को शराब में बर्बाद करते हैं .इससे धन का ही नुकसान नहीं होता बल्कि स्वास्थ्य भी खराब होता है." बच्चों का मौन धारे मुझे सुनते रहना इस बात का पक्का संकेत था कि वे मेरी बातों से पूरी तरह सहमत हैं ." कई लोग "  शब्द मैंने जान बूझकर इस्तेमाल किया था . अगर मैं उनके पिता से इस का सम्बन्ध जोडती तो वे अपमानित महसूस करते . "हमें ऐसा कुछ करना चाहिए कि वे सभी शराब पीना छोड़ दें ."
                            यह सुनते ही एक छात्रा झट से बोल उठी ,"हाँ मैडम ! पर क्या ऐसा हो सकता है ? जो एक बार शराब पीना शुरू कर दे , वह तो कभी छोड़ता ही नहीं है ."
       " हाँ भई , ज़रूर हो सकता है . परन्तु कोशिश करनी पड़ेगी ." मेरे द्वारा इतने आत्मविश्वास से कहा गया वाक्य उनमे भी विश्वास जगा रहा था . मैंने फिर कहा ,"क्या सभी बच्चे जानना चाहते हैं कि शराब कि लत कैसे छुड़ाई जाए ?बोलो, कितने बच्चों को जानना है ?" एक साथ पूरी कक्षा के हाथ खड़े हो गए . 
            मैंने कहा ,"सभी अपनी कापी निकालकर नुस्ख़ा नोट कर लो ." बड़ी चुस्ती से सभी बच्चों ने पैन और कापी निकाल लिए . मैंने बोलना शुरू किया ," पहले दो सौ पचास ग्राम अजवायन लो ." "वह अजवायन जो सब्जी में डाली जाती है मैडम ?" एक बच्चे ने पूछा . 
               "हाँ . वही अजवायन,  दो सौ पचास ग्राम लेकर, उसे चार लीटर पानी में डालो . अब इसे मंदी मंदी आंच पर धीरे धीरे पकने दो ." एक छात्रा पूछ उठी ,"कब तक मैडम ?"
                      " इसे मंदी आंच में तब तक पकने दो ,जब तक पानी एक चौथाई न रह जाए ; अर्थात एक लीटर पानी बच जाना चाहिए ." सभी बच्चे बड़े मनोयोग से कापी पर निरंतर लिखे जा रहे थे .
                          "अब इसको ठंडा करने के लिए रख दो .और बाद में इसे छानकर एक बोतल में डाल दो " मैंने देखा, बच्चों ने यह वाक्य भी लिख लिया था . 
                    " बोतल को फ्रिज में रखना है या बाहर. "   एक छात्र बोला .
   मैंने उसे बताया कि बोतल को फ्रिज में रखो तो अच्छा है . वैसे बाहर भी रखा रहे तो कुछ बिगड़ेगा नहीं .  "लेकिन इसे इस्तेमाल कैसे करना है ; इसे ध्यान से सुनो।
जिसको शराब की लत है; उसे बिलकुल सुबह, बिना कुछ खिलाये,यानि खाली पेट, यही अजवायन का पानी आधा कप, मतलब दौ सौ मिली लीटर के करीब, पिला दो . इसके आधे घंटे के बाद ही उसे कुछ खाने दो .
शाम को खाना खाने के बाद भी इसे दिया जा सकता है. इससे जल्दी फायदा  होगा. "
                सभी छात्र छात्राओं ने ये बातें अच्छी तरह नोट कर ली थी . मुझे बड़ी ख़ुशी थी कि प्रत्येक बच्चे ने मेरी हर बात को ध्यान से सुना ही नहीं बल्कि लिख भी लिया . "क्यों भई, क्या अपने आस पड़ोस में सबको इस बारे में जागरूक करोगे ?"मैंने जब सबसे पूछा , तो सभी में बड़ा जोश नज़र आया .
                                           चार पांच दिन के बाद कक्षा के सबसे होशियार छात्र की माँ मुझसे मिलने आई . उसने मुझे बताया कि उसके पति शराब बहुत पीते हैं . उसके बेटे ने माँ के पीछे पड-पड़कर अजवायन का पानी बनवाया , जिससे  कि   उसके  पिता की शराब छूट सके . 
अगले सत्र में जब अभिभावक संघ की मीटिंग हुई; तो कई माताओं ने मुझे इस प्रयोग के अच्छे परिणाम बताए. इससे मुझे अंदाजा हुआ कि बच्चों को कोई भी बात बताई जाए और वे ध्यानपूर्वक बात सुनकर अमल में लायें ,तो परिणाम दूरगामी और सुखद हो सकते हैं . इसके बाद तो मेरा भी उत्साह बहुत अधिक बढ़ गया . कभी कभार किसी किसी पीरियड में ऐसी सामाजिक बुराइयों के बारे में चर्चा किया करूंगी ; ऐसा मैंने निश्चय कर लिया .

Tuesday, April 26, 2011

मानो या न मानो

मेरे दादाजी गाँव के माने हुए वैद्य थे . दूर दूर से लोग उनके पास इलाज़ के लिए आते थे . उन्होंने अगर किसी बीमार  की नब्ज़ पकड़ ली तो लोगों को विश्वास हो जाता था कि वह जरूर स्वस्थ हो जाएगा . कितने ही लाइलाज़ बीमारियों से ग्रसित लोग उनके हाथ से ठीक हुए . उन्हें रूपये पैसों का लोभ कतई नहीं था . इलाज़ के बाद जितने रूपये किसी ने दिए; वही ठीक थे . वे कुछ कहते नहीं थे . एक बार एक बहुत बड़े सेठ का बेटा बीमार पड़ गया . उसने दादाजी को अपने घर बुलवाया . उसने दादाजी को कहा कि वो कितना भी रुपया लें ; पर उनके बच्चे को ठीक कर दें . दादाजी ने बच्चे की नब्ज़ देखी और उपचार प्रारंभ कर दिया . थोडा समय लगा; परन्तु बच्चा पूरी तरह स्वस्थ हो गया . सेठ दादाजी के पास आया . उसने दादाजी को बच्चे के उपचार के पारिश्रमिक के तौर पर कुछ स्वल्प सा धन देना चाहा . कोई साधारण व्यक्ति होता तो दादाजी कुछ भी न कहते . लेकिन इतने बड़े सेठ के बच्चे की लाइलाज़ बीमारी का बहुत घटिया सा प्रतिफल उन्हें स्वीकार नहीं हुआ . इसमें उन्हें अपमान का अनुभव हुआ . वे ख़ुद्दार बहुत थे . मजाल है, कोई उनसे ऐसा वैसा शब्द बोल  भी जाए!  ऐसे हाज़िर   जवाब थे कि जवाब सुनते ही सामने वाला खिसिया जाता था . तो सेठ को उन्होंने बड़े गंभीर अंदाज़ में कहा ,"लाला! तुम्हारा बेटा बिलकुल स्वस्थ हो गया है . मेरे लिए तो यही बहुत है . ये रूपये किसी ज़रुरतमंद को दान कर देना . भगवान तुम्हारा भला करे ." सेठ के और अधिक रूपये पेश करने पर भी उन्होंने स्वीकार नहीं किए,और सेठ शर्मिंदा होकर वापिस चला गया .
                                                   एक बार ऐसा हुआ कि मेरे ताऊजी  बहुत बीमार पड़ गए . उनकी उम्र बहुत छोटी रही होगी . शायद  नौ या दस साल की.  दादाजी के हाथों में वो शफ़ा थी कि भयंकर से भयंकर बीमारी की पकड़ रखते थे . उन्होंने ताऊजी  का उपचार प्रारंभ किया . पर बुखार तो उतरता ही न था . सभी तरह की दवाईयाँ आजमां चुके थे . बुखार को एक महीने से भी अधिक हो गया था . बुखार उतरने का नाम ही न लेता था . ताऊजी   की भूख भी खत्म हो गई  थी . दादी बहुत चिंतित थी . वह दादाजी से बोली कि उन्होंने कितने मरीज़ ठीक किए , अब अपने बेटे को जल्दी से ठीक क्यों नहीं करते . 
                                                    दादाजी भी कम परेशान थोड़े ही थे . वे मन ही मन कह रहे थे ,"हे भगवान! यह कैसी परीक्षा ले रहा है ? मेरे बेटे का बुखार क्यों नहीं उतर रहा ? ये कुछ नहीं खाएगा तो जीएगा कैसे ?" दादाजी हुक्का पीते थे . रात का समय था . ताऊजी  बिछौने पर सो रहे थे . दादाजी को नींद नहीं आ रही थी . उन्होंने सामने हुक्का रखा और पीने लगे . वे शिवजी के उपासक थे . अत:  मन ही मन शिवजी का ध्यान बड़े मनोयोग से करने लगे . अचानक आधी रात के समय शिव और पार्वती आए. शिवजी ताउजी के बिछौने के पास गए . अपना हाथ आगे बढाकर उन्होंने ताऊजी  के पूरे शरीर पर ऊपर से नीचे तक फेरा . फिर वे दोनों चले गए . 

                                                   सवेरा हुआ . ताऊजी  नींद से उठे और उठते ही बोले ,"माँ! भूख लगी है . रोटी दे दो ." दादी विस्मय भरी प्रसन्नता से ताउजी को देखने लगी . दादाजी से बोली ,"देखो ये रोटी मांग रहा है !" दादाजी भी हैरान हुए. उन्होंने ताऊजी का माथा छुआ. बुखार नदारद था . उन्हें रात की घटना याद आई . उन्होंने दादी को भी बताया . वे भी अचरज में पड़ गई . पर भगवान में उनका विश्वास और पक्का हो गया . उसके बाद ताऊजी  छुटपन में तो कभी बीमार ही नहीं पड़े . उनकी मृत्यु के समय भी उनकी उम्र लगभग सत्तर वर्ष तो होगी ही . मानो या न मानो ; यह बिलकुल सच्ची घटना है .
                                        

Monday, April 25, 2011

चील और पतंग

लहराते हुए बादलों के साथ साथ  हाथ में हाथ डाले वह पतंग हवा में मस्ती से झूल रही थी . हवा में नाचते नाचते  उसे  नीचे जमीन की हर चीज बौनी लग रही थी . ऊँचे से ऊँचा वृक्ष भी उसे बहुत बहुत छोटा दिख रहा था . उसे तो वह ऐसे देख रही थी ,जैसे कह रही हो ,"कहाँ तुम और कहाँ मैं !  मैं  सफलता के सर्वोच्च शिखर पर आसीन हूँ  ; और तुम तो ज़मीन  पर ही खड़े हो . प्रत्येक  वस्तु को अस्तित्वहीन समझती हुई वह घमंड में इठलाती हुई जहां तहां  झोंके पर झोंके खा रही थी . हवा को भी यह देखकर बड़ा मज़ा आ रहा था . वह उसे ऊपर और ऊपर चढ़ाए जा रही थी; और उसे घमंड से सीना फुलाए  देख, हंस हंस कर लोट पोट हुई जा रही थी . लम्बी डोरी से बंधी हुई वह कभी इधर देखती , कभी उधर . हर तरफ उसे सभी छोटे कीड़े मकोड़ों की तरह लग रहे थे . नाक सी चिढ़ाती वह सोच रही थी ,"उफ़ ! इनका जीना भी कोई जीना है?  वास्तव में तो मैं जी रही हूँ . इतनी ऊँचाइयाँ  छू रही हूँ . मेरी कोई बराबरी नहीं कर सकता . है कोई, जो मेरे सामने ठहर कर दिखाए? सर्वाधिक उंचाई पर आसीन हूँ मैं! अरे मुझसे टक्कर लेने वाला, कोई है ही नहीं!"  
                           तभी एक उडती हुई चील आई . उसने पतंग की बात सुन ली . वह बड़ी गंभीर आवाज़ में बोली ,"ऐसा मत सोच पतंग, कि तुझसे ऊंचा कोई नहीं . देख, मैं तुझसे भी ऊंची  उड़ सकती हूँ . मेरे कितने बड़े बड़े पंख हैं . मैं तो सारे आसमान की उंचाई नाप सकती हूँ . परन्तु यह घमंड का विषय थोड़े ही है . विनम्र भाव होना चाहिए ; अधिक फूलना नहीं चाहिए ."  
पतंग को बहुत क्रोध आया . वह बोली ,"यह तो डोर से बंधी हूँ . नहीं तो तुमसे भी ऊंची उड़ सकती हूँ . तुमने अपने को समझा क्या है ? एक मौका तो मिले; दिखा दूँगी तुम्हें भी, कि मैं क्या हूँ? 
             चील ने कहा ,"तुम डोरी से बंधकर ही उड़ पा रही हो पतंग  ! स्वतंत्र रूप से उड़ना तुम्हारे वश की बात नहीं . इसलिए अधिक इठलाना व्यर्थ है . वैसे तुम अगर स्वयं उड़ भी सकती होती, तब भी घमंड करना तो अच्छी बात नहीं है न ."
               चील की बात सुनकर  पतंग  का  क्रोध  बहुत अधिक बढ़ गया . वह झटके  मारती हुई गुस्से में इधर उधर फुफकारने लगी . उसे लग रहा था की एक बार वह झटके से डोर से अलग हो जाए और फिर चील को दिखलाए की वह क्या है .
              तभी कुछ ऐसा हुआ एक स्थान पर कच्चा होने के कारण झटके से डोर टूट गई. पतंग मुक्त हो गई . उसकी ख़ुशी का ठिकाना न था . वह बोली ,"चील! अब तुझे दिखाती हूँ कि मैं कितनी ऊंची उड़ सकती हूँ .".वह आसमान की ऊँचाइयों  में ऊंची और ऊंची पहुँच गई . हवा हंसी से लोट पोट होती उसे ऊपर चढ़ाए  जा रही थी . पतंग भी घमंड में चूर अधिक और अधिक इठलाती जा रही  थी . चील बस मुस्कुरा कर रह गई .
              और तभी अचानक शरारती हवा रुक गई . बस ,पतंग का गिरना शुरू ! "अरे! यह क्या हो रहा है? मैं नीचे क्यों जा रही हूँ ? मैं ज़मीन की नीचाइयों के लिए थोड़े ही बनी हूँ . ज़मीन तो तुच्छ वस्तुओं के लिए है . मैं तो शानदार हूँ . मैं आसमान से नीचे तो आ ही नहीं सकती . ये सब क्या हो रहा है?" तभी धम्म से वह ज़मीन पर गिर गई . ऐसे धूल में वह लौटेगी; उसने सोचा ही न था . वह बहुत परेशान और उदास हो गई 
               तभी वहां चील नीचे उतर कर आई . पतंग ने मुंह फेर लिया . वह बहुत झेंपी  हुई थी . चील से आँख मिलाए तो कैसे ? पर चील ने तो फिर भी उसे प्यार से कहा. वह धीरे से बोली ,"हमेशा अपने आधार पर ही ऊँचाइयों को छूने का प्रयास करना चाहिए.  और अपने आधार पर ऊंचाई तक पहुँच भी जाओ ,तब भी  व्यर्थ का घमंड नहीं करना चाहिए . जब भी तुम घमंड करते हो , कुछ लोग तुम्हे खूब चढाते हैं . और बाद में मन ही मन हँसते भी बहुत हैं . देखो न इस हवा को!  पहले  तुम्हें  चढ़ा दिया . अब तुम्हें पटखी  देकर,  कैसी खुश हो रही है ."
                पतंग ने हवा को देखा और समझ गई कि वह उसका उपहास कर रही है . वह रुंआसी हो गई . चील ने फिर समझाया ,"देखो जमीन को . इसने कितने प्यार से तुम्हे सहारा दिया . अब तुम अपने आधार पर टिकी हो और प्यार भी पा रही हो . यह जमीन करोड़ों  का मज़बूत आधार है . जो ज़मीन पर रहते हैं उन्हें कभी कम नहीं समझना चाहिए . आसमान पर भी तो तभी तक उड़ा जा सकता है , जब तक ज़मीन का सहारा  है . मैं भी तो तभी उड़ान भरती हूँ, जब जमीन  पर पले प्राणियों को अपना भोजन बनाती हूँ .  और उड़ भी पाती हूँ; तो इसमें घमंड क्या करना ? यह तो मेरी नियति है ." 
 सभी बात पतंग की समझ में आ रही थी . उसने अब सब कुछ जान लिया था . अब वह ज़मीन की  प्रत्येक  वस्तु को बड़े सम्मान और प्यार की दृष्टि से निहार रही थी। 

कर्मठ बेटियों से अपेक्षा

अधरों पर मृदु स्मित जगाना 
वाणी में अमृत बरसाना                                
 नूतन ढब से नए यत्न से 
हर पल को  समृद्ध बनाना 
              सतत प्रेरणाएं ले लेकर 
              प्रतिक्षण अनुभव संचित करना
              आक्रोशों की  छाँव न पड़े 
               मन में प्यार संजोये रखना 
हाव भाव ऐसी मुद्रा हो 
आकर्षित जन जन को कर ले 
कर्म सधे हों और वाणी भी 
व्यथित थकित मानव मन हर ले 
               लगे सभी को प्रतिपल ऐसा 
               जब संपर्क कभी हो उनसे 
               जैसे इन्द्रधनुष निकला हो 
               नन्ही नन्ही बूंदों में से 
जैसे छंद मिलें निर्झर से 
गिरकर मधुर गिरा झरती हो 
मंद मधुर स्वर कंठ से निकलें 
ज्यों सरिता कल कल करती हो 
                पूरा कुल आबद्ध हो रहे 
                 अनुपम  कौशल कुशल दिखाना 
                सात सुरों में बंधे रहें सब 
                अद्वितीय सरगम सजवाना 
सहो मान अपमान सुख दु:ख 
मन विचलित न होने पाए 
करो अपेक्षा पूरी सबकी 
हरदम अपना हाथ बढाए 
                धरती जैसा धैर्य हो तुममे 
                हो समुद्र की सी गहराई 
                क्षीण कभी न हो साहस,  बल  
                कभी विफलता भी जो आई 
हो प्रयास,  रहें  प्रसन्न सब              
मन में भाव सरित उमड़ाना
नई युक्ति नव उपलब्धि से 
अपने घर को स्वर्ग बनाना  


Friday, April 22, 2011

रानीगंज में एक दिन

दशहरे की छुट्टियों में मैं माँ के साथ नानी के घर जाती थी . बात यह थी की नाना  नानी  छह  महीने तो रानीगंज में रहते थे , और बाकी छह महीने  झज्झर  में.  रानी गंज में नानाजी  कमीशन  एजेंट  थे . वहीँ पर घर में जमीन पर बड़ा सा गद्दा बिछा  रहता और साथ में लगा होता था मोटा गोल तकिया . और वहीँ पास में फ़ोन रखा रहता था . उसी पर बैठे बैठे वो  व्यापार  करते थे . और नानी व्यस्त रहती थी कभी आम का खट्टा मीठा अचार डालने में , तो कभी पापड़  बेलने बिलवाने में . वहां आस पास के सभी घरो में मिलजुल कर पापड़ बनाते थे .ऊपर छत पर चटाई डालकर  कभी कभी आमपापड़ भी बनाते थे .  खाली समय में नानी सूती साड़ियों पर सुंदर सुंदर बूटे भी काढती थी
नानी को पढने का भी बहुत शौक था . उन्हें तीन भाषाएं आती थी , हिंदी उर्दू और कामचलाऊ अंग्रेजी . ये बातें शायद 1964-1965 के आस पास की हैं . नानी से आस पास वाले उर्दू की चिट्ठी पढवाने भी आते थे . रोज़ शाम को सब औरतें छत  पर  बैठती और खूब बातचीत करती  और वे बहुत सारे भजन भी गाती थी . एक तो मुझे अब तक याद है  ,"कहो न सीता राम राम ,पिंजरे वाली मैना ; कहो न राधेश्याम  श्याम  पिंजरे वाली मैना ." उसके बाद सभी अपने अपने चूल्हे चौके  में लग जाती थी . वहां पड़ोस की सभी बहुएं मेरी मामी लगती थी . उनमे से एक मामी मुझे बहुत पसंद थी  .मैं कभी कभी उनके पास जाकर बैठती तो वे मुझे आमपापड़ खाने को देती . मझे  बहुत मज़ा आता था . 
               मेरे मामाजी आसनसोल में रहते थे . माँ की बाल विधवा बुआ भी उन्हीं के साथ रहती थी. एक बार मेरे  मामाजी मामीजी और माँ की बुआजी रानीगंज आए. उस दिन मामाजी का अचानक प्रोग्राम बना कि  रानीगंज में जो पेपर मिल है वह सबको दिखाना चाहिए . लेकिन वहां छोटे बच्चों को जाने की अनुमति नहीं होती   थी . 
 इसलिए मुझे और मुझसे छ:  साल छोटी बहन को माँ की बुआजी के संरक्षण में छोड़ दिया गया .  बाकी सभी  लोग  पेपर  मिल देखने  चले गए . मेरी छोटी बहन तो सो रही थी , लेकिन थोड़ी देर के बाद मुझे भूख लगी . माँ  की बुआजी ने मुझे दो आने दिए और कहा इनकी मूडी ले आओ . मुरमुरों को बंगाली लोग मूडी बोलते हैं . मैं पिछवाड़े  गई जहाँ कि बड़ी सी खिड़की थी  . मैंने वहां खड़ी  बूढी बंगाली स्त्री से दो आने कि मूडी मांगी . वह तुरंत अन्दर गई और ढेर साड़ी गरम गरम नमकीन मूडी लाई . मूडी इतनी अधिक थी कि मेरा और माँ की  बुआ का पेट भर गया 
             थोड़ी देर बाद छोटी बहन नींद से उठी और रोने लगी . बुआजी ने दूध गरम करके बोतल में डाला और मेरी बहन को पिलाने लगी . पर वह थी दूध पीने का नाम ही नहीं ले रही थी . वह तो लगातार रोए  जा रही थी . बुआ ने उसे बहुत प्यार किया . धीरे धीरे झूले भी झुलाए;  पर वह तो चुप ही नहीं हो रही थी . बुआ बहुत परेशान थी . इतने छोटे बच्चे  को कैसे  चुप कराया जाए?  मैं भी रुआंसी  हो रही थी . तभी नानाजी आते दिखाई दिए . पीछे पीछे सभी आ रहे थे . माँ ने फटाफट मेरी छोटी बहन को गोदी में उठाया ;बहुत प्यार किया ;दूध पिलाने की कोशिश की . पर उसका रोना थम ही नहीं रहा था .  फिर तो नानाजी उसे तुरंत डाक्टर के पास ले  गए . माँ भी साथ में गई.   जब  वह वापिस आई  तो उसका रोना बंद था और वह सो गयी थी . सबने राहत की सांस ली . 
                      रात को नानी ने दूध से आटा  गूंधा .उससे गोल मुलायम परांठे बनाए  और  उन्होंने आलू मंगोड़ी की सब्जी बनाई.  फिर आम के खट्टे मीठे अचार के साथ सबको खाना परोसा . बाद में मुझे मेरा   मनपसंद बंगाली रसगुल्ला भी खाने को मिला . सारा काम निपटाने के बाद नानी ने गर्म पानी किया ..सभी ने बारी बारी से  बड़ी परात  में पैर  रखकर  गरम पानी से धोये . और अपने अपने बिस्तर  पर बैठ गए . फिर नानी ने भजनों की किताब में से सबको भजन सुनाए. उसके बाद हम सभी सो गए .
                                        

Thursday, April 21, 2011

अश्रु !एक प्राकृतिक वरदान


क्या कभी सोचा किसी ने 
आंधी में ,वर्षा में ;                   
तेज भूकंप में                    
बर्फीली हवाओं में 
कड़कती धूप में 
क्यों खड़े हैं अडिग पर्वत 
क्यों नहीं ढ़हते ये सारे 
झेलते कितने अंगारे ?
क्यों खड़े चुपचाप से ये 
मौन रहकर झेलते है 
दु:ख सारे 
ग़म के मारे 
ये बेचारे 
ये बेचारे ?
नहीं प्यारे !
ये अचल हैं 
ये अविचल हैं 
नहीं अभिशप्त हैं 
ये सशक्त हैं 
क्यों, आखिर क्यों, सबल हैं?
झेलते इतना प्रबल हैं 
वेग सबका, 
तेज सबका, 
फिर भी सिर ताने खड़े हैं 
टूट सकते हैं ये सब तो, 
एक पल  में 
क्यों नहीं विस्फोट होता? 
क्यों नहीं ये बिखर जाते ?
क्या वजह है ?
दुसह दु:ख सहने  की क्षमता 
है बहुत भरपूर इनमे 
संकटों की बिजलियों में
रोज़ घिरकर 
आँख मीचे 
धैर्य ये धारे  खड़े हैं 
एक संबल है जो इनको 
नेक कुदरत ने दिया है 
है वो आंसू का खजाना 
असह दु :ख को 
वेदना को 
चाहते जब भी भुलाना
ढेर अश्रु ढरकते  है
फाड़ छाती निकलते है 
निर्झरों में  महानदी में 
कन्दरा की मूक धारा
जंगलों में बह चली जो 
दुसह वेदना से बोझिल 
पिघलता है जब मस्तक 
आंसुओं का वेग 
थामे नहीं थमता 
और बह चलती हैं 
नदियाँ अपार
करती गुहार 
नभ के पार 
और यही अश्रु पर्वतों के 
 आ मिलते हैं 
गंभीर रत्नाकर में 
जो समा लेता है 
सब संवेदनाएं 
क्योंकि वह स्वयं 
अश्रु का रूप है विशाल 
अश्रु न होते 
तो क्या पहाड़ टिक पाते 
कैसे अपनी व्यथा बहाते
कुंठित होकर 
टूट जाते 
फूट जाते 
बिखर जाते 
हो जाते अस्तित्व विहीन 
नारी भी 
टूटती नहीं है 
डटी रहती है 
हर समस्या से घिरी रहती है 
पर अविचल रहती है 
अडिग रहती है 
चुपचाप सहती है 
बस रो देती है 
हाँ ! रो देती है 
अश्रु उसके 
कायरता नहीं है 
प्रमाण हैं इस बात का 
कि वह सब सहेगी 
पर टूट कर बिखरेगी नहीं 
मौन रह कर 
सब व्यथा सह 
कार्य सब पूरे करेगी 
शायद  है ग़लत यह ,
"अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आँचल में है दूध और आँखों में पानी "
होना  चाहिए यह , 
"सबला जीवन वाह तुम्हारी सही कहानी! 
आँचल में है दूध !!और आँखों में पानी !!!

  


मेरी पहली कमाई

तब मैं बहुत छोटी थी . शायद पांचवी या छटी कक्षा में रही हूँगी . भाई मुझसे बहुत बड़े थे . वे कालेज  में पढ़ते थे . मुझे जेबखर्च पांच पैसा मिलता था , और भाई को एक चवन्नी ! मेरे लिए तो शायद चवन्नी खजाने की तरह होती .  इतने में तो मेरी ज़रूरत  की बहुत सी चीज़ें  आ सकती थी. वैसे तो पांच पैसे भी कम न थे .
                      एक दिन हुआ यूँ  कि भाई कि जेब से घर में ही उनकी चवन्नी कहीं गिर गई.  वो उसे ढूंढने  लगे . मैं भी  उन्हें देखने लगी . मैंने पूछा ,"भाई !क्या ढूंढ रहे हो ?" उन्होंने बताया कि उनकी चवन्नी आस पास ही गिर गई है . अब मिल नहीं रही . मैंने कहा ,"मैं ढूंढ़  दूं  क्या  तुम्हारी चवन्नी ?"  भाई बहुत खुश हुए  बोले ,"हाँ..मुझे तो बहुत पढना है . समय नहीं है . अगर तू मेरी चवन्नी ढूंढ देगी ,तो दुअन्नी तुझे भी मिलेगी ."  यह सुनकर तो मैं बहुत खुश हो गई . अरे वाह ! एक दुअन्नी मिलेगी . इसमें तो बहुत कुछ आ सकता है . बाहर हलवाई  से बहुत सारी दाल मोठ जिसे हम दाल भीजी भी कहते थे . या फिर दो समोसे .  मेरी  चोटी के लिए दो रिब्ब्नें , या  एक  दर्जन छोटी  छोटी   चूड़ियाँ  . मैंने कल्पना में ही कई सारी चीजें सोच ली थी .पर इसके लिए जरूरी था कि दुअन्नी तो हाथ में आए!
                              अब तो मैंने जोर शोर से चवन्नी की खोज शुरू कर दी . जहाँ भाई ढूंढ रहे थे , वहीँ होने की  सम्भावना  अधिक  थी . तो वहीं आसपास  तलाश  प्रारम्भ कर दी . मेज से नीचे झाँका . अलमारी के नीचे ,कुर्सी   
 के आस पास , खाट के  नीचे  सभी जगह देखा . यहाँ तक कि  खाट पर पड़ी हुई  चादरें  और दरी भी झाड़ी  . मगर चवन्नी  न मिलनी थी ,न मिली . तब मैंने सोचा क्यों न एक बार पूरे फ़र्श  पर झाडू  लगाकर देख लूं ; क्या पता इस प्रकार वह मिल जाए . पूरे फ़र्श पर बड़ी सावधानी के साथ मैंने झाडू लगाईं . लेकिन हाय री  किस्मत  !
चवन्नी का  कहीं अता  पता नहीं . मुझे  लगा  चवन्नी ही नहीं खोई  बल्कि मेरी दुअन्नी भी साथ गई . बड़ी देर तो मैं ताक़ झांक  करती रही . बाद में थक हारकर  अपने काम में लग गई  .
                            शाम को बाउजी  ऑफिस  से आए .  ऑफिस से आते समय वे अपने    साथ थैले में कोई न कोई  फल जरूर लाते थे . मैंने बाउजी के हाथ से थैला लिया . उसमें  रसीले चौसा आम थे . उस समय फ्रिज तो होते नहीं थे . तो आमों को ठंडा करने के लिए ठन्डे पानी में ड़ाल देते थे . माँ ने सुराही का पानी  बाल्टी में डाला और मैंने वे आम उसमे ड़ाल दिए ,जिससे कि वे ठन्डे हो जाएँ .  तभी बाउजी ने बैठने के लिए खाट को थोडा आगे की तरफ खिसकाया . मेरी नज़र खाट के पाये  के पास गई तो मैंने देखा वहां चवन्नी थी . जिस चवन्नी को मैं इतनी देर तक ढूंढती रही , वह वहां बड़े मज़े में पड़ी रही ! लपक कर मैंने चवन्नी  उठाई और सीधा ऊपर पहुंची जहाँ पर भाई पढ़ रहे थे . मैंने चवन्नी भाई को दी .
            भाई बहुत खुश हुए . उन्होंने ख़ुशी ख़ुशी दुअन्नी मेरे हाथ पर रख दी.
                             यह मेरे जीवन की सबसे पहली कमाई थी! 
.  
                                           

Wednesday, April 20, 2011

पश्चाताप

बिटिया बंगलौर से वापिस दिल्ली आ रही थी .अत: मुझे दिल्ली हवाई अड्डे पर उसे लेने जाना था .दोपहर के समय हवाई जहाज उतरना था ,इसलिए सोचा कि विद्यालय से अर्द्ध अवकाश लेकर हवाई अड्डे पहुंच जाऊंगी .विद्यालय का कार्य निपटाकर अर्द्धावकाश लिया और विद्यालय से बाहर आ गई .बाहर निकलकर स्कूटर की तलाश करने लगी .दिल्ली में स्कूटर आराम से मिल जाए ; भई बड़ा मुश्किल है .कई तो कहते हैं कि उस दिशा में ही नहीं जाना और कोई जाने को भी तैयार हो, तो भाड़ा ऊल -जलूल  मांगते है. 
                                      खैर , जैसे तैसे एक स्कूटर मिल ही गया .स्कूटर में कदम रखने ही वाली थी कि बिटिया का फ़ोन आ गया . उसने बताया कि फ्लाइट दो घंटे लेट है . मैंने सोचा, दो घंटे हवाई अड्डे पर बैठ कर क्या करुँगी .विद्यालय से तो अवकाश ले ही लिया था , सो वहां जा कर भी क्या करती ? मैंने सोचा क्या बस से भी हवाई अड्डे पहुंचा जा सकता है? कोई तो रूट होगा ही .चलो प्रयत्न कर देखते है . फिर समय तो काफी है . कोई जल्दी तो है नहीं .
                                     वहीँ से एक बस महिपाल पुर जाती थी . मेरा अंदाजा था कि रास्ते में कहीं पालम गाँव पड़ता है .वहीँ से पालम एअरपोर्ट के लिए बस ले लूंगी .बस  में चढ़कर मैं एक सीट पर बैठ गई .किसी यात्री से मैंने सलाह ली कि पालम हवाई  अड्डे पहुँचने के लिए कहाँ उतरना चाहिए .यात्री ने अपना पूरा दिमाग इस्तेमाल करते हुए मुझे ठीक सलाह देने की  कोशिश की  .परन्तु मैं संतुष्ट न थी .मैंने सोचा अभी कंडक्टर तो टिकट देने आएगा ही ,उसी से पूछ लूंगी .थोड़ी देर में एक सुंदर सा नौजवान बस में चढ़ा और  उसने टिकट  देने शुरू किये .
                               मेरी सीट पर आ कर वह थोडा ठिठका ,पर मुझे टिकट नहीं दिया . जब वह पीछे की ओर जाने लगा ,तो मैंने उसे बुलाया और कहा कि भई मुझे टिकट दे दो .इस पर वह कहने लगा कि नहीं मैडम आपको टिकट नहीं दूंगा .मैं हैरान थी .मैंने कहा" भई ऐसा क्यों कर रहे हो? सबको टिकट दे रहे हो , मुझे क्यों नहीं?" उसने फिर कहा ",नहीं मैडम ,आपको नहीं दूंगा ."  अब मेरा कुछ माथा ठनका .यह बार बार मुझे मैडम कह रहा है ,अर्थात जानता है कि मैं अध्यापिका हूँ .मैंने फिर कहा ,"क्यों भई टीचर्स को फ्री सवारी कराते हो ? "उसने कहा ,"ऐसा ही समझिए ."
                   अब तो मेरी उत्सुकता और भी बढ़ गई .मैंने उसे अपने पास बुलाया और पूछा,"सच सच बताओ बेटे !टिकट क्यों नहीं दे रहे?"  
          उसने अपनी नज़रें नीची रखी , और धीरे से बोला ,"आप मेरी टीचर  हैं न.  इसलिए आपको टिकट नहीं दूंगा ." 
मैं बहुत हैरान थी . अरे मैंने इसे कब पढाया ? मैंने उससे पूछ ही लिया ,"बेटे मैंने तुम्हे कब और कहाँ पढाया? "
तब उसने बताया कि उसका नाम उमेश था और मैंने उसे बक्करवाला नाम के गाँव में छ: साल पहले पढाया था
ओह ! छ:  साल पहले!.  धीरे धीरे उसका चेहरा और नाम मानस पटल पर आने लगा .
         
 "अरे उमेश ,तू इतना बड़ा हो गया है ! मुझे तो पहचान में ही नहीं आया . तू बस कंडक्टर बन गया है?"  
"हाँ मैडम . मैं यहीं नौकरी कर रहा हूँ ."
"और तूने पढाई कहाँ तक की?"
"बस मैडम यहीं मार खा गया .आठवीं में दो बार फेल हुआ .फिर पढाई छोड़ दी ."
"क्यों ?"
"आपको तो पता है मेरा पढाई में मन था ही नहीं .ऊल जलूल शरारतें करता रहता था . एक दिन प्रिसिपल साहब  ने स्कूल  से नाम काट दिया .मैं भी फिर स्कूल नहीं गया ." फिर बोला "अब पछताता हूँ .आपकी बहुत याद आती  है .आप कितने प्यार से मुझे स्टाफ रूम में बुलाकर समझाया करती थी .आपकी बात सुनता तो कितना पढ़ चुका होता ." उसकी आवाज़ भरभरा रही थी 
 मेरा मन भी परेशान हो गया .मुझे सब याद आ रहा था .उसकी माँ को भी कई बार बुलवाया था .पर वो किसी की सुनता ही न था .
मैंने  प्यार से समझाया ,"देखो बेटे ,जो बीत गया उसे भूल जाओ . तुम वाकई में अब भी पढना चाहते हो तो ,अब भी कुछ बिगड़ा नहीं है ."
उसने अब मेरी ओर देखा ,"सच मैडम ! वह कैसे?"
 मैंने उसे सुझाव दिया की वह ओपन स्कूल से आगे पढाई ज़ारी रखे .उसे पूरा पता भी बताया जिससे वह वहां जा कर फार्म भरे और फिर से पढाई  शुरू करे .
बड़ी कृतज्ञता से उसने मेरे पैर छुए ."अरे! मैं तो भूल ही गई बेटे.   मुझे पालम हवाई अड्डा जाना है .कहाँ से पास पड़ेगा ?'
बड़े उत्साह से वह बोला ,"मैडम आप अगले स्टैंड पर ही उतर जाइए .वहां से आपको ९२७ नंबर की बस मिलेगी .वह आपको एयरपोर्ट पर ही छोड़ेगी ."
मैंने कहा ,"बेटे टिकट नहीं देते न दो .ये सौ रूपये का नोट अपने पास रक्खो , मेरा आशीर्वाद समझकर ."
पर उसने रूपये नहीं लिए बोला ,"मैडम आपके दर्शन हो गए .यही आशीर्वाद है ."
अगले बस स्टैंड पर उसने मुझे उतार दिया .उसकी आँखे नम थी .शायद समय पर पढाई न करने का पश्चाताप था .
                 
                      

प्यार तो बस है छलावा !

छोटी जब थी भोली सी वह  
घर को पूरा संवार रखती 
माँ की  अनुगामी बन कर वह               
झाड़ पोंछ बुहार करती 
            घर के सारे काम करना 
             एक लड़की का फ़रज है 
             सुगढ़ ,शिक्षित गृहिणी बनना
             नारी  जाति की गरज है 
पढो तुम पर हो सुनिश्चित 
घर के सारे काम आएँ
चलो बेटी काम घर के 
मिल के पूरे हम कराएँ 
                घर के बेटे खूब पढ़ के 
                नाम को रोशन करेंगे 
                और जब ऊँचे चढ़ेंगे 
                मन में सौ दीये जलेंगे 
मुदित हो वह भी लगन से 
मां के संग ही व्यस्त रहती 
और इसके साथ ही वह 
पोथियों में मग्न रहती 
                  भाग्य ने धोखा दिया था ;  
                  या रहा अध्ययन सतह पर  
                  रह गयी वह धरा छूती 
                  और भाई आसमां पर 
देख कर उनको वो उड़ते 
 ह्रदय में पुलकित बड़ी  थी 
मेरे अपने उड़ रहे हैं
सोचती थी वह ठगी सी 
                     चाहती थी वह नहीं कि
                     पंख तो उसके भी आएँ 
                     पर यही थी इक तमन्ना 
                     अपने न उसको भुलाएँ 
एक युग के बाद उसने 
झांककर जब नभ को झाँका 
धुंधले थे सब अपने चेहरे 
कह रहे क्या हमसे नाता?
                      या तो उसका है भुलावा 
                      या कहो तकदीर उसकी 
                     पर यही वह सोचती है 
                     कुछ रही उसकी भी गलती  
चाहे यह नूतन जगत हो 
यही सब चलता है आया 
त्याग  जितना भी करो तुम  
प्यार तो बस है छलावा 




Monday, April 18, 2011

प्रसन्न चिड़िया

नन्हे चपल पंखों से                        
दूर तक उडान भर 
लाई वो तिनकों को 
पल पल चुन चुन कर 
         दूर खड़ा क्षितिज उसे 
          निहारता चला गया 
           तिनके पर तिनका बुन 
          घोंसला बनता रहा 
कोमल शुष्क श्वेत  पंखों से 
नर्म सा बिस्तर सिया  
और फिर उपयुक्त क्षण में 
गोल सा अंडा दिया  
            देखते ही देखते बस 
            रंग लाया श्रम बड़ा 
            एक नन्हा सा विहग अब 
             था बिछोने पर पड़ा 
गर्व करती थी स्वयं पर 
देखकर अपनी विजय को   
चोंच भरभर के वो खाना 
तृप्त करती निज शिशु को 
                समय आया पंख उपजे 
                 और वह शिशु उड़ चला 
                 देखकर अपनी सफलता 
                 युवा माँ का दिल खिला 
समय आया पुन: उसने 
एक फिर अंडा जना 
मानो सुन्दर सीप में इक 
बड़ा सा मोती बना 
                फिर से मेहनत रंग लाई
                  फिर हुआ वह शिशु बड़ा 
                  और पंखों को पसारे
                  दूर तक वह भी उड़ा
मुग्ध हो कर माँ ने अपने 
पंख भी फेला दिए
यों लगा ज्यों मन में उपवन 
खिल रहें हों नित नए 
                      साथ बच्चों के वो अपने 
                       विचरती नभ में रही 
                        हो गए फिर शिथिल जब पर 
                         बैठ कोटर में गई
अब वहीँ से निरख उनको 
वह अतीव प्रसन्न है 
देख बच्चों  की उडाने
हर्ष रस में निमग्न है 

                   

Thursday, April 14, 2011

निखरती हुई प्रतिभाओं


मौन रह कर वेदना सह 
कब नियति यह थी तुम्हारी ?
आज उठकर शंख फूंको 
हिल उठे यह भूमि सारी 
          रक्त के प्यासे अमानुष 
          बांह फैलाए खड़े हैं 
           हर कदम पर धूर्त नेता 
           राह को रोके अड़े हैं 
पीठ उन सबको दिखाकर 
भागना क्या उचित है यों
ठोस मेहनत पर हमारी 
पाँव वो रक्खे रहें क्यों ?
            पूर्वजों ने बक्शी तुमको 
            ढेर सी थाती अभागों 
            तुम पड़े हो नींद में क्यों ?
            मेरे वीरों शीघ्र जागो 
अपनी बेबस मातृभूमि को 
सरल नहीं है तुम्हे भुलाना
क्रंदन के टप टप आंसू  को 
क्या चाहोगे रोक न पाना ?
               साहस तुममे बुद्धि बड़ी है 
                निर्णय वेला आन पड़ी है 
                स्वार्थ छोड़ परमार्थ सुधारो 
               मातृभूमि को आस बड़ी है 
कितनी ही घायल आँखे अब 
लाचारी से तुम्हे निहारें 
मूक पड़ी संतप्त वेदना 
आज खड़ी है हाथ पसारे
                   मत सोचो कल किसने देखा
                   आज अभी अपने में जी लें 
                   कल जो होगा हो जाने दो
                    हम क्यों अपनी बुद्धि खरोंचें 
दानव माँ की गर्दन नोचें 
क्या तुम इसे देख पाओगे?
दूध रक्त से माँ ने सींचा 
उस शरीर को झुठलाओगे?
                        अभी इकट्ठे हो कर वीरों 
                         मातृभूमि को चलो संवारो 
                         अपनी बुद्धि शोर्य के बल से 
                          आर्त जनों को शीघ्र उबारो 
तुम्हे संगठित देख दनुज के 
होश हवास छूट जायेंगे 
तुम जब देश संभालोगे तब 
शत्रु अचम्भित रह जायेंगे 
                        

नववधू का स्वागत




सभी पत्ते मुस्कुराए हैं 
कलियों  ने घूँघट उठाए हैं 
तुम्हारे स्वागत में देखो तो
पक्षीवृन्द चहचहाये  हैं
  लता ने अंगड़ाई ली 
             पवन की थिरकती लहरियों पर 
             दूब ने नृत्य किया 
            किरणों  के गुदगुदाने पर 
              भँवरे गुनगुनाए  हैं 
नभ का आनन खिल उठा 
बादल भी दौड़ पड़े 
वृक्ष देखो स्वागत हेतु 
बाँहें फेलायें हैं 
          सतरंगी किरण एक 
           सूरज से यों बोली 
           दुल्हन के हर पथ पर 
           मैंने पग रख रख कर 
           रंग सब सजाए हैं 
खिलखिलाती धूप ने 
सबको सन्देश दिया 
देखो इस नगरी में 
चिरवसंत मकरंद ओढ़ 
आगन्तुक आए हैं   
           कवि का मन डोल उठा 
           चुपके से बोल उठा 
           युग बीते अब मन ने
           आशा दीप जलाए हैं 
सपने सँजोए जो
सब हो साकार उठे 
मन क्यों निराश हो अब 
स्वर्णिम दिन आए  हैं 


Tuesday, April 12, 2011

मेरी छोटी सी बिटिया




मधुमास के मुकुलित पुष्प की मकरंद सी 
आभामय चांदनी में छिटकते तारों सम उज्ज्वल सी 
स्वप्न में मधुमास संजोए हास परिहास सी 
संध्या की वेला में स्वर्णिम लालिमा लिए कान्तिमान सी 
क्या तुम वास्तविकता हो या सुहाना साकार छलावा?
अभी अभी अंक में लिटा क्या मैने तुम्हे सहलाया ?
यह विडम्बना है की वास्तविकता होकर भी स्वप्न हो 
दृश्य होकर भी हो अदृश्य ,क्यों छलने में मग्न हो ?
स्वप्न परी हो ज्यों कोमल कली में छिपी कहीं 
हाथों से छूट पुन: समीप आती हो क्यों नहीं ?
सूना मन सूना आँगन सूना नभ सब है सूना सूना 
पुलकित मुस्कान से भर दो घर का कोना कोना 
मन उपवन के पुष्प पुष्प तुमने ज्यों खिलाए
रखना तुम जीवन बगिया सर्वदा महकाए 

क्या मैं परास्त हूँ ?


क्या मैं परास्त हूँ ?

भीषण इस अग्नि में 
सोने सा तपता मन 
लपट लपट धधक उठे 
बन जाये ये कुंदन 
पिघल कर न बह जाए 
इस से तो त्रस्त  हूँ
क्या मैं परास्त हूँ?

आंधियां जो चलती हैं 
मन में घुमड़ती  हैं
भावों के वेग लिए 
उठती ही रहती हैं 
शांत इन्हें करने में
कितनी मैं व्यस्त हूँ 
क्या मैं परास्त हूँ?

जीवन के दर्पण में 
उज्ज्वल कुछ पल आए
चुपके से सहेजा यों 
फिसलकर न वो जाएँ 
काले प्रतिबिम्बों से 
फिर भी आक्रान्त  हूँ 
क्या मैं परास्त हूँ ?

दुविधा से बोझिल मन 
सुविधा का करे यत्न 
पल पल इस जीवन का 
कण कण बन जाए मन 
भारी  गठरी को कब
कर पाई  ध्वस्त हूँ ?
हाँ मैं परास्त  हूँ .
क्यों मैं परास्त हूँ ?

Sunday, April 10, 2011

अभी मन नहीं भरा


नन्ही सी खिलखिलाहट , अभी तुमसे मन नहीं भरा 
तुम्हारे नन्हे हाथों में नाचते खिलौने 
और फुदकती सी हंसी गाल पर  सलोने 
ठुमकते नन्हे पैरों की हलकी सी शरारत 
गोदी में आने की भोली सी चाहत 
कोमल से स्पर्श मात्र से 
हृदय हो गया हरा !
नन्ही सी खिलखिलाहट अभी तुसे मन नहीं भरा 
मेरे संग आओ यह कहकर लुभाते हो
क्योंकर अपने संग मुझको बुलाते हो ?
झूले पर  बिठा मुझे दौड़े चले जाते हो 
नन्हे से फूल ला फिर  तुम बहलाते हो 
भागो तुम आगे ,
फिर पकडूँ मैं तनिक ज़रा
नन्ही सी खिलखिलाहट अभी तुमसे मन नहीं भरा 



Saturday, April 9, 2011

कामकाजी महिला का एक दिन

वह  सवेरे 5 बजे उठती है. नित्यकर्म से निवृत्त होकर रसोईघर में जाती है. गैस के चूल्हे पर दूध चढ़ाकर आटा गूंधती है. जल्दी से रोटियां  या परांठे सबके लिए बनाती है. बच्चों का और पति का लंच पैक  करती है. इसके बाद बच्चों को जगाती है. उन्हें विद्यालय के लिए तैयार होने में उनकी मदद करती है. बच्चों को दूध और नाश्ता देने के बाद उन्हें पानी की बोतलें दे कर विद्यालय भेजती है. तत्पश्चात स्वयं नहाकर तैयार होती है. अपना लंच डिब्बे में डालकर थोडा चाय या दूध पीती है. पति को जगाकर वह अपने कार्यक्षेत्र जाने के लिए बस  स्टॉप तक दौड़ लगाती है. भीड़ से भरी हुई बस से जूझती हुई वह अपने कार्यक्षेत्र पहुँचती है. अगर उच्च अधिकारी तुनकमिजाज  हुए तो थोडा लेट होने पर उनकी प्रताड़ना सहती हुई अपने कार्य  में जुट जाती है. कार्यक्षेत्र में कार्य होने के बाद थकी हारी घर पहुँचती है. तुरंत रसोईघर में जाकर बच्चों के लिए लंच बनाने  में जुट जाती है, जो कि विद्यालय से वापिस आ रहे होते हैं. बच्चों की विद्यालय की वर्दी बदलवाकर  उन्हें लंच परोसती है. उनकी सारी दिनभर की घटनाएं शिकायतें व परेशानियां सुनती है, समझती है और समाधान भी करती है. तत्पश्चात स्वयं खाना खाकर कुछ पल आराम करती है  बच्चों के पास बैठकर उन्हें गृह कार्य में मदद करती है साथ साथ में खुद भी थोडा अखबार पढ़ लेती है. बच्चों को खेलने के लिए भेजकर वह कपडे धोती है. बाज़ार जा कर घर का कुछ जरूरी सामान लाती है. पति के घर आने का समय हो जाता है  इसलिए चाय बनाती है कभी कभी चाय के साथ पकोड़े  भी बनाती है अब. शाम के खाने की तैय्यारियाँ शुरू हो जाती हैं; सब्जी छीलना,काटना और पकाना. रोटी बनाती हुई वह सबको खाना परोसती है बाद में स्वयं खाना खाकर वह रसोईघर समेटती है. और अगले  दिन की भी कुछ तैयारी करके रखती है. तब तक रात के दस तो बज ही जाते हैं. वह थक हारकर बिस्तर पर सो जाती है, ताकि अगले दिन फिर नए सिरे से इसी दिनचर्या की पुनरावृति कर सके. खुदा न खास्ता अगर मेहमान न आयें, तो शायद अगला दिन भी ऐसे ही बीतेगा.  और पति महोदय! अजी शुक्र कीजिए; कम से कम वे कार्यक्षेत्र पर जाने की स्वीकृति तो दे रहे हैं!

Friday, April 8, 2011

भारतीय नारी

Women strolling past the heritage Panaji Inn, Panjim. Goa, India
समाज में भारतीय नारी आज भी हीनता की दृष्टि से देखी जाती है .यह बात  उत्तरी भारत में विशेष रूप से पाई  जाती है .पुरुष प्रत्येक  क्षेत्र में अपने को अधिक महत्वपूर्ण  समझते हैं .नारी के अधिक प्रतिभावान  होने पर  भी उसे कम सम्मान मिल पाता है . किसी भी महत्व पूर्ण  विषय  में उसकी सलाह को नकार दिया जाता  है .या तो किसी बहुत अधिक महत्वपूर्ण  ओहदे पर वह नियुक्त  हो तब तो ठीक है;  अन्यथा घर में, या कार्यक्षेत्र  में, उसकी बात  को कोई विशेष  महत्व नहीं दिया जाता . 
                                     यह कितना हास्यास्पद  है कि जहाँ हमारे पूर्वजों ने कहा  कि" यत्र  नार्यास्तु पूज्यन्ते   रमन्ते तत्र  देवता." वहीँ  हमारा आधुनिक समाज कदम कदम  पर नारी को नीचा ही दिखाता रहता है .नारी विभिन्न  कठिनाइयों से  जूझती  हुई  आगे बढ़ने का सतत  प्रयास करती रहती है , फिर भी पुरुष उसे विशेष  सम्मान देना नहीं चाहता. एक बार;  सिर्फ एक बार पुरुष कल्पना करके देखे कि जन्म के बाद से ही किसी लडकी को  कदम कदम पर कितनी अधिक  परेशानियां   झेलते  हुए जीवन यात्रा  आगे बढानी होती है. हर क्षेत्र  में  पुरुष के समान  स्थान  पर पहुँचने  के लिए भी उसे पुरुष से कहीं अधिक मेहनत करनी पड़ती है .    
                               अब तो केवल नई पीढ़ी  से ही यह आशा की जा सकती है कि वे इस बात को संजीदगी से लें  कि उनकी सहयोगी कार्यकर्ता या सहपाठी जो बिलकुल उसके जैसे स्तर पर है ,उनसे वास्तव में कहीं अधिक  श्रेष्ठ है  क्योंकि उसने  वहां पहुँचने के लिए अपेक्षा कृत  अधिक परिश्रम  किया है .अगर नई पीढ़ी  के लड़के इस बात को भली भांति समझेंगे  तो  वे जरूर नारी को सम्मान की  दृष्टि  से देखना प्रारंभ  करेंगे.  .मुझे भविष्य  के युवा वर्ग से यही उम्मीद  है