"हाँ मैम. मेरी नियुक्ति राजकीय विद्यालय में अध्यापिका के पद पर हो गई है "
"भई वाह ! अपने पढाए हुए बच्चे जब ऐसे समाचार सुनते हैं ; तो मज़ा ही आ जाता है "
"मैम ! आपका ही आशीर्वाद है ." मैंने बहुत विनम्रता से कहा . वे मुझे अपने साथ स्टाफ रूम में ले गई और सबको यह खबर सुनाई. सभी ने मुझे बहुत शाबाशी दी . तभी अंग्रेजी कि प्राध्यापिका को कुछ याद आया . वे बोली " अगर इस इतवार को तुम्हे कुछ काम न हो तो कालेज आ जाओ ."
मैंने कहा ,"अवश्य मैम !क्या काम है?"
वे बोली ,"कम्पार्टमेंट बच्चों की परीक्षा में निरीक्षण का काम करना है . तीन घंटे की परीक्षा है . दस रूपये निरीक्षण भत्ते के रूप में मिलेगा . अगर पक्के तौर पर बताओ तो तुम्हारी ड्यूटी लगा दूं ?"
एक तो उनके द्वारा दिए गए कार्य को मना नहीं कर सकती थी . दूसरी बात थी कि कालेज की परीक्षा में निरीक्षण का कार्य करना आकर्षक प्रतीत हो रहा था .मैंने तुरंत कहा ,"हाँ मैम ! मैं ज़रूर आ जाऊँगी.'
निश्चित रविवार को परीक्षा हाल में मेरे साथ एक और भी निरीक्षिका नियुक्त थी . हमने सभी परीक्षार्थियों को उत्तर पुस्तिकाएं दी . फिर घंटी बजने पर प्रश्न पत्र बांटे . इसके बाद सबके हस्ताक्षर एक निश्चित फार्म पर लेने थे . एक छात्र से हस्ताक्षर करते समय मुझे लगा कि वह मेरे सामने सकुचा सी रही थी . मैंने उसे बड़े गौर से देखा . "अरे!" मैंने मन में सोचा ,"यह तो नीलम है . यह मेरे साथ आठवीं कक्षा में पढ़ती थी . क्या ये इतनी बार फेल हो गयी ,जो कि अब बी. ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा दे रही है ."
नीलम झेंपी हुई सी हस्ताक्षर कर रही थी . मुझे समझ में नहीं आया कि उसे पहचान की स्वीकृति भरी मुस्कान दूं , या यह दिखाऊँ कि उसे पहचानती ही नहीं . उससे पहचान दिखाती तो वह मुझसे मदद की आशा अवश्य करती . यह सब मेरे लिए असमंजस का विषय हो जाता . मैं पूरे तीन घंटे इसी उहापोह में रही . परीक्षा समाप्ति की घंटी बजी . सभी से उत्तर पुस्तिकाएं इकट्ठी की गई. उससे उत्तर पुस्तिका वापिस लेते हुए मैं उससे नज़रें न मिला पाई. मुझे अपराध बोध हो रहा था . मैं उसकी मदद कर सकती थी .शायद वह पास हो जाती . लेकिन मैंने तो उसे इतना भी नहीं जताया कि मैं उसे पहचानती भी हूँ .
वह चुपचाप परीक्षा भवन से बाहर चली गई . मैं कनखियों से उसे जाते हुए देखती रही . आज भी वह अपराध बोध मुझे कभी कभी कुरेदता है . फिर यह भी सोचती हूँ कि शायद उसकी मदद करना भी तो एक गलत काम होता. फिर भी पता नहीं क्यों ; आज भी मैं स्वयं को अपराधी ही मानती हूँ .
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