Tuesday, July 5, 2011

सत्य होगा स्वप्न भी !

मैंने कब चाहा देखूँ सपना ?       
खुरदरी सतह पर, 
घिसते घिसते, 
पांव जब बने पत्थर .
संवेदना से रिक्त हुई, 
एक एक सिसकती कोशिका, 
तब शून्य चेतना लिए, 
बोझिल सा मस्तिष्क ,
यूं ही लुढ़क गया ,
पथरीले वीराने में .
आँख की अश्रुहीन पलकें, 
परस्पर  बनी संबल . 
और उस एक पल ;
जन्म हुआ अनायास ,
भोले से स्वप्न का.   
भविष्य के महलों में, 
सुंदर सी सेज सजा। 
मन गुदगुदाता सा, 
कोमल स्पर्श की, 
षडरस व्यंजनों की, 
मादक सुगंध की,
स्वर्णिम अनुभूति दे,
पल भर हंसा गया।
ओ मेरे भोले सपने, 
मैंने चाहा नहीं तुझे देखना।
तू स्वयं चला आया।
पर उपालंभ न दूँगी ,
कि तूने मुझे छला। 
मैं तो आभारी हूँ।
तिमिर के इस बीहड़ में ,
प्रकाश की किरण का, 
आभास तो हो पाया. 
कौन जाने कब, किस पल;
ये धुंधला आभास,
भर दे प्रकाश,
मेरी सुप्त चेतना में।
थक कर टूट चुकी थी जो, 
गहन वेदना में।
चेतना जागृत कर ,
प्रेरणा प्रदान कर ,
ओ नन्हे स्वप्न!
तूने मुझे जगा दिया।
नींद से उठा दिया।
मैंने कब चाहा देखूँ सपना ?
पर सच  को पाने का, 
चेतना जगाने का, 
प्रेरणा पाने का,
आधार तो है कल्पना।
अब तो चाहती हूँ मैं, 
देखना; एक और सपना!  
Schlaf

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