मैंने कब चाहा देखूँ सपना ?
खुरदरी सतह पर,
घिसते घिसते,
पांव जब बने पत्थर .
संवेदना से रिक्त हुई,
एक एक सिसकती कोशिका,
तब शून्य चेतना लिए,
बोझिल सा मस्तिष्क ,
यूं ही लुढ़क गया ,
पथरीले वीराने में .
आँख की अश्रुहीन पलकें,
परस्पर बनी संबल .
और उस एक पल ;
जन्म हुआ अनायास ,
भोले से स्वप्न का.
भविष्य के महलों में,
सुंदर सी सेज सजा,
मन गुदगुदाता सा,
कोमल स्पर्श की,
षडरस व्यंजनों की,
मादक सुगंध की ,
स्वर्णिम अनुभूति दे,
पल भर हंसा गया .
ओ मेरे भोले सपने,
मैंने चाहा नहीं तुझे देखना .
तू स्वयं चला आया .
पर उपालंभ न दूँगी ,
कि तूने मुझे छला.
मैं तो आभारी हूँ;
तिमिर के इस बीहड़ में ,
प्रकाश की किरण का,
आभास तो हो पाया.
कौन जाने कब किस पल ,
ये धुंधला आभास ,
भर दे प्रकाश ,
मेरी सुप्त चेतना में .
थक कर टूट चुकी थी जो,
गहन वेदना में.
चेतना जागृत कर ,
प्रेरणा प्रदान कर ,
ओ नन्हे स्वप्न!
तूने मुझे जगा दिया.
नींद से उठा दिया.
मैंने कब चाहा देखूँ सपना ?
पर सच को पाने का
चेतना जगाने का
प्रेरणा पाने का
आधार तो है कल्पना.
अब तो चाहती हूँ मैं
देखना; एक और सपना !
No comments:
Post a Comment