मैं नरेले के विद्यालय में पढ़ती थी . परन्तु दोनों भाई पढने के लिए दिल्ली में ही आते थे . तब शायद वे नवीं और दसवीं कक्षा में होंगे . बड़े सवेरे माँ उठकर नाश्ता और लंच बनाती. कोई गैस के चूल्हे की सुविधा तो थी नहीं . सर्दियों की कड़कती ठण्ड में माँ अंगीठी जलाती होंगी . उसमें भी वक्त लगता होगा . फिर दूध नाश्ता तैयार करना होता था . और फिर बाउजी दोनों भाइयों को भोर होने से बहुत पहले रेलवे स्टेशन जाकर ट्रेन में चढ़ाकर वापिस आते . ट्रेन में बहुत धक्का -मुक्की होती थी ; ऐसा बाउजी बताते थे . कितना कठिन होता होगा ट्रेन से दिल्ली जाना दोनों भाइयों के लिए ! और उसके बाद दिल्ली स्टेशन से अपने विद्यालय तक सात बजे तक पहुँचना भी कोई आसान न होता होगा .
भाइयों को स्टेशन पर छोड़ने के बाद बाउजी अपने जाने की तैयारी करते . माँ मुझे तैयार करके स्कूल भेजती . बाउजी भी ट्रेन से दिल्ली ही आते थे . दिल्ली से वापिस नरेले आकर कितना थक जाते होंगे भाई ! और फिर पूरा पढाई का जोर होता था . जो बच्चे कक्षा में हमेशा प्रथम श्रेणी में ही सफलता पाते हैं ; उनसे अभिभावक व शिक्षक दोनों ही भरपूर आशा और अपेक्षाएँ रखते हैं . एक बार तो बड़े भाई इतना थक गए कि दिल्ली से वापिस आते समय ट्रेन में उनकी आँख लग गई . जब आँख खुली तो अपने को नरेले से दूर किसी स्टेशन पर पाया . वहां काफी देर बैठने के बाद वापसी की ट्रेन मिली . उस समय तो फोन की सुविधा भी बहुत ही कम थी . तो जब तक भाई वापिस नहीं लौटे , तब तक माँ और बाउजी कितने चिंतित हुए होंगे, यह समझा जा सकता है
मैं तो विद्यालय से वापिस आकर खाना खाती और अपनी चाची की बेटियों के साथ खूब खेलती . घर घर खेलने के लिए छोटे बर्तनों में कच्चे प्याज के बारीक टुकड़े काटकर रख देते . फिर सब्जी पकाने की एक्टिंग करते और सबको दो दो या तीन छोटे प्याज़ के टुकड़े मिल जाते . सब इसी में ही खुश हो जाते थे . उस समय छोटे बच्चे खेल खेल में जो गाने गाते थे ; वे या तो पुस्तकों की कविताएँ होती थी , या फिर देशभक्ति के गीत . मुझे याद है एक गाना हम बच्चे अक्सर गाते रहते थे ,"छोटे छोटे घूँघरू , बजाने वाला कौन ? धरती माता सो गई जगाने वाला कौन ?" कभी कभी जब महिला मंडल भी इकट्ठा बैठता , तो या तो वे भजन गाती थी ; या भी देशभक्ति का लोक गीत . एक गीत जो मैंने कई बार सुना ,"भारत के वीर, बताऊँ सजनी ! मेरा पी लिया खून, बताऊँ सजनी !" इसका भाव मुझे थोडा बड़ा होने पर समझ में आया की यह बात एक पाकिस्तानी सैनिक अपनी पत्नी से कह रहा है. यह बात मन में आश्चर्य और प्रसन्नता का एक साथ संचार कर देती है कि उस वक्त हमारा समाज काफी ईश्वरभक्त और राष्ट्रभक्त था. आज के समाज में राष्ट्रभक्ति तो जाने कहाँ चली गई , परन्तु ईश्वरभक्ति जरूर विद्यमान है . यह अलग बात है कि मन से ईश्वरभक्ति न रहकर आडम्बर अधिक हो गया है
बरसात के दिनों में बहुत मज़े होते थे . छोटे छोटे मखमली लाल रंग के सुन्दर से मक्खी जितने कीट अचानक ही दिखने शुरू हो जाते थे . बरसात में मशहूर तीज का त्यौहार भी आता है . इसलिए इन कीटों को तीज का नाम दिया गया . हम सब सोचते थे कि बरसात में तीज बरसती हैं . हम उनसे खेलते थे . तीज से दस पन्द्रह दिन पहले से ही घरों में झूले डल जाते थे. सब लडकियां खूब झूला झूलती . साथ साथ सावन के गीत भी गाती थी . एक गीत था ,"काले पानी में लम्बी खजूर ; बिजली चम- चम करे " इस गीत के बोल का क्या अर्थ है ; मुझे आज तक समझ नहीं आया . हो सकता है कि यहाँ रूपक अलंकार बाँधा गया हो . खैर सावन की ठंडी सुहावनी हवा में झूले पर जो आनंद आता था, वह कहते नहीं बनता
.और तीज वाले दिन की तो बात ही क्या थी ! सबके हाथों में सुन्दर मेंहदी होती थी . बाज़ार में घेवर और फेनी नाम की विशेष मिठाई इन्ही दिनों मिलती थी .घरों में मीठे गुलगुले और विभिन्न पकवान बनते थे. सभी पेड़ों पर झूले डल जाते थे . और सुन्दर रंग बिरंगी पोशाकों में सजी हुई स्त्रियाँ नई चूड़ियाँ पहनकर झूला झूलती थी . झूलते झूलते मधुर कंठ से वे सुन्दर सुन्दर गीत भी गाती थी . हम बच्चों को भी पेड़ के झूलों पर बैठने का अवसर मिलता पेड़ के ऊपर डला झूला ज्यादा लचकदार होता है . इसलिए ज्यादा लुत्फ़ देता है . नरेले में तो तीज के त्यौहार के बाद भी हम बच्चे हर रोज़ स्कूल से वापिस आने के बाद ज़रूर झूलते थे .
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