Saturday, July 30, 2011

नरेले के वो दिन(6)





 माँ ने नानी के घर भी चक्की पर घर में गेहूँ पीसकर आटा इस्तेमाल किया था और दादी के यहाँ भी वे चक्की चलाती ही रही थी . उन्हें नरेले में भी लगा कि घर में पिसा आटा ही खाना चाहिए . इसीलिए बाउजी के साथ जाकर वे खादी ग्रामोद्योग से हाथ की चक्की ले आईं . मुझे अब तक याद है कि चक्की सत्रह रूपये की थी . माँ और बाउजी कह रहे थे कि ज्यादा महंगी नहीं है . माँ को वह गाँव की चक्की से अधिक  पसंद आई थी . तो रोज़ सवेरे माँ उस पर गेहूँ पीसती थी . घर का पिसा आटा थोडा मोटा होता है . रोटी बनाने के आधे घंटे पहले गूंधकर रख देना होता है. परन्तु रोटी बहुत स्वादिष्ट बनती हैं . माँ हमेशा साथ में चने का आटा भी पीसती थी . हमारे घर हमेशा मिस्सी रोटी ही बनती थी. साल में अगर दो क्विटल गेहूँ आए तो कम से कम बीस किलो चने भी आते थे . 
                      दिल्ली के मकान में आने के बाद भी माँ कुछ वर्षों तक हाथ की चक्की का पिसा आटा ही खिलाती रही . चनों को चक्की पर दलकर दाल बना लेती थी . गेहूँ  को मोटा पीसकर दलिया बना लेती थी . पहले तो बाज़ार में नमक की भी डलियाँ मिलती थी . तो माँ नमक भी चक्की से ही पीसकर रख देती थी . तरी वाली सब्जी में नमक की डलियाँ डालते और सूखी सब्जी में पिसा हुआ नमक . जब कोई व्रत का त्यौहार होता तो माँ कुट्टू भी चक्की से पीसती और फिर उसका आटा इस्तेमाल करती . मुझे याद है झज्झर में माँ और नानी मिलकर चक्की पीसती और साथ में भजन भी गाती रहती थी . पर यहाँ तो वे अकेली ही पीसती थी . कभी कभार मैं भी माँ के साथ लग जाती . कभी कभी तो मैंने स्वयं चक्की चलाने का प्रयत्न किया . बड़ा ही दुस्तर कार्य है . मैं तो चंद मिनटों में ही थक जाती थी . 
                    सावन के दिनों में नरेले में बाहर बरामदे में एक खाट पर चादर बिछाकर माँ जवे(vermicelli) तोडती थी . मैदा को बहुत सख्त गूंध कर  गीले कपडे से ढक देती थी . फिर थोड़ी मैदा की गोली को दोनों हथेलियों के बीच दबाते हुए  लम्बी सी लड़ी बनती और फिर उस लड़ी को एक हथेली में पकड़कर दूसरे हाथ की बीच वाली अंगुली और अंगूठे की मदद से जवे तोडती जाती . माँ के जवे बहुत बढ़िया टूटते थे . सबकी एकसी मोटाई और एकसी लम्बाई होती थी . मैंने तो कई बार प्रयत्न किया . परन्तु मेरे जवे कोई मोटे कोई छोटे और विकृत ही बनते हैं . मेरी तो अंगुली और अंगूठा चिपक जाते हैं जवे बनाने में . परन्तु माँ तो बिना अंगुलियाँ चिपकाए चुस्ती से जवे बनाती थीं   
                        शाम तक जवे सूख जाते थे .तो उन्हें इकट्ठा करके रख लेते थे . उन्हें कढाई में सूखा भूनकर संग्रहित कर लेते थे . रक्षाबंधन की पूर्वसंध्या पर मुख्य द्वारों पर परमात्मा के प्रतीक चिन्ह बनाते ; जैसे राम -राम , ओउम या स्वास्तिक का चिन्ह . रक्षाबंधन की सुबह सबसे  पहले प्रभु के प्रतीक चिह्नों पर तिलक करके उनको नए बने हुए जवों का भोग लगाया जाता था . उसके बाद भगवान के प्रतीक चिन्हों पर, प्रथम राखी जो कि मौली की होती थी ; चिपका दी जाती थी . उसके बाद रक्षाबंधन का उत्सव मनाते और जवों की खीर खाते . इस दिन की मुख्य मिठाइयाँ  घेवर और फैनी ही होती थी .


1 comment:

  1. दादी का जवे तोड़ना मुझे याद आता है, लेकिन मैदा की बजाए मुझे गेहूँ के आटे के जवे अधिक पसंद थे। कई दशकों के बाद मैने पिछली राखी में मम्मी से जवे तोड़ने कहा और राखी में जवे खाने का आनंद लिया। अब की पीढी भूल चुकी है इन्हें। आपने काफ़ी कुछ याद दिला दिया…… आभार

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