पन्द्रह अगस्त के दिन विद्यालय में होने वाले समारोह के लिए जोर शोर से तैयारियां हो रही थी . ग्यारहवीं कक्षा की छात्राएं " कौमी तिरंगे झंडे , ऊंचे रहो जहाँ में . हो तेरी सर बुलंदी ,ज्यों चाँद आसमाँ में ." नामक देशभक्ति गीत की तैयारी कर रही थी . मुझे मन था की में भी इसमें हिस्सा लूं . मैं तृतीय कक्षा में प्रथम आई थी . कक्षाध्यापिका मुझे बहुत प्यार करती थी . मैंने उनसे यह इच्छा ज़ाहिर की . उन्होंने सुझाव दिया की "हंस किसका" नमक नाटक का मंचन करें तो समारोह में हिस्सा लिया जा सकता है . मैं उसमें सिद्धार्थ बनी और एक और लड़की देवदत्त.
अध्यापिका ने खूब अभ्यास कराया . माँ ने मेरे लिए एक नई पोशाक सिली ; जिससे की मैं सिद्धार्थ नज़र आऊँ . परन्तु निश्चित दिन से एक दिन पहले ही संयोजक ने हमारी अध्यापिका को बताया की कार्यक्रम बहुत अधिक हो गए हैं . अत: हमारा कार्क्रम रद्द करना पड़ेगा . उस दिन बहुत मायूसी हुई . यद्यपि अध्यापिका ने पूरा विश्वास दिलाया कि इसे फिर कभी प्रस्तुत करेंगे ; फिर भी उस दिन मैं उदास ही रही . बाद में तो सब भूल गई थी .
मेरी कक्षा में पंजाबी लड़कियां तो थी ही ; कुमाऊँ की भी पांच या छ: लड़कियां थी . किसी समारोह में उन्होंने इस गाने पर नृत्य किया ," बेडू पाको बारो मासा ; नारेन काफल पाके चैता मेरी छैला ". पता नहीं क्यों ; यह गाना मुझे तभी याद हो गया और अच्छा भी बहुत लगता है . कुछ लोग कहते है कि मैं भी कुमाऊनी ही लगती हूँ . तब मैं सोचती हूँ की क्या पता कुछ पुनर्जन्म का चक्कर हो . बंगलोर में मुझे एक कुमाऊँ महिला मिली जो की अपनी डाक्टर बहू की परीक्षा हेतु वहां आई हुई थी . तब मैंने उनसे यह पूरा गीत लिखवाया . उस समय उनके मुख से भी ये बोल मुझे बहुत अच्छे लगे .
हम सभी बच्चों का एक कालांश तख्ती लिखने के लिए होता था . हम सभी सुन्दर सुन्दर लेख लिखते थे . घर आकर भीगी हुई मुल्तानी मिटटी से तख्ती को अच्छी तरह पोतते थे . फिर उसे हाथ में पकड़कर हवा में हिलाते थे . तख्ती हिलाते हुए एक गाना भी गाते थे ;" सूख सूख पट्टी " जब तख्ती सूख जाती तो पेंसिल से उस पर एक तरफ खड़ी लाइनें खींचते और दूसरी तरफ पड़ी लाइनें . खड़ी लाइनों में पहाड़े लिखते थे और पड़ी लाइनों में सुलेख लिखते थे . यह रोज़ का काम होता था . एक टिन की छोटी दवात में "राज रोशनाई " की काली स्याही की पुडिया डालते . फिर उसमें थोडा सा पानी डालते . फिर उसमें कलम को दोनों हाथों से पकड़कर गोल गोल घुमाते और गाना गाते " कौआ कौआ ढोल बजा ; चार आने की स्याही ला . आधी तेरी आधी मेरी . तू नहीं ले तो सारी मेरी " गाना पूरा होने पर निरीक्षण करते की स्याही पूरी तरह से गाढ़ी हुई या नहीं . अगर स्याही फीकी हुई तो दोबारा यही प्रक्रिया दोहराई जाती थी . एक बार गाढ़ी स्याही हो जाती, तो लिखने का मज़ा ही आ जाता था
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