Thursday, May 26, 2011

मेरी नौका!


सुंदर सी नाव में, 
हाथ में पतवार लिए,
लहरों से अटखेली कर,
बढती ही जाती हूँ.
बढ़ना है आगे ही,
पल भर भी रुकना क्यों?
बाधा भी आएँगी,
उनसे भी झुकना क्यों?
एक एक मंद तरंग,
स्वागत जब करती है.
मन की तब बंद कली,
चुपके से खिलती हैं.
मंद मंद मुस्काते ,
रस्ते के  उभय तीर .
धीरे सहलाता है,
फैला जल पर समीर .
कर में पतवार पकड़,
चलती ही जाती हूँ.
आता तूफ़ान कभी,
तब मैं घबराती हूँ .
लगता है इक पल यों,
जैसे सब ख़त्म हुआ .
जीवन था दो दिन का,
बीता तो स्वप्न हुआ.
फिर लहरें शांत हुई,
ढाढस बंधाती हैं.
जीवन की नौका में,
नूतन गति लाती हैं.
"नौका मैं खेती हूँ,"
यह जब भी लगता है,
बदलती पवन दिशा ,
कहती सब  धोखा है .
हाथ मेरे चलते हैं ,
चप्पू पर हर क्षण भर,
नाव मेरी चलती है ,
इंगित दिग्दर्शक पर .
चलना है गौरव से,
तृप्ति के घूँट पिए 
मुश्किल को सहना है ,
मन में उत्साह लिए.
कर की पतवार मेरी,
चलती है मौन हुई .
बढती  है नाव मेरी,
रक्षक  विलुप्त कोई.
संबल ले आशा का ,
बस चलते जाना  है .
ठहरेगी नाव स्वयं ,
जहाँ उसे रुकना है.
यात्रा यह जब तक है ,
तब तक आनन्द रहे .
नौका रुकने पर तो ,
क्या होगा?कौन कहे?






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