Wednesday, May 18, 2011

कुछ और यत्न कर ले मानव !

कुछ और यत्न कर ले मानव 
माना यह पथ तो दुस्तर है 
कांटो में घिरा तेरा घर है 
टूटा है संबल आशा का 
तम चारों और निराशा का 
पर पाँव नहीं पीछे करना 
बाधा से पीछे मत हटना 
हो कितनी भी पीड़ा गहरी 
तुम चलते चलो सजग प्रहरी 
बादल से निकलेगा प्रकाश 
उज्ज्वल होगा पूरा आकाश 
घबराओ मत तुम विपदा से 
हर कदम बढे समरसता से 
शत्रु के अस्त्र अनोखे हैं 
हर कदम कदम पर धोखे हैं 
हैं चाल समझनी बड़ी कठिन 
उलझन बढती हर पल हर दिन 
यों चक्रव्यूह ने घेरा है 
नित कसता गहन अँधेरा है 
नव युक्ति तनिक अपनाओ मन
जिससे छँट जाए भीषण तम 
जो सब प्रतिभाएं साथ मिलें 
और लिए हाथ में हाथ चलें 
पलकों की निंद्रा अब तोड़ें 
हिम्मत और साहस अब जोड़ें 
हो दूर ; लगाओ तुम क्षमता, 
यह भूख  गरीबी  निर्धनता .
क्यों मूक सभी कुछ सहते हो ?
तुम कौन अछूते रहते हो ?
तुम कहाँ सफलता पाते हो ?
वह शिखर कहाँ छू पाते हो ? 
क्यों मन मन में ही घुटते हो ?
हुँकार क्यों नहीं भरते हो ? 
कुछ सोचो तनिक विचारों तुम 
क्यों मौन बने बैठे गुमसुम ?
क्यों संतुष्टि ने घेरा है ?
जब आगे दीप्त सवेरा है 
क्या क्षितिज नहीं छूना तुमको ?
भूतल पर ही चलना तुमको ?
कितने  अवसर हैं बढ़ने के 
उन्नति की सीढ़ी चढने के 
सब छीन लिए हैं जो छल से 
रिपु वैरी ने अपने बल से 
शत्रु को खींच भगाना है 
सच को समक्ष अब लाना है 
जो खून पी रहें है सबका 
शोषित है पूरी मानवता 
वह नर चमगादड़ इधर उधर
भय व्याप्त कर रहे जन जन पर 
उनको अब मार गिराना है 
बस यही तुम्हे समझाना है 
है कार्य नहीं ये सहज सरल 
पर यत्न यदि होगा अविरल
तो कंटक सब हट जायेंगे 
भीषण जलधर छंट जायेंगे
ह़ो काल कवलित इक इक दानव 
कुछ और यत्न कर ले मानव  




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