Saturday, September 17, 2011

मेरा हरसिंगार !


आश्विन के आते ही 
फूल उठता है हरसिंगार  
बगीचे के कोने में
चुपचाप करता तपस्या
एक दिन पा जाता ढेर से फूल 
मंद शीतलता में सराबोर 
अनूठी महक घुले .
स्वर्णिम शलाका पर ,
रजत पञ्च पत्र खिले .
प्रभात से पहले ही
सूरज के स्वागत में 
अंजुरी भर भर बिखेरता
भावों का भंडार
असीमित प्यार .
रात्रि के प्रथम प्रहर से ,
सुरभित करता रहता ,
पुलकित हवाएं .
छूती जो बार बार ,
अधखुली पलकों को ,
सोते से सपनों को .
योगी सा हरसिंगार ,
कितना वैभव लिए ,
मौन निरभिमानी सा
त्याग का प्रतिरूप 
लुटाता मूक संपदा .
असीम प्यार की 
सुरभित संसार की 
और बाँट सम्पूर्ण विभव 
फिर फिर पाता आह्लाद 
फिर बरसाता लाड दुलार ;
स्नेह अपार .
देवप्रिय हरसिंगार 
दैवी शक्ति का भण्डार 
करता हरि का श्रृंगार 
और मूक दर्शक सा ,
मेरे घर के बाहर ,
मंद मंद मुस्कुराता 
अद्वितीय हरसिंगार;
 उडेलता ढेरों पुष्प . 
एकत्र कर उनको  
मैं बांटती हूँ सबको 
और निरख मीठी मुस्कान ,
जन जन की ;
प्रेरणा पाती हूँ .
पुलकित हो जाती हूँ .
मेरे निराले ,अनुपम वृक्ष !
मैं तेरी ऋणी हूँ .
हरे कोमल तेरे पात ,
पीड़ा का अंत कर ,
शक्ति देते सबको.
तेरे अंग प्रत्यंग ने
नीरोग किया हमको 
तूने फैलाया असीम प्यार
घर  और  हृदय  के 
हर कोने को निखार ,
किया पावन ऊर्जा संचार . 
सौरभ और औषधि का
अपरिमित भण्डार;
अनन्त का अनुपम उपहार  
मेरा हारसिंगार !
  

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