Saturday, September 17, 2011

शेफालिका की महक !

फिर वही भीनी महक शेफालिका की 
अंजुरी भर ओढ़ खुशबू मल्लिका की 
फिर स्मृति पर शब्द उभरे मौन यूं ही 
चित्र सपनों ने सजाये पलक झपकी 
           कह गए कुछ पल वो बीते बात अपनी 
           भर गई मन चूनरी पुष्पों से सजनी 
            मिल गए सब अनकहे वर कब कहाँ से 
            बह चला  इक मूक झोंका हिली तरणी
फिर वही शीतल पवन आनन्द लेकर
उड़ चला हर पुष्प का मकरंद ढ़ोकर
द्वार मेरे बिछ गए नव कुसुम  सारे 
मुदित था हर कली का उच्छ्वास हंसकर 
              साथ मेरे चल उडी मन की उड़ानें 
             रंग में सजने लगे सपने सुहाने 
             पारिजात प्रसून की वह गंध पावन
             सौम्यता से फिर लगी, मन को लुभाने
दूब ने मखमल बुनी मरकत को जड़कर
पंखुड़ी उस पर गिरी हौले सहमकर
अरुण ने झटपट ढकी किरणों की जाली
मल्लिका स्वर्णिम हुई आनन्द पाकर
              मूंदकर पलकें जो अंतर्मन को ताका
              शांति की कर में पकड उज्ज्वल पताका
             इस तरह कुछ  ध्यान में तल्लीन था वो
             दीप्तिमय आनन खिले ज्यों मुस्कुराता
साधना ने आज सुंदर स्वप्न पाए
आस में न जाने कितने दिन बिताए
मल्लिका की पुष्प वर्षा ने जगाए
लुप्त यादों के सुगन्धित, मधुर साए               

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