झरने के नीचे .
नन्ही सी भेड़,
भोलेपन से सिर झुका,
पीती चुपचाप पानी .
और झरने पर खड़ा ,
धूर्त भेड़िया,
लाल आँखें दिखा ,
करता मनमानी
"तूने यह पानी पी ,
कर दिया अरे पगली ,
जूठा यह झरना है
सजा यहीं पाएगी
तूने अब मरना है .
घोर हुआ अपराध जब ,
ग्रास मेरा बनने को ,
होजा तैयार अब ."
विनती बहुतेरी की
रो रो कर वह बोली
"मैं तो हूँ नीचे और
ऊपर तुम बैठे हो
कैसे फिर कहते हो
मैंने तुम्हारा जल
जूठा है कर डाला ."
"देती है क्यों दलील
बलशाली सच्चा है
तर्क यही अच्छा है
खाऊँगा मैं तुझको
आज नहीं बक्शूंगा
चाहिए बहाना भर
आज तुझे भक्षण कर
होगी सम्पूर्ण तृप्ति
तुझको इस जीवन से
देता हूँ तुरत मुक्ति. "
यही कथा फिर फिर क्यों
पुनरावृत होती है ?
क्यों नहीं नूतन रचना
कहीं घटित होती है ?
काश ये भी हो सकता !
भेडिए के ऊपर कोई
शेर खड़ा हो सकता!
गरजता गगनभेदी स्वर ;
'अरे मूर्ख भेडिए !
मुक्त कर मासूम को
अन्याय से पर्दा हटा
या तो फिर तैयार हो जा
मैं तेरे पीछे डटा."
क्या युगों के बाद भी
यह कथा ,
बन कर व्यथा ,
निरीह मासूमों पर
वार करती रहेगी ;
और कोई भी वनराज ,
आक्षेप नहीं करेगा .
क्या सभी भेडिए,
अहर्निश,
भोली भेड़ों पर,
झूठे आरोप लगा ,
कुतर्कों से उन्हें हरा ,
अपने क्रूर जाल में ,
बुरी तरह उन्हें फंसा ,
ठहाके लगाते,
मजे लेकर ,
उनका भक्षण करते रहेंगे .
क्या सभी रक्षक ;
मौन और मूक रहकर,
बने रहेंगे ,
संवेदनशून्य दर्शक ?
यह कथा कब बदलेगी ;
आखिर कब ?
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