Sunday, June 12, 2011

गर्मी की छुट्टियाँ (1)

पन्द्रह मई का हम सभी बच्चों को बड़ी बेसब्री से इंतज़ार रहता था . विद्यालय से पूरे दो महीने के लिए हम सभी बच्चे मुक्ति पाजाते थे. पंद्रह मई से पहले ही हम सभी सहेलियां आपस में मिलकर कई योजनाओं को अंजाम देने की सोचते . ये दूसरी बात है की उनमें से आधी से ज्यादा अधूरी ही रह जाती थी . 
                             सवेरे सवेरे जल्दी बिस्तर से उठते और चारपाई पर बिछी दरी और चादर तह करके कमरे के अंदर रखकर आते . फिर बाहर छत पर बिछी चारपाई को दीवार के सहारे खड़ा करने के बाद सभी बच्चे गली में एक जगह पर इकट्ठे हो जाते . जो  बच्चा  नहीं आता , उसे जबरदस्ती जगाकर लाया जाता था . हमारे घर के बिलकुल पास में रोशनारा बाग़ था . इस बाग़ में औरंगजेब की बहन रोशनारा की कब्र थी . बाग़ बहुत बड़ा था और बहुत खूबसूरत भी . हम सभी बच्चे सवेरे सवेरे इसी बाग़ में जाया करते थे .
                                 ढेर सारे फलों और फूलों से लदे वृक्ष और उन पर चहचहाते पक्षिवृन्द ! क्या आनन्द आता था ठंडी ठंडी हवा में मुलायम घास पर हम खूब दौड़ लगाते. और तरह तरह के खेल खेलते . बाग में तरह तरह के झूले भी थे और बड़े बच्चों के लिए कसरत के लिए भी पूरा प्रबंध था . हम बाग में घूमते घूमते बड़ी झील के पास पहुँच जाते . झील के अन्दर खजूर के पेड़ों की परछाई मुझे बहुत सुन्दर लगती थी . कभी कभी किसी बच्चे को पेड़ के नीचे गिरा हुआ कच्चा आम या जामुन मिल जाता तो वह इतना प्रसन्न होता जैसे कोई ट्राफी हाथ लग गई हो! 
सूरज के गर्माने से पहले पहले ही हम वापिस घर की ओर चल पड़ते . मैं अक्सर अमलतास के पीले फूलों की टहनी अपने साथ ज़रुर लाती थी , क्योंकि अमलतास के फूल मेरा मन खूब लुभाते थे .
                             
 घर वापिस आकर हम लड़कियों को पहले तो घर आँगन की सफाई करनी होती थी . उसके बाद नहाना और  नाश्ता करना; तत्पश्चात मैं तो बैठ जाती थी एक घंटे स्कूल का होम वर्क करने के लिए . दोनों भाई कॉलेज चले जाते और बाउजी ऑफिस . तब माँ के साथ कपडे धुलवाकर मैं छत पर कपडे सुखाकर आती थी . फिर माँ अंगीठी पर रोटियां  बनाकर एक  बड़े कटोरदान में रख देती और रसेदार सब्जी एक बड़ी चीनी मिटटी से बनी हुई कुण्डी में . फिर माँ और मैं मिलकर सभी बर्तन साफ़ करते और रसोईघर भी .
                                   दोपहर को मै, माँ और प्रभा मिलकर खाना खाते . माँ कच्चे आम की मीठी चटनी बहुत स्वादिष्ट बनती थी . बड़ी सी कुण्डी में वह रखी होती और सप्ताह भर भी खराब नहीं होती थी .इसके बाद माँ सिलाई मशीन पर पर सलाई का काम करती या तो क्रोशिये से लेस वगेरह बनाती थी . मैंने माँ को कभी खाली बैठ सुस्ताते नहीं देखा . एक बार तो उन्हें दरी बनाने का शौक चढ़ा . तो भरी गर्मियों में छत पर तिरपाल तान लिया जिससे छाया रहे और तिरपाल की छाँव में दरी का ताना बुना . मुझे याद है माँ ने शायद वह दरी बीस दिन में बुनी . बहुत ही बढ़िया भारी सी दरी बनाई थी . उसे देखकर उन्हें  कितने आत्मसंतोष और गर्व की अनुभूति हुई होगी ; मैं अब समझ सकती हूँ 
                       माँ अपना कुछ काम करती तो मैं साथ बैठकर पढाई करती थी . माँ मुझे पढने में भी मदद करती थी . कभी कभी वो मुझसे मशीन से थोड़ी बहुत सिलाई भी करवाती जिससे मैं सीख जाऊं .इसके बाद मैं अपनी सहेलियों के घर खेलने चली जाती , या तो वे मेरे घर आ जाती थी . हम अक्सर गिट्टे खेलते थे . पांच छोटे छोटे गोल गोल पत्थर के टुकड़े लेकर ये खेल खेला जाता था , या कई बार लकड़ी के गिट्टे भी होते थे . इसके अलावा जमीन पर लकीरें बनाकर एक वर्गाकार में पच्चीस छोटे वर्ग बनाकर खेलते थे "अष्ट चंगा पौ ". इमली के दो बीजों को बीच से फोड़ने पर आधा हिस्सा सफ़ेद दिखता था और आधा भूरा . यही इमली के बीज के टुकड़े हमारी गोटियाँ बन जाते थे . चारों को एक साथ फेंकने पर यदि सब सफ़ेद हिस्से ऊपर दिखें तो आठ नंबर माने जाते थे और अगर चारों भूरे हिस्से नज़र आए तो चार नंबर होते थे . अन्यथा जितने सफ़ेद हिस्से ऊपर दिखें उतने ही नंबर माने जाते थे. सांप- सीढ़ी , कैरम और ताश भी हम खूब खेलते थे . ये सभी खेल घर के अन्दर खेले जा सकते थे ; इसीलिए दोपहर में तो हम सभी बच्चे यही सब खेल खेलते थे.  
         

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