गर्मियों की छुट्टियों में कच्चे आम का अचार लगभग सभी घरों में डाला जाता था. हमारे घर दस किलो आम का अचार डालने का मर्तबान था. बाउजी मंडी से दस किलो बढ़िया किस्म के आम लाते. सारे आमों को अच्छी तरह धोया जाता . फिर आमों को सूखे साफ कपडे से पोंछकर एक जगह रख दिया जाता . यह काम अक्सर रविवार को ही होता था . फिर हम सब घर के सदस्य एक एक चाकू हाथ में लेकर कच्चे आमों की फांकें काटते और गुठलियां एक तरफ रखते जाते . जब सभी आमों की फांके बन चुकती तो बाउजी उनमें नमक मिलते और मर्तबान में दबाकर भरकर रख देते . माँ कुछ गुठलियों की गिरी निकलती ;उनके टुकड़े करती ; और पुराने अचार के मसाले में डाल देती लगभग पन्द्रह दिन बाद गुठलियों की गिरी के टुकड़े भी बहुत स्वादिष्ट हो जाते थे .
हर साल बाउजी ही आम का अचार डालते थे . माँ कहती थी कि उनके हाथ से डला अचार सुरक्षित रहता है . अचार में डलने वाले सभी मसालों को चुगकर धूप में सुखाया जाता . अगले दिन आम की फाँकों को मर्तबान में से निकालकर सारा दिन धूप दिखाई जाती . वह धूप में सूखती फांकें मुझे बहुत लुभाती थी . मैं अनायास ही उनमें से एक दो फांक छत पर आते जाते खा ही लेती थी . उन खट्टी खट्टी फाँकों की कल्पना से ही मुंह में पानी आ जाता है . शाम को एक बहुत बड़ी पीतल की परांत में सारी फाँकों में पूरा मसाला और सरसों का तेल अच्छी तरह से मिलाकर बाउजी बड़े मर्तबान में दबाकर भर देते . उसके बाद मर्तबान में सरसों का तेल डालकर उसके मुंह को पूरी तरह बंद कर देते . जब तक यह नया अचार तैयार होता ; तब तक पुराना अचार ही इस्तेमाल होता रहता था . हमारे स्कूल के लंच में माँ आम का अचार जरूर रखती थी .
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माँ कच्चे आम की मीठी चटनी बहुत अच्छी बनाती थी . अक्सर उसमें गुड डालती थी और कलौंजी का छौंक लगाती थी . कभी कभी कच्चे आम का मीठा लच्छा भी बनता था . ऐसा मन करता था की उसे खाते ही जाओ . कच्चे आमों के गूदे की फांके कई बार माँ धूप में सुखा देती थी . उसे कूटने पर बढ़िया अमचूर बनता था . कच्चे आम के गूदे का हींग वाला अचार माँ बहुत स्वादिष्ट बनाती थी . परन्तु वह एक महीने तक ही इस्तेमाल कर लेना होता था . पहले सभी घरों में फ्रिज तो होते नहीं थे और बाहर गर्मी अधिक होने के कारण यह अचार जल्द ही खराब हो सकता था .
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