Friday, June 17, 2011

गर्मी की छुट्टियाँ (5)

     छुट्टियों में कभी कभी कोई मेहमान आते तो खूब मज़े होते . घर में फ्रिज तो होते नहीं थे . माँ चार आने देकर बाज़ार भेजती . मैं दो आने के नीम्बू लाती और दो आने की बर्फ .उस समय बाज़ार में बर्फ की बड़ी बड़ी सिल्ली लेकर उसे बड़े जूट के बोरे से ढक दिया जाता था . पटरी पर बैठे बर्फ बेचने वाले लोग, इस सिल्ली मैं से ; एक नोकदार पेचकस की मदद से, निश्चित मात्रा में बर्फ को काटकर,ग्राहक को बेचते थे.घर आकर नीम्बू और बर्फ मैं माँ को पकड़ा देती . माँ बड़े से भिगोने में चीनी घोलती , उसमें नीम्बू डालकर अच्छे से मिलाती और फिर बर्फ डालकर बन जाता नीम्बू पानी . हम इसे शिकंजी कहते थे . मेहमान के साथ साथ हम बच्चों को भी गिलास भर भर कर शिकंजी मिलती थी . 
                                    एक बार गाँव से मेरी बुआ हमारे घर छुट्टियों में रहने के लिए आई . वे अपने साथ बहुत सी चीजें लाई थी . परन्तु मुझे सबसे अधिक पसंद आई , एक छोटी सी डलिया .गेंहू की फसल पकने पर गेंहू निकलने के बाद जो लम्बी लम्बी सींखें(तीलियाँ) बच जाती हैं ; ग्रामीण लोग उससे छोटी छोटी टोकरियाँ और डलिया बना लेते हैं . मैंने वह डलिया लेकर कहा,"बुआ! इसमें मैं अपने खिलौने रखूंगी."  बुआ ने ख़ुशी ख़ुशी वह डलिया मुझे दे दी .
                                                  घर के चौंके बर्तन या घर की सफाई आदि के काम माँ बुआ को नहीं करने देती थी . माँ कहती थी, "आप अपने में घर खूब घर के काम निपटाती हो . यहाँ पर तो बस आप आराम करो .परन्तु बुआ भी माँ की तरह ही थी . वे भी खाली बैठे वक्त नहीं गुज़ार सकती थी . वे माँ से बोली ,"भाभी! मुझे कुछ काम चाहिए . मैं खाली नहीं बैठ सकती ." माँ को याद आया ; ऊपर एक पुराना लकड़ी का चरखा पड़ा था और एक संदूक में रजाई से उधेडी हुई रुई भी पड़ी थी . माँ ने बुआ को चरखा और रुई दे दी . जितने दिन बुआ हमारे साथ रही तब तक खाली समय में उन्होंने खूब सारा सूत काट लिया था . माँ ने भी अपनी एक साडी में सुन्दर सुन्दर बूटे काढ लिए थे . और मेरा भी काफी सारा गृह कार्य निपट चुका था .
                                                            जब बुआ अपने गाँव वापिस जाने लगी तो हम सभी को बहुत दु:ख हुआ . बुआ भी उदास थी . माँ ने सुन्दर साड़ी रूपये और फल देकर उन्हें विदा किया . मैंने माँ से पूछा ,"माँ ! बुआ को साड़ी और रूपये क्यों देते हैं ?" माँ ने समझाया," घर की बहनों और बेटियों को बहुत सम्मान देना चाहिए . वे सर्वदा हमारे परिवार की शुभचिंतक होती हैं .इसीलिए उन्हें आदरपूर्वक कुछ न कुछ उपहार अवश्य दिया जाता है . जिससे कि वे हमसे हमेशा प्रसन्न रहे."
                                       पहले घरों में पीतल के बर्तन होते थे. उनमें खाना बनाने के लिए यह आवश्यक था की उनमें पहले कलई कराइ जाए . गली में अक्सर फेरीवाले आवाज़ लगते थे ,"बर्तन कलई करा लो! भांडे कलई करा लो !" माँ को स्वयं बर्तनों पर कलई करनी आती थी . इसलिए वे फेरीवालों से कलई नहीं कराती थी . मुझे पैसे देकर भेजती और कलई और नौशादर मंगवाती . फिर तेज़ जलती हुई अंगीठी पर बर्तन को तेज़ गर्म करके उसके अन्दर थोड़ी सी कलई लगाती . उसके बाद एक बड़े से रूई के टुकड़े में नौशादर का महीन चूरा लगाकर वे पूरे बर्तन के अन्दर कलई की परत चढ़ा देती . फिर तपते हुए बर्तन को एकदम ठन्डे पानी में डुबा देती थी . एकदम छन्न की आवाज़ होती और पानी से बाहर निकलने पर चमकदार कलई वाला बर्तन तैयार होता था .
                                                                इस प्रकार माँ रसोईघर के सभी बर्तनों को कलईदार बनाकर चमका देती थी . शाम को बाउजी ऑफिस से घर आते तो मैं बाउजी  को बताती,"बाउजी! आज माँ ने सब बर्तनों पर कलई चढ़ा दी है . " तब बाउजी बहुत प्रसन्न होते थे . हो सकता है, ये सुनकर उनकी सारी थकान भी मिट जाती हो!

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