Thursday, June 23, 2011

कितनी आत्मीयता !





बस में चढ़ते ही टिकट के लिए दस रूपये का नोट बढ़ते हुए मैंने कहा ,"ज़रा अशोका पार्क तक की टिकट देना ." कंडक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा ,"ये बस अशोका पार्क नहीं जायेगी . पांच रूपये की टिकट मुझसे लो और अग्रसेन अस्पताल से पांच रुपये में दूसरी बस पकड़ लेना . वैसे भी आपके दस रूपये ही लगने थे ."
            कभी कभी इतना अच्छा व्यवहार पाकर मन बहुत प्रसन्न होता है . अगर हर बार ही इतने अच्छे लोग मिल जाएँ तो कहना ही क्या ! पांच महीने के बाद एक मदर डेयरी बूथ पर दूध लेने गई तो पाया कि बटुए में केवल पांच सौ के ही नोट हैं . "तीन टोकन देना भैया ." पांच सौ का नोट बढ़ाते हुए मैं बोली . "मेरे पास खुले पैसे नहीं हैं . आप छोटा नोट दीजिए."
 " मेरे पास केवल पांच सौ वाले ही नोट हैं ."
" तो आप को जितने टोकन चाहिए ले लीजिये ;पैसे बाद में आ जायेंगे. "
              कितना अच्छा लगा कि इतना विश्वास कर रहा है यह व्यक्ति ! साथ ही शालीनता से बात भी कर रहा है . अगर धोखेबाजी न हो समाज में , तो शायद सभी एक दूसरे पर विश्वास कर सकते है . तब कितना बढ़िया समाज हो सकता है हमारा !
           अशोका पार्क का पोस्टमास्टर वहाँ पहुँचने पर दराज़ से चैक निकलता हुआ कहता है , "हमारी पब्लिक डीलिंग तो एक बजे ही खत्म हो जाती है . लेकिन कल हम दो बजे तक आपका इंतज़ार करते रहे ."
" हाँ आना तो कल ही था . लेकिन annual confidential report भरवाने के लिए स्कूल में जाना था . और कम्प्यूटर का server down था तो बहुत देर हो गई थी ." मैंने पूरी बात बताते हुए कहा .
  " आप ठीक कहती हैं . कम्प्यूटर तो हर डिपार्टमेंट में शुरू कर दिए गए हैं . लेकिन कुछ न कुछ समस्या ही आई रहती है ."  मुझसे राष्ट्रीय बचत पत्र लेते हुए पोस्टमास्टर ने कहा .
       चैक लेकर मैंने उसे धन्यवाद दिया . तब उसका कहना था," धन्यवाद किस बात का ? ये तो हमारी ड्यूटी  है. और कोई सेवा हो तो बताओ ."
      मेरे पास एक और सेवा मौजूद थी . मैंने कहा ,"इनकम टैक्स डिपार्टमेंट से लैटर आया हुआ है कि टैक्स कम दिया गया है . फार्म नंबर 16 के साथ covering letter स्पीड पोस्ट कराना है . यह काम कृपया कर दें ."
                 उसने कहा ,"हमारा पोस्ट ऑफिस छोटा है . यहाँ यह नहीं हो सकता . आप रिक्शा ले लीजिये . वह दस रूपये लेगा और आपको पंजाबी बाग़ डाकखाने तक पहुंचा देगा . वहां पर आप स्पीड पोस्ट करा दीजिए ."
            भले मानस ने पूरा तरीका ही नहीं बताया बल्कि कहाँ से काम करवाना है, रिक्शावाला कितने रूपये लेगा आदि सब जानकारियाँ दे डाली . कितनी आत्मीयता दिखाते हैं यहाँ लोग !
             काम पूरा करने के बाद मुझे रिक्शा से बस स्टाप तक जाना था . " आपको कहाँ तक जाना है ?"  पीछे से आते हुए एक रिक्शाचालक ने पूछा . " बस स्टाप तक. "  मैंने कहा. 
    रिक्शावाला बोला, " आप मेरे रिक्शा में बैठ जाइए."   मैंने कहा,"दस रूपये दूँगी ."
       " हाँ हाँ . कुछ भी दीजिए.  मेरी अभी बोहनी नहीं हुई " वह बुज़ुर्ग रिक्शाचालक बोला .
     मैं रिक्शा पर बैठ गयी . चलते चलते वह बता रहा था कि वह नदी में नहा कर आया है ; केवल पांच रूपये किराया देकर.  वह बहुत खुश लग रहा था .  बस स्टाप मेरी आशा से अधिक दूरी पर था . अत: मैंने उसे पन्द्रह रूपये दे दिए . फिर तो वह बहुत अधिक प्रसन्न हो गया . जाते जाते बोला ," मैं ब्राह्मण हूँ .  आपको खूब खूब आशीर्वाद देता हूँ ." 
        मैं काफी हैरान हुई. अक्सर दिल्ली के रिक्शावाले थोड़े बदतमीज़ और बदमिजाज़ होते हैं . परन्तु यह तो निहायत ही शरीफ़ था . मैं सोच रही थी अगर हर दिन ही इतनी आत्मीयता से परिपूर्ण हो, तो जीवन जीने का मज़ा ही आ जाए !  

            Complete Rickshaw, Complete Bicycle, Bicycle Parts, Hand Tools, Garden Tools, Auto Parts, Scaffoldin

Friday, June 17, 2011

गर्मी की छुट्टियाँ (5)

     छुट्टियों में कभी कभी कोई मेहमान आते तो खूब मज़े होते . घर में फ्रिज तो होते नहीं थे . माँ चार आने देकर बाज़ार भेजती . मैं दो आने के नीम्बू लाती और दो आने की बर्फ .उस समय बाज़ार में बर्फ की बड़ी बड़ी सिल्ली लेकर उसे बड़े जूट के बोरे से ढक दिया जाता था . पटरी पर बैठे बर्फ बेचने वाले लोग, इस सिल्ली मैं से ; एक नोकदार पेचकस की मदद से, निश्चित मात्रा में बर्फ को काटकर,ग्राहक को बेचते थे.घर आकर नीम्बू और बर्फ मैं माँ को पकड़ा देती . माँ बड़े से भिगोने में चीनी घोलती , उसमें नीम्बू डालकर अच्छे से मिलाती और फिर बर्फ डालकर बन जाता नीम्बू पानी . हम इसे शिकंजी कहते थे . मेहमान के साथ साथ हम बच्चों को भी गिलास भर भर कर शिकंजी मिलती थी . 
                                    एक बार गाँव से मेरी बुआ हमारे घर छुट्टियों में रहने के लिए आई . वे अपने साथ बहुत सी चीजें लाई थी . परन्तु मुझे सबसे अधिक पसंद आई , एक छोटी सी डलिया .गेंहू की फसल पकने पर गेंहू निकलने के बाद जो लम्बी लम्बी सींखें(तीलियाँ) बच जाती हैं ; ग्रामीण लोग उससे छोटी छोटी टोकरियाँ और डलिया बना लेते हैं . मैंने वह डलिया लेकर कहा,"बुआ! इसमें मैं अपने खिलौने रखूंगी."  बुआ ने ख़ुशी ख़ुशी वह डलिया मुझे दे दी .
                                                  घर के चौंके बर्तन या घर की सफाई आदि के काम माँ बुआ को नहीं करने देती थी . माँ कहती थी, "आप अपने में घर खूब घर के काम निपटाती हो . यहाँ पर तो बस आप आराम करो .परन्तु बुआ भी माँ की तरह ही थी . वे भी खाली बैठे वक्त नहीं गुज़ार सकती थी . वे माँ से बोली ,"भाभी! मुझे कुछ काम चाहिए . मैं खाली नहीं बैठ सकती ." माँ को याद आया ; ऊपर एक पुराना लकड़ी का चरखा पड़ा था और एक संदूक में रजाई से उधेडी हुई रुई भी पड़ी थी . माँ ने बुआ को चरखा और रुई दे दी . जितने दिन बुआ हमारे साथ रही तब तक खाली समय में उन्होंने खूब सारा सूत काट लिया था . माँ ने भी अपनी एक साडी में सुन्दर सुन्दर बूटे काढ लिए थे . और मेरा भी काफी सारा गृह कार्य निपट चुका था .
                                                            जब बुआ अपने गाँव वापिस जाने लगी तो हम सभी को बहुत दु:ख हुआ . बुआ भी उदास थी . माँ ने सुन्दर साड़ी रूपये और फल देकर उन्हें विदा किया . मैंने माँ से पूछा ,"माँ ! बुआ को साड़ी और रूपये क्यों देते हैं ?" माँ ने समझाया," घर की बहनों और बेटियों को बहुत सम्मान देना चाहिए . वे सर्वदा हमारे परिवार की शुभचिंतक होती हैं .इसीलिए उन्हें आदरपूर्वक कुछ न कुछ उपहार अवश्य दिया जाता है . जिससे कि वे हमसे हमेशा प्रसन्न रहे."
                                       पहले घरों में पीतल के बर्तन होते थे. उनमें खाना बनाने के लिए यह आवश्यक था की उनमें पहले कलई कराइ जाए . गली में अक्सर फेरीवाले आवाज़ लगते थे ,"बर्तन कलई करा लो! भांडे कलई करा लो !" माँ को स्वयं बर्तनों पर कलई करनी आती थी . इसलिए वे फेरीवालों से कलई नहीं कराती थी . मुझे पैसे देकर भेजती और कलई और नौशादर मंगवाती . फिर तेज़ जलती हुई अंगीठी पर बर्तन को तेज़ गर्म करके उसके अन्दर थोड़ी सी कलई लगाती . उसके बाद एक बड़े से रूई के टुकड़े में नौशादर का महीन चूरा लगाकर वे पूरे बर्तन के अन्दर कलई की परत चढ़ा देती . फिर तपते हुए बर्तन को एकदम ठन्डे पानी में डुबा देती थी . एकदम छन्न की आवाज़ होती और पानी से बाहर निकलने पर चमकदार कलई वाला बर्तन तैयार होता था .
                                                                इस प्रकार माँ रसोईघर के सभी बर्तनों को कलईदार बनाकर चमका देती थी . शाम को बाउजी ऑफिस से घर आते तो मैं बाउजी  को बताती,"बाउजी! आज माँ ने सब बर्तनों पर कलई चढ़ा दी है . " तब बाउजी बहुत प्रसन्न होते थे . हो सकता है, ये सुनकर उनकी सारी थकान भी मिट जाती हो!

Thursday, June 16, 2011

गर्मी की छुट्टियाँ (4)

             नए सत्र की पुस्तकें गर्मी की छुट्टियों तक खरीदी जा चुकी होती थी . हिंदी की पूरी पुस्तक मैं दो ही दिन में पढ़ डालती थी . बाकी पुस्तकें भी गाया बगाया पढ़ती ही रहती थी . पुस्तकों पर जिल्द चढाने का काम भी ज़रूरी होता था . बाउजी हम बच्चों से बाज़ार से अबरी मंगवाते . माँ से मैदा की लेई बनवाते ; जिसमे नीला थोथा भी डलवाते थे ताकि चूहे पुस्तकें न कुतर लें . फिर हम सब बच्चों के साथ बैठकर वे सभी पुस्तकों की जिल्द चढ़वाया करते थे . बाद में सभी पुस्तकों को ऊपर नीचे रखकर उन सब पर भारी वज़न रख दिया जाता , जिससे कि पुस्तकों पर चढ़े गत्ते बिलकुल सीधे रहें . अगले दिन सवेरे सभी किताबें की बढ़िया जिल्द बंध चुकी होती थी . 
                              छुट्टियों में कभी कभी सवेरे सवेरे ही माँ मूंग की दाल की पिट्ठी पीसती . मैं भी उसमें मदद करती थी . फिर हम दोनों उस पिट्ठी की मंगोड़ी बनाकर छत पर रख देते , तो शाम तक बिलकुल सूखी मंगोड़ीया मिलती थी कभी कभी माँ चावल के कुरकुरे और आलू के चिप्स भी सवेरे ही बनवा लेती . दिन में कड़ी धूप लगने पर शाम तक सभी चीजें शाम तक सूख जाती . फिर इनको कढ़ाई में तलकर खाने में बड़ा मज़ा आता था . गर्मी की छुट्टियों में बच्चों का कुछ न कुछ खाने का मन करता रहता . इसके लिए माँ पूरा कनस्तर भरकर आटे के बिस्कुट बनवा कर लाती . बिस्कुट की फैक्ट्री में अपना आटा, मक्खन , चीनी और दूध ले जाना होता था . फिर वहां बिस्कुट बनाकर दे दिए जाते और हम अपने कनस्तर में भर लाते . इसके बाद तो हमारी मौज होती थी . जब दिल आए, बिस्कुट निकालो और खाओ . जो स्वाद उन बिस्कुटों में था ,वैसा कहीं और नहीं मिल पाया . कभी कभी माँ मुझे एक किलो कच्चे चने भी देती थी , भुनवाने के लिए . मैं भाड़ पर जाती , जो कि पास में ही था . भाड़वाली स्त्री पहले भाड़ मैं आग जलाती. उस पर रेत से भरा बड़ा सा कढ़ाव रखती . जब वह रेत खूब गर्म हो जाता , तो उसमें कच्चे चने डालकर लकड़ी की डंडीयों से खूब हिलाती . चने खूब चटर पटर करते और खिल खिल जाते .फिर एक बड़ी सी छलनी में वह उन सभी को डालकर रेत छानकर अलग कर देती और चने मेरे थैले में ड़ाल देती . उन फूले भुने हुए चनों को लेकर मैं घर वापिस आती . माँ मुझे एक मुट्ठी गरम गरम चने तो तभी मुझे खाने के लिए दे देती थी .
             कभी कभी किसी चारपाई का बुना हुआ हिस्सा कमज़ोर होकर टूट जाता . तब प्रोग्राम बनता चारपाई बुनने का . मूंज घास की पतली रस्सियाँ लाई जाती . बाउजी और भाई मिलकर खाट बुनते . मैं चारपाई के एक पाए के पास बैठती और दूसरी ओर से बुनकर लाई हुई रस्सी पाए के नीचे से निकालती . कितनी कसी हुई और सुन्दर बुनाई होती थी चारपाई की ! बाद में अदवायन से खींचकर बुनाई को पूरा कस दिया जाता था . और इस तरह चारपाई दोबारा तैयार हो जाती थी इस्तेमाल के लिए .
          मैं कभी कभी सोचती हूँ की घर से दूर लाहौर में हॉस्टल में रहते हुए पढाई करके  बाउजी विज्ञान के स्नातक बने . फिर इतने सारे तरह तरह के काम उन्होंने कब और कहाँ सीखे ? डी ए वी कालेज के विज्ञान के  स्नातक थे तो अंग्रेजी भाषा पर तो पूरा अधिकार था. परन्तु उर्दू भाषा पर भी वे समान अधिकार रखते थे ; ये एक आश्चर्य का विषय है . जितने उन्हें शेक्सपीयर पसंद थे ,उतने ही ग़ालिब भी . रात को कभी कभी छत पर हमारा पूरा परिवार सोने से पहले गप शप करता . तब भाई भी अपने अपने तरह तरह के किस्से सुनाते और बाउजी भी . मैं रुचिपूर्वक सारे वार्तालाप का लुत्फ़ उठाती . बाउजी बहुत से शेर सुनाते  थे . उनमें से एक मुझे अब भी याद है :
     "दिल मत टपक नज़र से ,कि पाया न जाएगा .
     ज्यों अश्क फिर ज़मीं से , उठाया न जाएगा "        

Tuesday, June 14, 2011

गर्मी की छुट्टियाँ (3)

चटखारेदार आम का अचार
 गर्मियों की छुट्टियों में कच्चे आम का अचार लगभग सभी घरों में डाला जाता था. हमारे घर दस किलो आम का अचार डालने का मर्तबान था. बाउजी मंडी से दस किलो बढ़िया किस्म के आम लाते. सारे आमों को अच्छी तरह धोया जाता . फिर आमों को सूखे साफ  कपडे से पोंछकर एक जगह रख दिया जाता . यह काम अक्सर रविवार को ही होता था . फिर हम सब घर के सदस्य एक एक चाकू हाथ में लेकर कच्चे आमों की फांकें काटते और गुठलियां एक तरफ रखते जाते . जब सभी आमों की फांके बन चुकती तो बाउजी उनमें नमक मिलते और मर्तबान में दबाकर भरकर रख देते . माँ कुछ गुठलियों की गिरी निकलती ;उनके टुकड़े करती ; और पुराने अचार के मसाले में डाल देती लगभग पन्द्रह दिन बाद गुठलियों की गिरी के टुकड़े भी बहुत स्वादिष्ट हो जाते थे .
                         हर साल बाउजी ही आम का अचार डालते थे . माँ कहती थी कि उनके हाथ से डला अचार सुरक्षित रहता है . अचार में डलने वाले सभी मसालों को चुगकर धूप में सुखाया जाता . अगले दिन आम की फाँकों को मर्तबान में से निकालकर सारा दिन धूप दिखाई जाती . वह धूप में सूखती फांकें मुझे बहुत लुभाती थी . मैं अनायास ही उनमें से एक दो फांक छत पर आते जाते खा ही लेती थी . उन खट्टी खट्टी फाँकों की कल्पना से ही मुंह में पानी आ जाता है . शाम को एक बहुत बड़ी पीतल की परांत में सारी फाँकों में पूरा मसाला और सरसों का तेल अच्छी तरह से मिलाकर बाउजी बड़े मर्तबान में दबाकर भर देते . उसके बाद मर्तबान में सरसों का तेल डालकर उसके मुंह को पूरी तरह बंद कर देते . जब तक यह नया अचार तैयार होता ; तब तक पुराना अचार ही इस्तेमाल होता रहता था . हमारे स्कूल के लंच में माँ आम का अचार जरूर रखती थी .
..
             माँ कच्चे आम की मीठी चटनी बहुत अच्छी बनाती थी . अक्सर उसमें गुड डालती थी और कलौंजी का छौंक लगाती थी . कभी कभी कच्चे आम का मीठा लच्छा भी बनता था . ऐसा मन करता था की उसे खाते ही जाओ . कच्चे आमों के गूदे की फांके कई बार माँ धूप में सुखा देती थी . उसे कूटने पर बढ़िया अमचूर बनता था . कच्चे आम के गूदे का हींग वाला अचार माँ बहुत स्वादिष्ट बनाती थी . परन्तु वह एक महीने तक ही इस्तेमाल कर लेना होता था . पहले सभी घरों में  फ्रिज तो होते नहीं थे और बाहर गर्मी अधिक होने के कारण यह अचार जल्द ही खराब हो सकता था .


                                                                             

Monday, June 13, 2011

गर्मी की छुट्टियाँ(2)

शाम होते होते आँगन और छत पर धूल इकट्ठी होजाती थी . पूरे घर की सफाई के बाद आँगन में खूब सारा पानी डालकर धोने में मज़ा आता था . उसके बाद तपती हुई छत पर पहले मैं पानी से फर्श पर इकट्ठी हुई धूल साफ़ करके मैं खूब छिडकाव करती थी . बाल्टी में पानी भरकर गिलास से पूरी छत पर छिडकाव करने से छत का फर्श खूब ठंडा हो जाता था . रात को जब हम सभी चारपाइयाँ बिछाकर सोते थे ,तो ठंडक का एहसास होता था .
                        नीचे रसोईघर में माँ रात के खाने की तैयारियां आरम्भ कर देती थी . अंगीठी में नीचे जाली पर पहले कटी हुई लकड़ियों के टुकड़े रखकर ऊपर पक्के कोयले के छोटे छोटे टुकड़े रख दिए जाते थे . अंगीठी के नीचे वाले मुंह में कुछ कागज़ के टुकड़े जलाने पर  लकड़ी आग पकड़ लेती थी और फिर कोयले के टुकड़े भी जल उठते थे. मैं ख़ुशी ख़ुशी माँ से कहती ,"माँ! अंगीठी आ गयी है . उसे अन्दर उठा लाओ ." अंगीठी पर पीतल की भारी पतीली में माँ छोंक लगाकर सब्जी बनने के लिए रख देती . मैं सिल बट्टे से बारीक स्वादिष्ट धनिए और पुदीने की चटनी पीसती . कभी कभी करेले में भरने वाला कच्चे आम का मसाला भी मैं सिल बट्टे पर ही पीसती . माँ करेले धोकर चीरा लगाती और मसाला भरती. मैं धागों से करेलों को बांध देती और फिर अंगीठी पर चढ़ता कढाई में  सरसों का तेल ,और खुशबूदार ,लज़ीज़ करेले तैयार हो जाते . उसके बाद सभी चटाई बिछाकर भोजन के लिए बैठते . माँ अंगीठी पर रोटी बनाती जाती ; और हम सब गर्मागर्म रोटियां हरी चटनी ,करेलों और  सब्जी के साथ खाते .
                  खाना खाने के बाद रसोईघर को पूरा व्यवस्थित करवाने में मैं माँ की मदद करवाती . उस समय घरों में टेलीविजन तो होते नहीं थे . खाना खाने के बाद सभी बच्चे घरों से निकलकर गली में आ जाते . हम कई तरह के खेल खेलते थे . चोर सिपाही , ऊँच नीच , पोशम्पा भई पोशम्पा , पकड्म पकड़ाई . हम गली में खूब धमाचौकड़ी मचाते . कितना मज़ा आता था! खेलने के बाद हम वापिस घर में आ जाते . मैं बाउजी के पास बैठकर पढ़ती थी . मैं उन्हें पाठ पढ़कर सुनाती थी . वे मेरी पढाई में पूरी रूचि लेते थे . कई बार तो माँ और बाउजी की लड़ाई भी हो जाती थी .माँ कहती थी की लड़कियों को घर का काम सीखना ज्यादा ज़रूरी है ; जबकि बाउजी के अनुसार यह बात ठीक नहीं थी . उनका कहना था  कि घर के काम तो बाद में भी आ जायेंगे;  परन्तु फिर अच्छी तरह पढाई नहीं की जा सकती . अंग्रेजी के हर शब्द का अर्थ बाउजी इस प्रकार समझाते कि वह तुरंत याद हो जाए . गणित के मामले में वे बहुत सख्त थे . वे कहते थे कि एक भी नंबर कम नहीं होना चाहिए . पूरे नंबर आने चाहियें . गणित में एक भी नंबर कम होने पर उन्हें रिपोर्ट कार्ड दिखाते हुए डर लगता था 
  
               रात को रेडियो पर पन्द्रह मिनट का एक प्रोग्राम आता था "हवा महल ". वह कोमेडी का प्रोग्राम होता था . बाउजी उसे ज़रूर सुनते थे . मैं भी साथ साथ सुनती थी . वह बहुत मजेदार होता था . प्रोग्राम ख़त्म होने के बाद छत  पर पहुँच कर मैं सबकी चारपाईयाँ बिछा देती . माँ नीचे से सुराही भरकर ले आती थी . भाई तो देर तक पढ़ते थे . बिस्तर पर लेटकर कई बार तो बाउजी कटवाँ पहाड़े (tables)सुनते या मौखिक गणित के प्रश्न पूछते . और फिर छत पर बहती मंद मंद ठंडी पवन सहलाती हुई मुझे सपनों के देश ले जाती .



कथा कब बदलेगी?


झरने के नीचे .
नन्ही सी भेड़,
भोलेपन से सिर झुका,
पीती चुपचाप पानी .
और झरने पर खड़ा , 
धूर्त भेड़िया,
लाल आँखें दिखा ,
करता मनमानी 
"तूने यह पानी पी ,
कर दिया अरे पगली ,
जूठा यह झरना है 
सजा यहीं पाएगी 
तूने अब मरना है .
घोर हुआ अपराध जब ,
ग्रास मेरा बनने को ,
होजा तैयार अब ."
विनती बहुतेरी की 
रो रो कर वह बोली
"मैं तो हूँ नीचे और 
ऊपर तुम बैठे हो 
कैसे फिर कहते हो 
मैंने तुम्हारा जल 
जूठा है कर डाला ."
"देती है क्यों दलील 
बलशाली सच्चा है 
तर्क यही अच्छा है 
खाऊँगा मैं तुझको 
आज नहीं बक्शूंगा
चाहिए बहाना भर 
आज तुझे भक्षण कर 
होगी सम्पूर्ण तृप्ति 
तुझको इस जीवन से 
देता हूँ तुरत मुक्ति. "
यही कथा फिर फिर क्यों 
पुनरावृत होती है ?
क्यों नहीं नूतन रचना 
कहीं घटित होती है ?
काश ये भी हो सकता !
भेडिए के ऊपर कोई 
शेर खड़ा हो सकता!
गरजता गगनभेदी स्वर ;
'अरे मूर्ख भेडिए !
मुक्त कर मासूम को 
अन्याय से पर्दा हटा 
या तो फिर तैयार हो जा 
मैं तेरे पीछे डटा."
क्या युगों के बाद भी 
यह कथा ,
बन कर व्यथा ,
निरीह मासूमों पर 
वार करती रहेगी ;
और कोई भी वनराज ,
 आक्षेप नहीं करेगा .
क्या सभी भेडिए,
 अहर्निश,
भोली भेड़ों पर,
झूठे आरोप लगा ,
कुतर्कों से उन्हें हरा ,
अपने क्रूर जाल में ,
बुरी तरह उन्हें फंसा ,
ठहाके लगाते,
मजे लेकर ,
उनका भक्षण करते रहेंगे .
क्या सभी रक्षक ;
मौन और मूक रहकर, 
बने रहेंगे ,
संवेदनशून्य दर्शक ?
यह कथा कब बदलेगी ;
आखिर कब ?



Sunday, June 12, 2011

गर्मी की छुट्टियाँ (1)

पन्द्रह मई का हम सभी बच्चों को बड़ी बेसब्री से इंतज़ार रहता था . विद्यालय से पूरे दो महीने के लिए हम सभी बच्चे मुक्ति पाजाते थे. पंद्रह मई से पहले ही हम सभी सहेलियां आपस में मिलकर कई योजनाओं को अंजाम देने की सोचते . ये दूसरी बात है की उनमें से आधी से ज्यादा अधूरी ही रह जाती थी . 
                             सवेरे सवेरे जल्दी बिस्तर से उठते और चारपाई पर बिछी दरी और चादर तह करके कमरे के अंदर रखकर आते . फिर बाहर छत पर बिछी चारपाई को दीवार के सहारे खड़ा करने के बाद सभी बच्चे गली में एक जगह पर इकट्ठे हो जाते . जो  बच्चा  नहीं आता , उसे जबरदस्ती जगाकर लाया जाता था . हमारे घर के बिलकुल पास में रोशनारा बाग़ था . इस बाग़ में औरंगजेब की बहन रोशनारा की कब्र थी . बाग़ बहुत बड़ा था और बहुत खूबसूरत भी . हम सभी बच्चे सवेरे सवेरे इसी बाग़ में जाया करते थे .
                                 ढेर सारे फलों और फूलों से लदे वृक्ष और उन पर चहचहाते पक्षिवृन्द ! क्या आनन्द आता था ठंडी ठंडी हवा में मुलायम घास पर हम खूब दौड़ लगाते. और तरह तरह के खेल खेलते . बाग में तरह तरह के झूले भी थे और बड़े बच्चों के लिए कसरत के लिए भी पूरा प्रबंध था . हम बाग में घूमते घूमते बड़ी झील के पास पहुँच जाते . झील के अन्दर खजूर के पेड़ों की परछाई मुझे बहुत सुन्दर लगती थी . कभी कभी किसी बच्चे को पेड़ के नीचे गिरा हुआ कच्चा आम या जामुन मिल जाता तो वह इतना प्रसन्न होता जैसे कोई ट्राफी हाथ लग गई हो! 
सूरज के गर्माने से पहले पहले ही हम वापिस घर की ओर चल पड़ते . मैं अक्सर अमलतास के पीले फूलों की टहनी अपने साथ ज़रुर लाती थी , क्योंकि अमलतास के फूल मेरा मन खूब लुभाते थे .
                             
 घर वापिस आकर हम लड़कियों को पहले तो घर आँगन की सफाई करनी होती थी . उसके बाद नहाना और  नाश्ता करना; तत्पश्चात मैं तो बैठ जाती थी एक घंटे स्कूल का होम वर्क करने के लिए . दोनों भाई कॉलेज चले जाते और बाउजी ऑफिस . तब माँ के साथ कपडे धुलवाकर मैं छत पर कपडे सुखाकर आती थी . फिर माँ अंगीठी पर रोटियां  बनाकर एक  बड़े कटोरदान में रख देती और रसेदार सब्जी एक बड़ी चीनी मिटटी से बनी हुई कुण्डी में . फिर माँ और मैं मिलकर सभी बर्तन साफ़ करते और रसोईघर भी .
                                   दोपहर को मै, माँ और प्रभा मिलकर खाना खाते . माँ कच्चे आम की मीठी चटनी बहुत स्वादिष्ट बनती थी . बड़ी सी कुण्डी में वह रखी होती और सप्ताह भर भी खराब नहीं होती थी .इसके बाद माँ सिलाई मशीन पर पर सलाई का काम करती या तो क्रोशिये से लेस वगेरह बनाती थी . मैंने माँ को कभी खाली बैठ सुस्ताते नहीं देखा . एक बार तो उन्हें दरी बनाने का शौक चढ़ा . तो भरी गर्मियों में छत पर तिरपाल तान लिया जिससे छाया रहे और तिरपाल की छाँव में दरी का ताना बुना . मुझे याद है माँ ने शायद वह दरी बीस दिन में बुनी . बहुत ही बढ़िया भारी सी दरी बनाई थी . उसे देखकर उन्हें  कितने आत्मसंतोष और गर्व की अनुभूति हुई होगी ; मैं अब समझ सकती हूँ 
                       माँ अपना कुछ काम करती तो मैं साथ बैठकर पढाई करती थी . माँ मुझे पढने में भी मदद करती थी . कभी कभी वो मुझसे मशीन से थोड़ी बहुत सिलाई भी करवाती जिससे मैं सीख जाऊं .इसके बाद मैं अपनी सहेलियों के घर खेलने चली जाती , या तो वे मेरे घर आ जाती थी . हम अक्सर गिट्टे खेलते थे . पांच छोटे छोटे गोल गोल पत्थर के टुकड़े लेकर ये खेल खेला जाता था , या कई बार लकड़ी के गिट्टे भी होते थे . इसके अलावा जमीन पर लकीरें बनाकर एक वर्गाकार में पच्चीस छोटे वर्ग बनाकर खेलते थे "अष्ट चंगा पौ ". इमली के दो बीजों को बीच से फोड़ने पर आधा हिस्सा सफ़ेद दिखता था और आधा भूरा . यही इमली के बीज के टुकड़े हमारी गोटियाँ बन जाते थे . चारों को एक साथ फेंकने पर यदि सब सफ़ेद हिस्से ऊपर दिखें तो आठ नंबर माने जाते थे और अगर चारों भूरे हिस्से नज़र आए तो चार नंबर होते थे . अन्यथा जितने सफ़ेद हिस्से ऊपर दिखें उतने ही नंबर माने जाते थे. सांप- सीढ़ी , कैरम और ताश भी हम खूब खेलते थे . ये सभी खेल घर के अन्दर खेले जा सकते थे ; इसीलिए दोपहर में तो हम सभी बच्चे यही सब खेल खेलते थे.  
         

Thursday, June 9, 2011

"Small Things (persons) Matter!"

In my free period ,sitting in the staff room ,I was examining the notebooks of students. Suddenly the lady peon of my school came weeping .There was no one else in the staff room .I looked at her, with question in my eyes . I asked her to sit on the chair by my side. Then offering her a glass of water I asked her what the problem was .
             She kept on sobbing for a while . After a  few minutes she told me that she was late only for 15 minutes and she had been issued memo by principal . It was really shocking ! Much surprised I said,"It is really very unfair on part of our principal .It should not have happened . He is not at all this type of man . How come; he issued you memo on such a trivial thing ?"
         I asked her to narrate every minute detail of what exactly had happened . After listening to her detailed description I concluded that our principal had been already very much upset on certain very important issue. when the peon came late , he bombarded upon her . As the peon was also facing some problem at home ; she retorted to principal in equally bad tone . The result was memorandum in peon's hand!
                I tried to explain all this to peon . I asked her to become cool and try to apologize to the principal , when he was in good mood . I hoped then he might be somewhat more considerate for her. School  peon was a bit reluctant. "For what should I apologize? I have self respect . Why should I apologize when I did not commit any mistake?"
            I tried to cool her . "See. You might have some problem at home. But you came late. This is first fault on your part. Secondly , when principal scolded you, you answered him badly . After all , he is your boss. I agree you have self respect . But it does not mean that you can retort back at your boss. Had you been polite he would not have served you memo."
           My peon agreed with me somewhat . She went to principle's office . After a while she came back happily from office . I had to go to my classroom for my arranged period. So I had no time to ask her but guessed what might have happened in the office.
       Later, when I was resting at home , I was thinking about the whole episode. It was a very small thing ,and yet so BIG! Every one has self respect. Every one wants one's self respect to be respected. But everyone should also think about the other person's self respect also. We should see to it that our deeds, words, actions or even looks do not convey the massage that we are demeaning the other person. Sometimes we are very upset. We might have some problems in our personal life. This does not mean that we should unnecessarily become angry with the people who are our subordinates.
         I think on peon's part she might have been right when she retorted. we can expect an illiterate person to behave in this way. But a highly educated person having so much responsibility should try to remain calm in every situation . He should try to to be understanding for every one; especially his subordinates. In this way he can command more respect.    
             Generally it happens that when we are highly disturbed , we try to loose our cool over our children, younger siblings or servants. Or for that that matter any person, whomever we can bully. Whenever we are doing this , we should, for one second, look into their eyes. Their eyes will always be saying,"If you are disturbed, why are you snatching our happiness?" They may not utter a single word from their mouth ,but negative vibrations start emitting from their bodies; which make us all the more uncomfortable.
             I think we should respect every one's self respect. Remember , what Kabir, the great saint said,"निर्बल को न सताइए ; जाकी ऊंची आह "


Wednesday, June 8, 2011

वेदना सुषमा सृजन है




वेदना सुषमा सृजन है 
सीप के उर में समाया
दर्द क्रंदन कर कराहा
परत पर परतें चढ़ी तब
बन गया मुक्ता सघन है 
वेदना सुषमा सृजन है

भू के अन्दर छटपटाता 
बल लगा सिर को उठाता
नया पादप आंख खोले 
देखता पुलकित गगन है 
वेदना सुषमा सृजन है

कंटकों के मध्य रहकर 
शूल क्षत को मौन सहकर 
हुई कोमल कली विकसित 
बन गई सुन्दर सुमन है 
वेदना सुषमा सृजन है

बांस की पतली नली में
कंपकंपाती हृदयस्थली में
घात औ संघात सहकर
सुर बना कोमल पवन है
वेदना सुषमा सृजन है

मूक रह संताप सह कर 
कर्म में आलिप्त रहकर 
खोज पायेगा यहीं पर 
सत्य;  जो तेरा स्वप्न है 
वेदना सुषमा सृजन है



Tuesday, June 7, 2011

सुरम्य स्वर मंजूषा




स्वर सरिता बहती कल कल 
सुरम्य लहरें झंकृत हर पल 
मृदु स्पंदन विकसित हर क्षण 
हर्ष माधुर्य निमग्न सरल मन 
कोमलतम सुर बद्ध गीत गा 
कर कृतार्थ जन मन विनीत पा
पकड़ हरित पर्णों का आँचल 
बनती आम्र मंजरी संबल 
श्याम घटा से निस्सृत धारा 
करती पुलकित जग ये सारा 
श्याम कंठ से फूट तरंगें 
मादक मन में भरें उमंगें 
हर कण में हो पूर्ण मिठास
लेकर ये अविचल विश्वास 
करती अथक अहर्निश यत्न 
लोकहित भरे सभी प्रयत्न 
गाती, हो जाती जब भोर .
बैठ डाल की पिछली छोर 
हो जाते जब सभी प्रसन्न 
तब भी स्वर रहते अविच्छिन्न 
शीतल मधुर धुनों की खान 
जग में अद्भुत ले पहचान 
बिना स्वार्थ करती हो कर्म 
सतत निभाती अपना धर्म 
मानव को भी दे यह ज्ञान 
हो मिठास उसकी पहचान 
मधुर वचन से हो भरपूर 
जीवन ; तब दु:ख होंगे दूर 
लाएगी तब नई उषा 
तेरी सुरम्य स्वर मंजूषा