कौन कहे इस वृद्ध वृक्ष ने,
तरुणाई में क्या क्या झेला?
पाषाणों के वार असह्य थे;
जीवन पथ था निपट अकेला।
रस से ओत प्रोत मीठा फल,
जिसने चाहा जी भर खाया।
तृप्त किया पंथी को अपना,
हरित पर्ण आंचल फैलाया।
मुदित प्रशंसक राही ने भी,
पत्थर मार कर दिया घायल।
घाव समेटे ताज़े फिर भी,
प्रेम प्यार से दिया मधुर फल।
उभरी हुए प्रत्येक शिरा अब,
स्वयं दुःख भरी कथा सुनाती।
कितने चाकू , भाले, आरी,
पड़े वक्ष पर बन आघाती।
यों अस्तित्व संभाला अपना,
आह कभी भी निकल न जाए।
रहे हरित पूरा यौवन पर,
जख्म किसी को नजर न आए।
एक एक कोमल डाली पर,
पात पात पर प्यार बिखेरा।
अपनी पीड़ा अंतर्मन की,
भीतर भीतर खूब उकेरा।
अन्दर की धीमी अग्नि ने,
जर्जर कर डाला तन सारा।
सुख, मिठास, आनन्द बांटता,
वृक्ष स्वयं से ही अब हारा।
फिर भी सूखे पत्ते ओढ़े,
छाया अपनी दे देता है।
तरुणाई भी आई थी क्या ?
प्रश्न उसे विस्मित करता है !
तरुणाई में क्या क्या झेला?
पाषाणों के वार असह्य थे;
जीवन पथ था निपट अकेला।
रस से ओत प्रोत मीठा फल,
जिसने चाहा जी भर खाया।
तृप्त किया पंथी को अपना,
हरित पर्ण आंचल फैलाया।
मुदित प्रशंसक राही ने भी,
पत्थर मार कर दिया घायल।
घाव समेटे ताज़े फिर भी,
प्रेम प्यार से दिया मधुर फल।
उभरी हुए प्रत्येक शिरा अब,
स्वयं दुःख भरी कथा सुनाती।
कितने चाकू , भाले, आरी,
पड़े वक्ष पर बन आघाती।
यों अस्तित्व संभाला अपना,
आह कभी भी निकल न जाए।
रहे हरित पूरा यौवन पर,
जख्म किसी को नजर न आए।
एक एक कोमल डाली पर,
पात पात पर प्यार बिखेरा।
अपनी पीड़ा अंतर्मन की,
भीतर भीतर खूब उकेरा।
अन्दर की धीमी अग्नि ने,
जर्जर कर डाला तन सारा।
सुख, मिठास, आनन्द बांटता,
वृक्ष स्वयं से ही अब हारा।
फिर भी सूखे पत्ते ओढ़े,
छाया अपनी दे देता है।
तरुणाई भी आई थी क्या ?
प्रश्न उसे विस्मित करता है !