रुक्मणी जी के भाई रुक्मी ने उनका विवाह शिशुपाल के साथ तय कर दिया लेकिन रुकमणी शिशुपाल से विवाह नहीं करना चाहती थी क्योंकि वह बहुत ही अत्याचारी शासक था।
तभी नारद मुनि ने रुक्मणी जी को बताया कि उन्हें तो कृष्ण जी ही पति के रूप में प्राप्त होंगे। अगर वह कृष्ण जी को किसी प्रकार अपना संदेश भिजवा दें तो वे स्वयं ही रुक्मणी जी से विवाह करके उन्हें साथ ले जाएंगे।
इसके बाद जिस प्रकार जिस प्रकार से श्री कृष्ण और रुक्मणी जी का विवाह होता है; उसी का वर्णन इस रुक्मणी की बारहमासी में किया गया है। यह बारहमासी मैंने अनेकों बार अपनी मां के मुख से सुनी है। उन्होंने ही मुझे यह बारहमासी लिखकर भी दी। आप भी इसका आनंद उठाएं:
थी भीष्म के रुक्मणी, रूप में घनी, वेद में बनी,
कि राजकुमारी
वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी
चित चैत में चिंता करे, धीर नहीं धरे, ना उन बिन सरे,
जिया नित्य तरसे
क्योंकर के मिलना होय श्याम सुंदर से
गुरु के सुनकर में बैन, पड़े नहीं चैन, हमें दिन रैन,
प्रीति है हरसे
देखिए खबर कब लेंगे आन उधर से
रुकमैया माने नहीं कहा, जरा नहीं दया, वगी हो रहा
मेरे ऊपर से
अब लगन लगा लिखा शिशुपाल को भेजा घर से
मैं बिथा कहूं सुन लीजै,
तन मेरा शौक में छीजै,
अब आके दर्शन दीजै,
सुध बेग हमारी लीजै,
प्रभु अब विलंब न कीजै,
तुम हो विपदा निवार, आप करतार, मेरे भरतार,
तुम्हीं हितकारी
वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी
मौसम आया वैशाख, हमें अभिलाष, तुम्हारी साख,
सभी कोई माने
मैं कहां तलक कहूं अगम निगम बखाने
मेटो मेरी सब पीर, भई है भीर, धरूं नहीं धीर,
न दिल ठिकाने
मैं सुमिरन तेरा करूं मेरा जी जाने
कहूं कासे मरम की बात
कही नहीं जात
नींद नहीं आत
रहूं हैराने
जिस पर भी तू बेदर्द, दर्द नहीं जाने
मेरे गुनाह कौन बदलाओ
किस अवगुण से बिसराओ
अब दीन जान परनाओ
काहे को बाट दिखाओ
काहे को देर लगाओ
कारज करना महाराज, तुम्हीं ब्रजराज, आपको लाज,
मेरी है सारी
वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी
आया जी जेठ,भई नहीं भेंट, लगी असलेट
कहां हो प्यारे?
यहां हो रहे हाल बेहाल तुम्हारे मारे
एक बूढ़ा ब्राह्मण जाय
लिया बुलवाय
पास बिठलाय
कहा समझा रे
द्विज जाओ द्वारिका, जहां रहे वंशी वारे
मैं दूंगी द्रव्य अघाय, तू मत घबराय, यहां जब आय,
निकट हमारे
लग रह लग रहा अंदेशा बड़ा हमें उनका रे
पौरुष इतना नहीं मेरे
कारज को जाऊं तेरे
रस्ते में सिंह बघेरे
कोई मार अकेला गेरे
वहां प्राण बचे नहीं मेरे
कल्पेगी ब्राह्मणी डेरे
में क्योंकर जीता रहूं
कहीं मर रहूं
झूठ नहीं कहूं
कि राजकुमारी
वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी
आशा करती आषाढ़, गले में झाड़, दिया क्यों छाड़
हमें मनभावन
में दासी होकर लगी तुम्हारे दामन
हो पतित उबारन आप
नाम घनश्याम
परम हो पावन
मेरी नैया होगी तुमको पार लगावन
मैं लिखूं नहीं ये पाती
मेरे मन में यह आती
मैं मंगा जहर ले खाती
तुम बिन ना कोई साथी
हर समय निपट घबराती
कारज करना महाराज
तुम ही ब्रजराज
आपको लाज
मेरी है सारी
वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी
सावन सुनिए नंदलाल
लेके शिशुपाल
संग भूपाल
कुंदनपुर छाया
यमराज सा मुझको लगे, काल चढ़ आया
घेरी है सिंह ने गाय
करो सहाय
मेरा जी जाय
तजूं मैं काया
मेरी बालक हांसी कितनी बार लगाया
जल में ग्राह ने गज ग्रसा
देख कर दशा
आप शरमाया
निज भक्त जानकर पहुंचे आन छुड़ाया
सावन बीता महीना
हरी आए नहीं प्रवीना
किस्मत मेरी है हीना
दुख कर्मों में लिख दीना
यह विचार मैंने कीना
दुष्कर मेरा है जीना
मैं विपत मे बैठी भरूं
आह क्या करूं?
बिरह में जरूूं
सबब तुम्हारे
वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी
भादों में भारी मुझे, तपत नहीं बुझे, पीर सी उठे
हमारे मन में
फर्जंद नंद का बसे हमारे मन में
सिर हुआ फिरे शिशुपाल
जाऊं नहीं नाल
पड़ा है ख्याल
पुरी कुंदन में
जैसे ग्रस ले राहु केतु शशि को गगन में
द्रोपदी का उतारा चीर
ढापे शरीर
याद किया मन में
वंशीवट होके बैठ बजावत बन में
दुशासन खैंचत हारा
ऐसा है नाम तुम्हारा
द्रौपदी की ओर निहारा
मेरा भी करो गुजारा
जो होना हाल हमारा
जो कुछ दिल का है सहारा
मुश्किल है मुझको बड़ी
देख इस घड़ी
आन के पड़ी
विपद है भारी
वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी
मंसूबा किया कुँवार
मन मे विचार
हो के तैयार
दिल में यह ठान कि शर्त उठाई
चलूं द्वारिका द्विज ने दिल में यह ठहराई
है साढ़े सात सौ कोस
करें अफसोस
हुआ खामोश
अकल घबराई
सो रहा तले तरुवर के नींद जब आई
अंतर्यामी गए जान
आप भगवान
लिया पहचान
करो सहाई
सोते को ले गए पल में कान्ह कन्हाई
खुल गई जब आंख निहारे
आ गया किस जगहां रे
यहां सुंदर बने हैं द्वारे
गज बंधे द्वार मतवारे
द्विज फिरे पूछता सारे
कहां रहें द्वारका वारे?
वो आप ही दीनानाथ
पकड़ कर हाथ
ले गए साथ
भवन गिरधारी
वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारे
कार्तिक करवा अस्नान
बहुत सम्मान
किये पकवान अधिक बनवा के
कंचन के थाल में धर दिए आगे लाके
कचरी, पापड़, तिरखूंट
पकौड़ी सूंठ
अधिक बनवा के
खुश हुआ ब्राह्मण अपने जी में खाके
मेवा मोदक घी डाल
किये तत्काल
सुबक सुहाल
मधुर पकवा के
नाना विधि के व्यंजन बहू भांति बनाके
झारी जल की भर लावैं
दो अहरी हाथ धुलावैं
मन में अपने मुस्कावैं
तुम लायक ना शर्मावैं
द्विज मन में हुआ मगन
लगी जब लगन
मिट्टी सब थकन
लई दक्षिणा री
वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी
मंगसिर में मन लग रहा
ब्रह्म कह रहा
आपसे कहा रुक्मणी जी ने
शिशुपाल नहीं दे ठंडा पानी पीने
बेमुख होकर ढह करे
निडर नहीं डरे
टारा नहीं टरे
रहम नहीं चीन्है
बरजोरी होकर मांग तुम्हारी छीने
मन लगा थारी शरण
पालना प्रण
गहे थे चरण
सभी तज दीने
ब्रत जप मैंने तेरे कारण कीने
बांचे हरी आंसू जाना
लेकर कर में परवाना
सारथी बेगि रथ लाना
जाओ मत देर लगाना
कुंदनपुर कियो पयाना
रुक्मण को दिखावे खड़ी
बारात उस घड़ी
कहें सब नर नारी
वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी
पौह में पूछे बलराम
कहां गए श्याम
कौन से धाम
हमारे भाई
बदलाओ द्वारिका में नहीं देत दिखाई
इतनी सुन बोले ग्वाल
सुनावें हाल
गए गोपाल
कहें समझाई
एक ब्राह्मण ले गया अपनी गैल कन्हाई
लाया शिशुपाल बारात
जरासंध साथ
हुआ सल्लाही
जहां पड़ा कटक दल, हरि से होय लडाई
बलराम बली बुलवावैं
हाथी घोड़े सजवावैं
यादव वंशी सब आवैं
कई लाख गिने नहीं जावैं
कुंदनपुर को उठ धावैं
रुक्मण को अंदेशा जब्र
करो जा खबर
होय जो सब्र
विप्र भेजा री
वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी
माह का नीका है मास
मन की हुई आस
मैं उनकी दास
मोहन मन आए
शिशुपाल के योद्धा थे जितने घबराए
रुक्मण की बैठी मात
बताओ बात
किसने बहकाए
यह यादव वंशी किस कारण बुलवाए
है धेनु चरावन हार
न जाने सार
डोले गंवार
कहो क्यों आए
हम राजा यह अहीर ही कहलाए
अब यतन कौन सा कीजै
रुक्मण यह किसको दीजै
अपना किसको कर लीजै
दोनों में किसको दीजै
रुक्मण की जननी कहे
गम में दिन ढहे
क्योंकर बिन रहे
कंथ हमारी
वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी
फागुन फिर फूली अंग
सखी लाई संग
अजब एक ढंग
से रुक्मण बाई
पूजने अंबिका मंगल गाने आई
शिशुपाल यह सुनकर शोर
जतावे जोर
खड़े चहुं ओर
किए सिपाही
चौकस रहना नहीं आने पावे कन्हाई
रुक्मण मांगे वरदान
मिले पति कान्ह
वह हैं भगवान
कहें कन्हाई
पूजन करने देवी का बाहर आई
रथ में रुक्मण गोपाला
ले चले भवन नंदलाला
चुप बैठी रुक्मण बाला
हरि ने जब चाब संभाला
मत मारो तुम्हारा साला
मूछा मूंडी जब खड़ग
रथ से दिया जकड़
जाती रही अकड़
हुआ चुपकारी
बर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी
लगा लोंद महीना आना
पहुंचे अस्थाना
दिल में यह ठाना लग्न दिखलाया
सुंदर मंडप विधि से प्रजा ने बनाया
गांव में नारी सब गीत
मोहन की प्रीति
करें कुल रीति
सभी मन चाहा
छवि देख सांवरा सबके मन को भाया
ले ब्राह्मण शाखाचार
वेद विचार
करें उच्चार
विवाह करवाया
रुक्मण ने मन का मनोरथ पाया
सब दयाल सिंह को जाने
शक्ति है जिनके वाने
मैं कहूं सुनो घर ध्याने
उस्ताद उन्हीं को माने
निगुरे नर होय खिसाने
मूर्ख नर क्या पहचाने
मैं कहूं सुनो घर ध्याने
रुक्मण का मंगल गाय
कहूं समझाय
शंभू बराह
बारा मासा री
बर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी