Monday, August 26, 2024

बुलबुल का बच्चा

 कृष्णा बालकोनी का पोछा लगा चुकी थी। पोछे को धोकर वह बाल्टी का पानी क्यारी में डालने ही वाली थी; कि अचानक चिड़ियों का शोर होने लगा। कृष्णा ने देखा कि पेड़ की डाली पर बुलबुल का जोड़ा बहुत जोर से शोर मचा रहा था।

 सहसा उसकी नजर नीचे पडी, तो उसने देखा कि बुलबुल का नन्हा सा बच्चा जमीन पर पड़ा था। बुलबुल का जोड़ा उसे ही देख देख कर शोर मचा रहा था। कृष्णा समझ गई कि यह इन्हीं का नन्हा बच्चा है; और यह इसे उड़ना सिखा रहे हैं।

 तभी सामने के घर से अलीना भी निकल आई। वह सामने वाले घर में काम करती है। वह भी पूछने लगी कि यह शोर क्यों हो रहा है? उसकी भी नजर बच्चे पर पड़ी। वह बोली कि इस बच्चे को तो बिल्ली खा जाएगी। 

उसने देख लिया था कि पेड़ के पीछे, बिल्ली छिप कर बैठी हुई थी। बिल्ली की पैनी नजर बुलबुल के बच्चे पर थी। बिल्लियों को पक्षियों का मांस खाना बहुत अच्छा लगता है। और यहां तो पक्षी के नन्हे बच्चे का स्वादिष्ट नाश्ता तैयार था। वह ललचाई नजरों से बुलबुल के बच्चे को लगातार देखे जा रही थी।

कृष्णा ने कहा, "इस बच्चे को ऊपर पेड़ पर रख देना चाहिए।" नहीं तो बिल्ली से जरुर खा जाएगी। लेकिन अलीना तो, उसे छूने से भी डर रही थी। 

कृष्णा ने एक कपड़ा लिया, और छोटे से बच्चे को सावधानी से उठाकर, पेड़ की डाली पर बिठा दिया। बुलबुल का जोड़ा यह सब देख रहा था। उनकी आवाज़ भी बंद हो गई थी। शायद उन्हें तसल्ली हो गई थी कि अब हमारा बच्चा सुरक्षित है। 

कृष्णा ने कहा, "अब ये बच्चे को उड़ा ले जाएंगे।" कृष्णा तो चली गई; लेकिन थोड़ी ही देर में बुलबुल के जोड़े का फिर से शोर आने लगा। 

रुद्रांश ने बाहर जाकर देखा, तो बिल्ली नीचे बैठी ललचायी नजरों से,  बुलबुल के बच्चे को देख रही थी। उसने तभी बिल्ली को डंडा मार कर भगा दिया। बुलबुल का जोड़ा, अपने बच्चे को, जल्दी से उड़ना सिखाना चाहता था। 

थोड़ी देर में, फिर से बुलबुल के जोड़े की, शोर मचाने की आवाज आने लगी। 

रुद्रांश समझ गया कि फिर से बिल्ली आई है। उसने कहा, मैं अपने पास डंडा रखकर, बाहर बालकोनी में ही बैठकर, होमवर्क कर लेता हूं। बिल्ली आएगी, तो उसे भगा दूंगा। तब तक शायद यह बच्चा भी उड़ना सीख जाएगा।" 

रुद्रांश के बाहर बालकोनी में बैठने पर, बुलबुल का जोड़ा निश्चिंत हो गया और बच्चे को उड़ाने की कोशिश करता रहा। बच्चा बार-बार डाली पर बैठा-बैठा पंख फड़फड़ाता, और फिर उड़ने की कोशिश करता। वह छोटी-छोटी उड़ान भर रहा था। 

बिल्ली भी बहुत दूर बैठी थी। वह रुद्रांश को देख रही थी; लेकिन उसकी पास आने की हिम्मत नहीं हो रही थी। अचानक वह तीव्रता से बच्चे के करीब आने की कोशिश करने लगी। फुर्ती से रुद्राक्ष ने उसे दूर से ही डंडा मारा। वह बहुत दूर भाग गई। उसके बाद, बुलबुल का जोड़ा अपने बच्चे को उड़ाने की कोशिश में लगा रहा। 

आखिरकार उन्हें सफलता भी मिल गई। बच्चा उड़ना सीख गया। वह थोड़ी दूर उड़ान भरकर, दूर वाले पेड़ पर जा बैठा। अब बुलबुल का जोड़ा बड़ा प्रसन्न था। उन्हें अंदाजा हो गया होगा, कि अब बच्चा उड़ान भर सकेगा। वह भी उसके साथ दूसरे पेड़ पर चले गए।

 रुद्रांक्ष घर में वापिस आ गया। लेकिन इसके बाद बुलबुल के जोड़े का कोई शोर नहीं सुनाई दिया। लगता था कि उनके बच्चे ने उड़ान भरनी सीख ली होगी। 

अगले दिन हमने कृष्णा को सारा किस्सा बताया, तो वह बहुत खुश हुई। उसने कहा, "चलो यह अच्छा है  कि बच्चे की जान बच गई, और उसने उड़ना भी सीख लिया।"

रुद्रांश बोला, "आंटी! मुझे थैंक्स दो। मैंने बच्चे को बिल्ली से बचाया। अगर मैं बच्चे को बिल्ली से न बचाता, तो वह बिल्ली तो बच्चे को खा ही जाती।"

 कृष्णा मुस्कुरा कर बोली, "थैंक्यू रुद्रांश!" 

आजकल वह बुलबुल का जोड़ा, फिर से शायद अंडे सेने में व्यस्त है।

Friday, August 16, 2024

रुक्मणी की बारहमासी

रुक्मणी जी के भाई रुक्मी ने उनका विवाह शिशुपाल के साथ तय कर दिया लेकिन रुकमणी शिशुपाल से विवाह नहीं करना चाहती थी क्योंकि वह बहुत ही अत्याचारी शासक था।

 तभी नारद मुनि ने रुक्मणी जी को बताया कि उन्हें तो कृष्ण जी ही पति के रूप में प्राप्त होंगे। अगर वह कृष्ण जी को किसी प्रकार अपना संदेश भिजवा दें तो वे स्वयं ही रुक्मणी जी से विवाह करके उन्हें साथ ले जाएंगे।

 इसके बाद जिस प्रकार जिस प्रकार से श्री कृष्ण और रुक्मणी जी का विवाह होता है; उसी का वर्णन इस रुक्मणी की बारहमासी में किया गया है। यह बारहमासी मैंने अनेकों बार अपनी मां के मुख से सुनी है। उन्होंने ही मुझे यह बारहमासी लिखकर भी दी। आप भी इसका आनंद उठाएं:


थी भीष्म के रुक्मणी, रूप में घनी, वेद में बनी,

 कि राजकुमारी

 वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी


 चित चैत में चिंता करे, धीर नहीं धरे, ना उन बिन सरे,

 जिया नित्य तरसे 

क्योंकर के मिलना होय श्याम सुंदर से

 गुरु के सुनकर में बैन, पड़े नहीं चैन, हमें दिन रैन,

 प्रीति है हरसे

 देखिए खबर कब लेंगे आन उधर से

 रुकमैया माने नहीं कहा, जरा नहीं दया, वगी हो रहा 

 मेरे ऊपर से

अब लगन लगा लिखा शिशुपाल को भेजा घर से

 मैं बिथा कहूं सुन लीजै, 

तन मेरा शौक में छीजै, 

अब आके दर्शन दीजै, 

सुध बेग हमारी लीजै, 

प्रभु अब विलंब न कीजै, 

तुम हो विपदा निवार, आप करतार, मेरे भरतार,

 तुम्हीं हितकारी

 वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी


मौसम आया वैशाख, हमें अभिलाष, तुम्हारी साख,

 सभी कोई माने

 मैं कहां तलक कहूं अगम निगम बखाने

 मेटो मेरी सब पीर, भई है भीर, धरूं  नहीं धीर,

 न दिल ठिकाने 

 मैं सुमिरन तेरा करूं मेरा जी जाने

 कहूं कासे मरम की बात 

कही नहीं जात 

नींद नहीं आत

 रहूं हैराने

 जिस पर भी तू बेदर्द, दर्द नहीं जाने 

 मेरे गुनाह कौन बदलाओ

 किस अवगुण से बिसराओ

 अब दीन जान परनाओ

 काहे को बाट दिखाओ

 काहे को देर लगाओ

 कारज करना महाराज, तुम्हीं ब्रजराज, आपको लाज,

 मेरी है सारी

 वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी


आया जी जेठ,भई नहीं भेंट, लगी असलेट

 कहां हो प्यारे?

 यहां हो रहे हाल बेहाल तुम्हारे मारे 

एक बूढ़ा ब्राह्मण जाय 

लिया बुलवाय 

पास बिठलाय 

कहा समझा रे

 द्विज जाओ द्वारिका, जहां रहे वंशी वारे

 मैं दूंगी द्रव्य अघाय, तू मत घबराय, यहां जब आय,

 निकट हमारे 

लग रह लग रहा अंदेशा बड़ा हमें उनका रे 

पौरुष इतना नहीं मेरे 

कारज को जाऊं तेरे

रस्ते में सिंह बघेरे 

कोई मार अकेला गेरे 

वहां प्राण बचे नहीं मेरे 

कल्पेगी ब्राह्मणी डेरे 

में क्योंकर जीता रहूं 

कहीं मर रहूं 

झूठ नहीं कहूं 

कि राजकुमारी 

वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी 


आशा करती आषाढ़, गले में झाड़, दिया क्यों छाड़ 

हमें मनभावन

 में दासी होकर लगी तुम्हारे दामन

 हो पतित उबारन आप

 नाम घनश्याम

 परम हो पावन 

मेरी नैया होगी तुमको पार लगावन

 मैं लिखूं नहीं ये पाती

 मेरे मन में यह आती

 मैं मंगा जहर ले खाती

 तुम बिन ना कोई साथी

 हर समय निपट घबराती 

कारज करना महाराज

 तुम ही ब्रजराज

आपको लाज 

मेरी है सारी 

वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी


सावन सुनिए नंदलाल

लेके शिशुपाल 

संग  भूपाल 

कुंदनपुर छाया

 यमराज सा मुझको लगे, काल चढ़ आया

घेरी है सिंह ने गाय

करो सहाय 

मेरा जी जाय 

तजूं मैं काया 

मेरी बालक हांसी कितनी बार लगाया 

जल में ग्राह ने गज ग्रसा

 देख कर दशा 

आप शरमाया 

निज भक्त जानकर पहुंचे आन छुड़ाया

 सावन बीता महीना 

हरी आए नहीं प्रवीना

 किस्मत मेरी है  हीना 

दुख कर्मों में लिख दीना 

यह विचार मैंने कीना 

दुष्कर मेरा है जीना

 मैं विपत मे बैठी भरूं 

आह क्या करूं?

 बिरह में जरूूं

 सबब तुम्हारे 

वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी


भादों में भारी मुझे, तपत नहीं बुझे, पीर सी उठे

 हमारे मन में 

फर्जंद नंद का बसे हमारे मन में

सिर हुआ फिरे शिशुपाल 

जाऊं नहीं नाल 

पड़ा है ख्याल

 पुरी कुंदन में 

जैसे ग्रस ले राहु केतु शशि को गगन में

 द्रोपदी का उतारा चीर 

ढापे शरीर

याद किया मन में 

वंशीवट होके बैठ बजावत बन में 

दुशासन खैंचत हारा

 ऐसा है नाम तुम्हारा 

द्रौपदी की ओर निहारा 

मेरा भी करो गुजारा 

जो होना हाल हमारा 

जो कुछ दिल का है सहारा

 मुश्किल है मुझको बड़ी 

देख इस घड़ी 

आन के पड़ी 

विपद है भारी 

वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी


मंसूबा किया कुँवार  

मन मे विचार 

हो के तैयार 

दिल में यह ठान कि शर्त उठाई 

चलूं द्वारिका द्विज ने दिल में यह ठहराई 

है साढ़े सात सौ कोस 

करें अफसोस 

हुआ खामोश 

अकल घबराई 

सो रहा तले तरुवर के नींद जब आई 

अंतर्यामी गए जान 

आप भगवान 

लिया पहचान 

करो सहाई

सोते को ले गए पल में कान्ह कन्हाई

 खुल गई जब आंख निहारे

 आ गया किस जगहां रे

 यहां सुंदर बने हैं द्वारे

 गज बंधे द्वार मतवारे

 द्विज फिरे पूछता सारे 

कहां रहें द्वारका वारे?

वो आप ही दीनानाथ 

पकड़ कर हाथ 

ले गए साथ 

भवन गिरधारी 

वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारे


कार्तिक करवा अस्नान

 बहुत सम्मान

 किये पकवान अधिक बनवा के 

कंचन के थाल में धर दिए आगे लाके

 कचरी, पापड़, तिरखूंट

 पकौड़ी सूंठ 

अधिक बनवा के 

खुश हुआ ब्राह्मण अपने जी में खाके

मेवा मोदक घी डाल

 किये तत्काल 

सुबक सुहाल 

मधुर पकवा के 

नाना विधि के व्यंजन बहू भांति बनाके 

झारी जल की भर लावैं 

दो अहरी हाथ धुलावैं

 मन में अपने मुस्कावैं

 तुम लायक ना शर्मावैं

द्विज मन में हुआ मगन 

लगी जब लगन 

मिट्टी सब थकन 

लई दक्षिणा री

 वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी


मंगसिर में मन लग रहा 

ब्रह्म कह रहा 

आपसे कहा रुक्मणी जी ने 

शिशुपाल नहीं दे ठंडा पानी पीने 

बेमुख होकर ढह करे

निडर नहीं डरे 

टारा नहीं टरे

 रहम नहीं चीन्है 

बरजोरी होकर मांग तुम्हारी छीने 

मन लगा थारी शरण 

पालना प्रण

 गहे थे चरण 

सभी तज दीने 

ब्रत जप मैंने तेरे कारण कीने

 बांचे हरी आंसू जाना

 लेकर कर में परवाना

 सारथी बेगि रथ लाना 

जाओ मत देर लगाना 

कुंदनपुर कियो पयाना 

रुक्मण को दिखावे खड़ी 

बारात उस घड़ी 

कहें सब नर नारी

वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी


पौह में पूछे बलराम 

कहां गए श्याम 

कौन से धाम 

हमारे भाई 

बदलाओ द्वारिका में नहीं देत दिखाई 

इतनी सुन बोले ग्वाल 

सुनावें हाल 

गए गोपाल 

कहें समझाई

एक ब्राह्मण ले गया अपनी गैल कन्हाई

 लाया शिशुपाल बारात 

जरासंध साथ 

हुआ सल्लाही

जहां पड़ा कटक दल, हरि से होय लडाई 

बलराम बली बुलवावैं

हाथी घोड़े सजवावैं 

यादव वंशी सब आवैं 

कई लाख गिने नहीं जावैं 

कुंदनपुर को उठ धावैं

रुक्मण को अंदेशा जब्र

करो जा खबर

होय जो सब्र 

विप्र भेजा री 

वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी


 माह का नीका है मास 

मन की हुई आस

 मैं उनकी दास 

मोहन मन आए

शिशुपाल के योद्धा थे जितने घबराए 

रुक्मण की बैठी मात

बताओ बात 

किसने बहकाए

यह यादव वंशी किस कारण बुलवाए 

है धेनु चरावन हार 

न जाने सार 

डोले गंवार

कहो क्यों आए 

हम राजा यह अहीर ही कहलाए 

अब यतन कौन सा कीजै

 रुक्मण यह किसको दीजै

 अपना किसको कर लीजै 

दोनों में किसको दीजै 

रुक्मण की जननी कहे 

गम में दिन ढहे 

क्योंकर बिन रहे 

कंथ हमारी

वर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी


फागुन फिर फूली अंग

 सखी लाई संग

 अजब एक ढंग

 से रुक्मण बाई

पूजने अंबिका मंगल गाने आई 

शिशुपाल यह सुनकर शोर 

जतावे जोर 

खड़े चहुं ओर

किए सिपाही 

चौकस रहना नहीं आने पावे कन्हाई 

रुक्मण मांगे वरदान 

मिले पति कान्ह 

वह हैं भगवान 

कहें कन्हाई 

पूजन करने देवी का बाहर आई

 रथ में रुक्मण गोपाला

ले चले भवन नंदलाला 

चुप बैठी रुक्मण बाला

 हरि ने जब चाब संभाला

मत मारो तुम्हारा साला 

मूछा मूंडी जब खड़ग

रथ से दिया जकड़ 

जाती रही अकड़

हुआ चुपकारी 

बर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी


लगा लोंद महीना आना

पहुंचे अस्थाना 

दिल में यह ठाना लग्न दिखलाया 

सुंदर मंडप विधि से प्रजा ने बनाया 

गांव में नारी सब गीत 

मोहन की प्रीति

करें कुल रीति

सभी मन चाहा 

छवि देख सांवरा सबके मन को भाया 

ले ब्राह्मण शाखाचार 

वेद विचार 

करें उच्चार 

विवाह करवाया 

रुक्मण ने मन का मनोरथ पाया 

सब दयाल सिंह को जाने 

शक्ति है जिनके वाने 

मैं कहूं सुनो घर ध्याने 

उस्ताद उन्हीं को माने 

निगुरे नर होय खिसाने

मूर्ख नर क्या पहचाने 

मैं कहूं सुनो घर ध्याने 

रुक्मण का मंगल गाय 

कहूं समझाय 

शंभू बराह 

बारा मासा री 

बर दिया नारद मुनि ने कृष्ण मुरारी


Tuesday, August 6, 2024

समोसा चोर!

 पंचमढ़ी, मध्य प्रदेश के खूबसूरत स्थान में से एक प्रसिद्ध स्थान है। 

"इस बार पंचमढ़ी घूमने के लिए चलते हैं।" ऋचा ने सुझाव दिया।

 "अरे वाह! यह तो बहुत अच्छा आईडिया है। वहां मौसम भी बहुत अच्छा है; और नजारे भी। चलो पंचमढ़ी ही चलेंगे" रैना बोली। संदीप ने सहमति दी और उत्कल भी तैयार हो गया।

 चारों मित्र, अपने बच्चों रुद्रांश और वेदांश के साथ पंचमढ़ी पहुंच गए। वास्तव में ही बहुत सुंदर जगह है पंचमढ़ी। होटल में अपने कमरों मे अपना सामान रखने के बाद इन लोगों ने कुछ नाश्ता लिया। चाय पानी पीने के बाद सभी बाहर के नजारे देखने के लिए निकल पड़े। रास्ते में एक जगह पर कुछ लोग बेर बेच रहे थे। बहुत मीठे और स्वादिष्ट बेर प्रतीत हो रहे थे। सभी ने एक-एक छोटा पैकेट बेर लिए और पैदल ही, प्राकृतिक दृश्य का मजा लेते हुए चलने लगे। 

अचानक रास्ते में उन्हें कुछ बंदर मिले। इनमें से एक बंदर बडे ध्यान से इन्हें देख रहा था। उत्कल ने एक बेर उसकी तरफ फेक लेकिन उसने वह बेर नहीं उठाया। वह उत्कल की तरफ बढ़ आया और दोनों हाथ फैला दिए। ऐसा लग रह रहा था, मानो कह रहा हो,  "देने हैं बेर; तो पूरा पैकेट ही दे दो ना! एक एक बेर क्यों दे रहे हो?" 

उत्कल ने पूरा पैकेट उसे पकड़ा दिया। वह दूर चला गया वहां बैठकर उसने सारे बेर खा लिए। और बाद में नीचे पड़ा हुआ बेर भी उठा कर खा लिया; जो कि उत्कल ने सबसे पहले दिया था।

 एक बंदर ने संदीप के हाथ से पानी की बोतल छीन ली। उसने बोतल का ढक्कन नहीं खोला; बल्कि बोतल के नीचे दांतों से छेद किया और फिर पानी पीया।

 थोड़ा बहुत घूमने के बाद ये सभी अपने होटल वापस चले। रास्ते में एक दुकान से हल्दीराम के छोटे-छोटे समोसे भी खरीद लिये। ऋचा ने एक दर्जन केले भी ले लिए।

 होटल के कमरे में जाकर उन्होंने मेज पर समोसे और केले रख दिए। कमरे में एक बड़ी सी खिड़की थी। रुद्रांश ने पूरी खिड़की खोल दी। खिड़की से मजेदार ठंडी हवा आ रही थी। सामने ही बड़ा सा पेड़ था। उसकी डालियों पर कई बंदर भी बैठे थे। ऋचा, उत्कल और रुद्रांश आराम से कुर्सियों पर बैठ गए और टीवी का स्विच ऑन किया।

 तभी बिजली की फुर्ती से एक बंदर खिड़की के अंदर आ गया। उत्कल ने तुरंत उसे भगाया। फिर उन्होंने सारा सामान चैक किया कि कहीं बंदर कुछ ले तो नहीं गया? चश्मा, घड़ी, पर्स, केले सभी वस्तुएं सुरक्षित थी। सभी निश्चित हो गए कि बंदर कुछ नहीं ले गया है। रुद्रांश ने कहा, "खिड़की बंद कर देनी चाहिए। कहीं फिर बंदर आ गए तो?"

 वह खिड़की का दरवाजा बंद करने गया, तो सामने पेड़ पर नजर गई। वह बंदर हाथ में हल्दीराम का थैला लिए बैठा था। और उसमें से समोसे निकाल-निकाल कर खा रहा था। तीनों को बहुत हंसी आई। रुद्रांश ने रैना, संदीप और मेदांश को भी बगल वाले कमरे से बुलाकर, यह दृश्य दिखाया। उन  तीनों को भी यह दृश्य देखकर बहुत मजा आया। 

मेदांश अचानक बोल उठा, "समोसाचोर बंदर! हमारे समोसे वापस कर।"

उसकी नटखट अभिव्यक्ति का अलग अंदाज देखकर सब मुस्कुरा उठे।


Saturday, August 3, 2024

साठ के ठाठ!

साठ को पार किया, 

जीवन संग्राम जिया

थोड़ी धूप बाकी है,

छांह का आनंद लिया 


देहरी पर छाया है

झूठी सब माया है

देहबोध जागा अब,

सत्य, स्वस्थ काया है 


बेसुध सा बीता कल 

खोए से सिमटे पल 

अनुभव दे लुप्त हुआ, 

अतीत आंखों से ओझल 


अब कोई चाह नहीं

कोई परवाह नहीं

जागा प्रसुप्त हृदय 

चुन ली है राह नई 


बंधन से मुक्त समय 

जीवन में स्वप्न विलय 

कल्पना है कोरी सी 

छंदों के बंध अभय


जीवन में हो प्रवाह 

होगा तब शून्य दाह 

चिंता, भयमुक्त हृदय; 

भर देगा नव उछाह


जीवन अब एक पाठ

उम्र है जब साठ आठ 

उन्मुक्त, निर्मल तन-मन; 

भर देंगे आनंद ठाठ!

Thursday, August 1, 2024

तुम्हारा इंतजार है!

  "कल रविवार है। प्लीज, आप मेरे घर आइए न! मम्मी ने भी आपको बुलाया है।"रश्मि बहुत आग्रह पूर्वक मुझे अपने घर ले जाना चाहती थी।

 रश्मि, ऋचा के साथ एमडीएस की पढ़ाई कर रही थी। रश्मि बेंगलुरु में ही रहती थी। वह कन्नड़ थी। मैं छुट्टियों मे ऋचा के पास पी जी हॉस्टल में रहने गई हुई थी। उन दिनों मेरा पुत्र, अंकित भी अमेरिका से आया हुआ था। वह बैंगलुरु में, हमारे साथ ही हॉस्टल में ठहरा हुआ था। 

 इतने प्यार से वह बुला रही थी, कि मैं मना न कर पाई। फिर मुझे कन्नड़ परिवार का रहन-सहन और खान-पान देखने की उत्सुकता भी थी। हमने निर्णय लिया कि प्रातः काल का नाश्ता उन्हीं के घर पर करेंगे।

 बहुत सादगी से परिपूर्ण वातावरण था, उनके घर का। उनके पिता उच्च सरकारी पद पर नियुक्त थे। लेकिन उनमें रत्ती भर भी अभिमान न था। रश्मि की मां ने नाश्ते में जो स्वादिष्ट इडलियां खिलाई; उनका तो जवाब ही नहीं! बिल्कुल रुई जैसी नरम इडलियां, मजेदार चटनी और सांभर! उसके बाद फिल्टर कॉफी की चुस्कियां ली। खूब गपशप की और वापस हॉस्टल आ गए।

 एमडीएस की पढ़ाई में एक बैच में तीन छात्र-छात्रा ही होते हैं। तीन वर्ष की पढ़ाई में वे अच्छे मित्र भी बन जाते हैं। रश्मि और   ऋचा के अतिरिक्त, अविनाश नाम का छात्र भी, इनका सहपाठी था। बेंगलुरु से जब मेरा वापस आना हुआ; तब भी रश्मि मुझसे मिलने आई थी। उसने मुझे तिरुपति जी की प्रतिमा उपहार में दी थी; जो आज भी मेरे पास है।

 अचानक सोलह वर्ष बाद रश्मि का फोन ऋचा के पास आया। "मेरी दिल्ली में पोस्टिंग हो गई है। मैं तुझसे मिलने आ रही हूं।" रश्मि ने अंग्रेजी में कहा। रश्मि कन्नड़ या अंग्रेजी भाषा बोलना ज्यादा पसंद करती है।  

ऋचा तो हैरान हो गई यह सुनकर, कि रश्मि की पोस्टिंग दिल्ली में हो गई है!

 "अरे! तू दिल्ली कब आई?"

 "अभी एक महीने पहले मैंने ज्वाइन किया है। इस रविवार को आती हूं, तेरे घर। ठीक है?"

 "हां। हां। जरूर!"

 ऋचा ने यह तो सुना था, कि रश्मि ने एमडीएस की पढ़ाई के बाद प्रेक्टिस नहीं की। उसने अपने पति के साथ ही आई ए एस की परीक्षा की तैयारी की थी। यद्यपि वह एक बच्ची की मां भी बन चुकी थी। फिर भी, उसने बहुत परिश्रम से पढ़ाई की और आई ए एस  की परीक्षा पास कर ली। उसके पति ने उसके भी अगले वर्ष यह परीक्षा पास की। लगभग दस वर्ष बेंगलुरु में ही उसकी नौकरी थी।

 अब उसकी पदोन्नति होनी थी। इसलिए उसे दिल्ली में पोस्टिंग लेनी थी। जब वह अपने विभाग से भली भांति परिचित हो गई और कुछ खाली समय मिला, तो उसे ऋचा की याद आई। अविनाश के पास ऋचा का फोन नंबर था। उसने अविनाश से ही फोन नंबर लेकर ऋचा से बात की।

 पहले तो रश्मि ने सोचा कि वह दोपहर को हमारे घर आएगी। लेकिन आई ए एस  पदाधिकारी की कभी भी मीटिंग हो जाती है। उसकी शाम को कोई जरूरी मीटिंग थी। इसीलिए उसने सुबह हमारे यहां आने का प्रोग्राम बनाया।

 रश्मि को देखकर लगा ही नहीं कि वह बदल गई है। बिल्कुल पहले जैसी ही लग रही थी। उसने सूट सलवार और चुन्नी पहनी पहनी हुई थी। बिल्कुल सादगी से भरपूर थी वह!

 "अरे बेटा रश्मि! तुम बिल्कुल ही पहले जैसी ही लग रही हो। कितना अच्छा लग रह रहा है तुमसे मिलकर! कितने वर्षों के बाद मिले हैं हम।"

 "हां आंटी! मेरी लाइफ तो बहुत ज्यादा बिजी हो गई है। लेकिन मिलने का बहुत मन था।" रश्मि भी भाव विभोर थी। 

उसके बाद तो बातों का सिलसिला जो चला तो बस चलता ही गया। कितनी पुरानी बातें, बीती यादें, दोनों सहेलियों ने मन में संजोई हुई थी। खूब ठहाके लगे। दोनों ने मिलकर अविनाश को वीडियो कॉल भी कर लिया। आपस में बहुत मजे किए तीनों ने! खूब हंसे, और एक दूसरे की खिंचाई भी की।  

अविनाश ने मुझसे भी बात की। वह मेरे द्वारा बनाए परांठों की प्रशंसा कर रहा था। मैंने उसे बताया कि आज भी लंच में पराठे ही बनाए हैं। बहुत सादा लंच था। परांठे, आलू की सब्जी और खीर। लेकिन रश्मि तो वह खाकर बहुत खुश हो गई। उसने बताया कि वह नाश्ते में इडली पोहा, और डिनर में रागी और सांभर खाती है। रश्मि के पास बहुत से नौकर हैं। उसे बहुत सुविधाएं हैं। लेकिन कैबिनेट मिनिस्टर कभी भी मीटिंग के लिए बुला लेते हैं। उसने यह भी बताया, कि कुछ दिनों में उसको सरकारी आवास मिल जाएगा। तब वह हमें अवश्य बुलाएगी।

फिर, उसने ऋचा से भी, उसके कार्य के बारे में पूछा। वह हैरान हुई, ऋचा के मरीजों की संख्या सुनकर! ऋचा की योग्यता के बारे में तो रश्मि पूर्णतः अवगत थी। यद्यपि पाठ्यक्रम में निपुणता हासिल करना भी बहुत महत्वपूर्ण है; लेकिन दक्षता और कौशल के आधार पर अपनी साख बनाना, वाणिज्यिक जीवन का, बिल्कुल अलग पहलू है। वास्तविक धरातल पर अपना प्रभाव क्षेत्र स्थापित कर लेना, सरल नहीं होता। वह, ऋचा से थोड़ी बहुत, ईर्ष्या भी कर रही थी; क्योंकि जिस विद्या में वह निष्णात थी, उसका वह अधिक लाभ प्राप्त नहीं कर सकी थी।

 रुद्रांश ने, रश्मि को गिटार पर, गाने की धुन सुनाई, तो उसे बहुत मजा आया। उसे वापस जल्दी ही जाना था; क्योंकि अगली मीटिंग के लिए उसे काफी पढ़ाई भी करनी थी। उसने फिर आने का वायदा किया, और रुद्रांक्ष को प्यार किया। मीठी यादों में हमें डुबोकर, वह वापस चली गई।

 रश्मि! हम सब तुम्हारा इंतजार करेंगे!