एक जिज्ञासा, कि चक्रव्यूह क्या है?
मनमोहक आकर्षण कि,
क्या अवस्थाएं हैं?
क्या व्यवस्थाएं हैं?
देख कर करने की चाह,
आनंदित होने का भाव
सीखा किसी छद्मगुरू से,
व्यूह भेदने का दाव।
अभिमन्यु नवयुग के!
उत्साह भरे कलयुग के!!
विडंबना यह कि
घिर गए व्यूह में,
और इतराते भी हो!
रोमांचित हो पल-पल,
आनंद गीत गाते हो!
तुम्हारी उत्सुकता,
कब बन गई विवशता?
इसका तुम्हें भान ही नहीं!
यहीं अज्ञान है कहीं।
यह कैसा बुद्धि भेद है?
व्यूह क्योंकर अभेद है?
पिंजरे में बंद पंछी!
बेसुध से सोए हो
भ्रम में कहीं खोए हो
चलो उठो, चेतना जगाओ!
व्यूह तोड़ बाहर आओ।
ओ चतुर अभिमन्यु!
यह संभव है,
असंभव नहीं।
सोचो, विचारो
यूं ही मत हारो।
चक्रव्यूह में घुटन है,
आनंद नहीं।
बुद्धि को घुमाओ,
स्वाभिमान जगाओ,
व्यूह से पार पाओ,
और बाहर निकल आओ।
जहां हवा स्वतंत्र है,
वहीं तो आनंद है।
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