Thursday, June 27, 2024

दोगुनी मिठास!

 "मां! यह वीडियो तो बहुत अच्छा है।" पुष्पा बोली। 

"सारा दिन फोन हाथ में रहता है। बस, वीडियो देखती रहती है। कुछ काम भी कर लिया कर कभी!" उसकी मां ओमवती ने उसे फटकारा।

 "नहीं मां! ऐसा नहीं है। कई वीडियो बड़े काम के होते हैं। देखो तो! इस वीडियो में आम पापड़ बनाना सिखाया है। बड़ा ही आसान है, आम पापड़ बनाना।"

 "तुझे कुछ काम तो है नहीं। अब आमपापड़ के सपने लेती रह! मैं जा रही हूं सब्जी लाने के लिए। बाहर से सूखे कपड़े उतार ले। बारिश आने वाली है।" कह कर ओमवती बाजार चली गई।

 बाजार में एक ठेले पर, बहुत बढ़िया आम, बड़े ही कम दामों पर मिल रहे थे। ओमवती ने दो किलो आम खरीद लिए। और बाकी सब्जियां लेकर घर वापस आई। पुष्पा ने थैले में आम देखे, तो वह खुश हो गई। बोली, "मां! एक दो आम का आम पापड़ बनकर देख लूं। क्या पता, सचमुच आम पापड़ बन ही जाए।"

 "तू रहने ही दे। आम बेकार जाएंगे। कोई फायदा नहीं होगा। छोड़ इस झंझट को। चुपचाप आम और सब्जियां फ्रिज में रख दे। और मुझे एक गिलास पानी पिला दे। बहुत गर्मी थी, बाहर।" ओमवती पसीना पहुंचती हुई कुर्सी पर बैठ गई।

 पुष्पा भी हार मानने वाली नहीं थी उसने बार-बार आग्रह करके ओमवती को दो आमों का आम पापड़ बनाकर देखने के लिए, राजी कर ही लिया। आमों का गूदा निकाल कर, उसमें चीनी मिलाई, और गैस पर थोड़ी देर पका दिया। जैसे ही गूदा गाढ़ा होने लगा, उसने उसे चिकनाई लगी हुई प्लेट में डाल दिया, और फैला दिया। 

ओमवती को पक्का यकीन था, कि यह गूदा ऐसे ही पड़ा रहेगा। पुष्पा से वह बोली, "चल रख दे इसे एक तरफ। कल इस गूदे को प्लेट से उतारकर आमरस बना लेंगे।"

 पुष्पा ने विश्वास से कहा, "नहीं मां! वीडियो में तो इसी गूदे से दो दिन बाद आम पापड़ बना हुआ दिखाया था।"

 "हां! हां! ठीक है। देख लेंगे। अब तू फोन एक तरफ रख। शाम के खाने की तैयारी भी करनी है।" ओमवती रसोई में चली गई।

 पुष्पा में प्लेट पंखे के नीचे रखी; जिससे की प्लेट पर पूरी हवा लगती रहे। रात को पुष्पा को देर से नींद आई। वह सोच रही थी कि सवेरे प्लेट में आम पापड़ बन पाएगा या नहीं। और आम पापड़ बना तो वह कैसा होगा? क्या वह वीडियो में दिखाए गए अनुसार ही होगा या कुछ अलग! सोचते सोचते उसे नींद आ गई। 

पुष्पा सवेरे बहुत जल्दी उठ गई। उसने उठकर सबसे पहले प्लेट को देखा। उसकी सतह छूकर उसे लगा कि वह सूख चुकी है। वह रसोई से एक चाकू लाई। वीडियो की तरह उसने किनारे से आम पापड़ को प्लेट से अलग करने का प्रयास किया। वह हैरान हो गई। सचमुच, आम पापड़ किनारों से, इस प्रकार उतर रहा था; जैसा की वीडियो में दिखाया गया था।

 धीरे-धीरे उसने पूरा आम पापड़ प्लेट से उतारा, और दोनों हाथों से पकड़ लिया। वह आम का पापड़ ही था! पतला सा, आम पापड़! वह खुशी से नाच उठी। उसने ओमवती को जगाया। 

"मां! देखो! आम पापड़ बन गया।"

 ओमवती की नींद खुली। वह बोली, "क्या हुआ? क्यों जगाया?"

 पुष्पा ने दोनों हाथों में आम पापड़ पकड़ा और मां के सामने ले आई। "अरे पुष्पा! यह तो आम पापड़ बन गया। इतना आसान होता है क्या, आम पापड़ बनाना?" ओमवती बहुत आश्चर्य से पुष्पा और आम पापड़ को देख रही थी। 

"हां मां! वीडियो में यही तो दिखाया था कि, आम पापड़ बनाना इतना आसान है।" पुष्पा ने कहा और ओमवती के मुंह में आम पापड़ का छोटा सा टुकड़ा डाल दिया।

 "यह तो बहुत स्वादिष्ट है। इसमें दोगुनी मिठास है। आमों के साथ, तेरी मेहनत की भी तो मिठास है।" ओमवती बहुत खुश थी ।

"मां! मैं सभी आमों का आम पापड़ बना लूं?" पुष्पा चहकी।

 "हां! हां! क्यों नहीं। ऐसी दोगुनी मिठास वाले आम पापड़ तो खुद भी खाएंगे; और सब को भी खिलाएंगे।" ओमवती ने पुष्पा की पीठ थपथपाई।

Monday, June 17, 2024

वैराग्य और आनंद

 सुनीता किचन में इडली बनाने की तैयारी कर रही थी। तभी आभा का फोन आया। "सुनीता! मैं इडली की चटनी बना रही हूं। तेरी इडली तैयार हो गई क्या?"

 "अरे नहीं! अभी बस शुरू ही कर रही हूं। 20-25 मिनट ही लगेंगे। हां, कंचन का फोन आया था। वह भल्ले तैयार कर चुकी।"

 "ठीक है।" आभा ने कहा, "आधे घंटे में हम टैक्सी बुला लेते हैं। मैं कंचन को भी बता देती हूं।" आभा ने फोन रख दिया और फटाफट चटनी बनाने लगी।

 इन तीनों सहेलियां ने आज इंडिया गेट जाने का प्रोग्राम बनाया था। हर महीने ये तीनों, किसी जगह पर, घूमने का कार्यक्रम बना लेती थीं। और फिर पूरा दिन मजे करती। शाम को घर वापस आ जाती थीं। वैसे रोज-रोज फोन पर, या व्हाट्सएप पर, गुफ्तगू तो हो जाती थी। लेकिन इकट्ठे मिलकर मस्ती करने का कुछ अलग ही मजा था। तीनों सहेलियां वरिष्ठ नागरिक थी। जी हां! तीनों रिटायर हो चुकी थी। अब उन्हें और कुछ विशेष कार्य तो था नहीं। सो हंसी-खुशी जीवन का आनंद ले रही थी। ऐसा नहीं था कि उन्होंने सेवानिवृत्ति से पहले ही यह योजना बना ली थी। परंतु, उनकी परिस्थितियों के कारण ही कुछ ऐसा  हो गया था। 

बहुत दिन पहले,  तीनों एक ही विद्यालय में अध्यापिका के पद पर कार्यरत थीं। सुनीता का एक बेटा था। वह पढ़ लिखकर इंजीनियर बनना चाहता था। वह बहुत देशभक्त था। वह भारत देश के बाहर तो कतई नहीं जाना चाहता था और देशभक्त होने के साथ-साथ मातृभक्त भी था। मां से बहुत लगाव था उसे! धीरे-धीरे समय बीता। वह इंजीनियर बन गया। उसकी बहुत अच्छी नौकरी भी लग गई। लेकिन दो-चार वर्ष बीतते तक, उसने देखा कि, उसके बहुत से मित्र विदेश चले गए। और वहां बहुत अच्छी तनख्वाह पर, उन्हें नौकरी मिल गई। उसने सोचना शुरू किया कि,  ज्यादा देशभक्त होना अच्छा नहीं। उसने भी विदेश में नौकरी ढूंढनी शुरू की।

 उसे स्विट्जरलैंड में बहुत अधिक तनख्वाह पर एक नौकरी मिली। काम भी उसका मन पसंद था। सुनीता ने थोड़ा बहुत विरोध तो किया; लेकिन अंतत उसका बेटा स्विट्जरलैंड चला ही गया। और वहीं रहने लगा। कंपनी में काम करते-करते, स्विट्जरलैंड की ही एक लड़की, उसकी मित्र बन गई। सुनीता के बेटे को वह इतनी अच्छी लगी कि उसने, उसके साथ विवाह करने का निर्णय कर लिया। सुनीता को यह निर्णय पसंद नहीं आया। लेकिन उसके बेटे ने मातृभक्ति की कोई परवाह न की और उससे विवाह कर लिया।

 प्रारंभ में तो उसके बेटे बहु वर्ष दो वर्ष में उसके पास ठहरने भी आते थे। लेकिन विदेशी बहू और सुनीता का तालमेल कुछ अधिक दिन तक नहीं चला। सुनीता का मन इस बात से बहुत परेशान रहता। जब तक नौकरी रही, तब तक तो फिर भी सुनीता ने जिंदगी गुजार ली। लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद जीवन दूभर हो चला। इस समय उसकी बातचीत आभा से कुछ अधिक होने लगी। खाली समय में फोन पर गपशप करने से समय बीत जाता था।

 बातों बातों में सुनीता को पता चला कि आभा भी जीवन में बहुत खुश नहीं है। आभा का बेटा था टुन्नू। टुन्नू, का जन्म आभा के विवाह के सात वर्ष बाद हुआ था। इतनी कठिनाई से प्राप्त संतान पर,  आभा जान छिड़कती थी। उसकी जुबान पर टुन्नू- टुन्नू ही रहता था। टुन्नू बडा हुआ  तो पढ़ लिख कर फिजियोथैरेपिस्ट बन गया।

 टुन्नू ने आभा को बताया कि भारत में तो फिजियोथैरेपी का कोई खास महत्व नहीं है। उसका एक दोस्त लंदन जा रहा है। वहां फिजियोथेरेपी के डॉक्टर को बहुत ज्यादा तनख्वाह मिलती है। और वहां सम्मान भी ज्यादा है। आभा ने टुन्नू को लंदन जाने के लिए बहुत मना किया। वह आभा की आंख का तारा था। लेकिन टुन्नू ने तो जिद पकड़ ली। वह लंदन चला गया और वहां नौकरी करने लगा। आभा के भी लंदन के कई चक्कर लगने लगे। टुन्नू  भी भारत आता जाता रहता।

 फिर आभा ने, अपनी जानकारी में, एक सुशील लड़की ढूंढकर, टुन्नू का विवाह कर दिया। शादी के एक-दो साल तक तो आभा  लंदन जाती रही। टुन्नू भी आता रहा। लेकिन बाद में टुन्नू की पत्नी की नाराजगी के चलते, यहां आना जाना कम हो गया। इन्हीं दिनों आभा के पति को कैंसर से मृत्यु हो गई।  पति की मृत्यु के बाद तो आभा जैसे टूट ही गई। टुन्नू पत्नी को नाराज नहीं कर सकता था। इसीलिए वह भी आभा के पास कम ही आता जाता था।

 एक दिन अचानक टुन्नू का फोन आया कि उसकी पत्नी नहीं चाहती कि वह लंदन आए। और ने ही वह चाहती है कि टुन्नू आभा से मिले। इसलिए अब वह कभी भी भारत नहीं आएगा। आभा पर तो जैसे पहाड़ ही टूट पड़ा। वह पति की मृत्यु से तो परेशान थी ही; साथ में टुन्नू का व्यवहार भी असह्य हो चला था।

 सुनीता से फोन पर, अपने मन की बातें साझा की; तो उसे पता चला, कि सुनीता भी बहुत परेशान है। दोनों ने मिलने का कार्यक्रम बनाया। और गाया बगाया, एक दूसरे के घर जाने लगी अपने मन की व्यथा सुनाती, तो मन का बोझ हल्का हो जाता था। 

 एक दिन कंचन आभा के घर आई। आभा को बहुत अच्छा लगा। उसने बताया कि सुनीता और वह तो कभी-कभी मिलते रहते हैं। और अपने दुख सुख बांट लेते हैं। अचानक कंचन की आंख में आंसू आ गए। वह बोली, "मैंने विवाह न करने का फैसला इसलिए लिया था कि अविवाहित रहकर मैं सुखी रह पाऊंगी। मैं स्वतंत्र रहूंगी। और कोई भी मुझे कुछ नहीं कह पाएगा। लेकिन सेवानिवृत्ति के बाद तो मेरा जीवन नर्क बन चुक चुका है। 

जिस  भतीजे पर, जिंदगी भर मैं जान छिड़कती रही, वे उलटे जवाब देता है। बात बात में गुस्सा दिखाता है। जब तक भतीजे का विवाह नहीं हुआ था; तब तक बुआ जी से वह बहुत प्यार करता था। लेकिन विवाह होने के बाद उसे अपनी बुआ की कतई परवाह नहीं है। भाई-भाभी काफी बूढे हो चुके हैं। भतीजा अपनी मनमानी करता है। और उसकी पत्नी तो,  मेरे अविवाहित रहने पर, कटाक्ष भी करती रहती है। अब तो मैं एक अलग कमरे में रहती हूं। और अपना खाना अलग बनाती हूं। बहुत अकेला जीवन हो गया। किससे अपने दुख सुख बांटू?"

 आभा ने अपनी और सुनीता की सब व्यथा  कंचन को सुनाई।  वह बहुत हैरान हुई। उसने सोचा ना था, कि कंचन और आभा के साथ भी किस्मत ने खिलवाड़ किया है।  अब तीनों ने आपस में बातचीत की। और निर्णय लिया कि दुखी मन लेकर जीवन बिताना कोई समझदारी नहीं है।

 सुनीता ने किसी धार्मिक संस्था में जाना शुरू किया था। उसने कहा कि, प्रसन्न रहने के लिए जरूरी है कि सब कुछ भूल कर स्वयम् में स्थित हो जाओ। तभी स्वस्थ रहोगे। आभा बोली,  "हां भई! अपनी सेहत का ध्यान तो रखना ही पड़ेगा। नहीं तो जीवन दूभर हो जाएगा।"

 कंचन बोली, "हमारे ऊपर कोई जिम्मेदारी तो है नहीं। हमें चाहिए, जो हमारा मन करे, हम वही करें। घूमें, फिरें,नाचें,गाएं मजे में खाएं-पीएं।"

 सुनीता बोली,  "मुझे तो एक आईडिया आ गया। क्यों ना हम, कभी-कभी घूमने फिरने जाए और मौज मस्ती करें। कंचन बोली,  "हर महीने में एक दिन प्रोग्राम बना लेते हैं। कभी घर से खाना बनाकर ले आएंगे; कभी बाहर भी खा लेंगे। पूरा दिन मस्ती करेंगे, फोटो खींचेंगे, और शाम को घर वापस आ जाएंगे। आभा ने कहा, "यह बढ़िया रहेगा। हमें नए-नए अनुभव होंगे, जिन्हें हम आपस में, और अपनी सहेलियों में साझा करेंगे। इससे हम अपने पिछले कटु अनुभव भी भूल सकेंगे। जिनसे हमें बहुत अधिक राग था; उनसे वैराग्य हो सकेगा।"

"वाह! क्या शब्द निकला!" सुनीता बोली। "वैराग्य! ठीक ही तो है। राग का न होना ही तो वैराग्य है। हम परेशान भी इसी अधिक राग के कारण ही तो थे।  अब तो वैराग्य और आनंद दोनों ही प्राप्त हो सकेंगे।"

और वास्तव में भी, उन तीनों को जीवन में अपनों से, वैराग्य के बाद, वास्तविक आनंद की अनुभूति होने लगी।

Friday, June 14, 2024

मोह की परतंत्रता!

 किशन चंद अपने पुत्र माधव से अथाह प्रेम करता था।  वह उसके मोह में लगभग अंधा ही था। माधव शहर में पढ़ने के लिए गया; तब भी वह यही चाहता था कि माधव गांव में खेती-बाड़ी करे। कुछ कारोबार कर ले, पर शहर में न जाए। परंतु माधव तो शहर की चकाचौंध से बहुत आकर्षित था।

 उसने शहर में रहकर पढ़ाई की। फिर उसकी नौकरी भी शहर में लग गई। उसका विवाह भी हो गया था। उसकी पत्नी रजनी भी एक कंपनी में नौकरी करती थी। रजनी कुछ अजीब प्रकृति की लड़की थी। उसे ऐशो आराम पसंद था। काम को वह हाथ भी नहीं लगाना चाहती थी। सज-धज कर ऑफिस जाती;  और वापस आने पर आराम फरमाती। घर के कामों को कौन करें; इस विषय पर दोनों में नोंक झोंक होती रहती थी। 

माधव के दो बच्चे भी हुए। तब माधव की मां कुंती ने घर को पूरी तरह संभाला। घर को संभालना रजनी को इतना पसंद आया कि वह सोचने लगी कि इन्हें अपने साथ ही रख लेते हैं। उसने अपने मन की बात माधव को कही। उसने माधव से आग्रह किया कि वह अपनी मां को शहर में अपने साथ रख ले। 

माधव अपनी मां के पीछे पड़ गया कि वह उनके साथ शहर में ही रह जाए। माधव की मां कुंती बहुत सीधी और परिश्रमी महिला थी।  लेकिन उन्हें अपना गांव ही पसंद था। शहर में वह परेशान हो जाती थी। फिर गांव में अपने पति की देखभाल अपने घर की जिम्मेदारी सब उसी के ऊपर थी। कुंती ने यह भी समझ लिया था कि उसकी बहू रजनी कामचोर है। वह उसको अपनी नौकरानी के रूप में देख रही है। इस बात को समझते हुए उसने माधव के पास जाने से इनकार कर दिया था।

 इस बात से माधव और उसकी पत्नी बहुत नाराज हो गए। माधव ने अपने माता-पिता से बातचीत कम कर दी। वह हर बात में गुस्सा और नाराजगी दिखाता। वह अधिक बोलता नहीं था बस माता-पिता को ऐंठ  दिखाता था। अब माता-पिता भी ज्यादा कुछ नहीं कर सकते थे। वह बेटे की बदतमीजी को नजर अंदाज कर देते। वे सोचते कि शहर में कितनी परेशानी से वह रह रहा होगा; इसलिए झल्लाता है। कोई बात नहीं। वह ठीक-ठाक रहे; इतना बहुत है। वे भी माधव से ज्यादा बात नहीं करते थे। और गांव में खुशी-खुशी जी रहे थे। लेकिन मन में माधव के लिए मोह बहुत होने के कारण, कभी-कभी खिन्न हो जाते थे। 

किशन चंद, माधव को कई बार गांव बुला चुका था; पर वह टाल-मटोल कर देता था। एक बार ऐसा हुआ कि माधव की पत्नी रजनी, के किसी रिश्तेदार के यहां विवाह के अवसर पर, रजनी को बुलाया गया। रजनी का गांव भी माधव के गांव के पास ही था। तब माधव ने सोचा कि कुछ छुट्टियां लेकर पहले विवाह में चले जाएंगे। और फिर दो-चार दिन अपने पिता के पास भी ठहरकर वापस आ जाएंगे।

 किशनचंद का तो खुशी का ठिकाना न था। उसने सोचा कि माधव पहले यहां आएगा फिर ससुराल के यहां विवाह में जाएगा। विवाह के बाद माधव फिर कुछ दिन यही रखेगा। बहुत आनंद रहेगा। किशन चंद की पत्नी भी बहुत प्रसन्न थी। 

विवाह के पहले दिन माधव गांव पहुंचा। लेकिन अपने गांव नहीं पत्नी के गांव पहुंचा और वहीं रुक गया। उसने माता-पिता को बता दिया कि वह रजनी के गांव विवाह में आ गया है; और वहीं ठहरा हुआ है। किशन चंद और उसकी पत्नी बहुत खुश हुए। वे दोनों उससे मिलने उसकी ससुराल ही चल दिए। लेकिन वहां पहुंचकर बहुत हैरान हुए; क्योंकि माधव उसकी पत्नी रजनी ने उनसे कोई खास बातचीत नहीं की। बल्कि वे दोनों तो उनके  वहां से आने से परेशान लग रहे थे। खैर, वे दोनों अपने गांव वापस आ गए।

5-6 दिन बाद माधव, रजनी और बच्चे किशन चंद के घर आए। उन्हें बहुत अच्छा लगा। लेकिन माधव परेशान था। उसका एक बच्चा बीमार था। माधव की मां भी बच्चों के लिए चिंतित थी। वह माधव के लिए बढ़िया खाना बना चुकी थी। लेकिन बच्चे के लिए उसने खिचड़ी भी बनाई। बच्चा खिचड़ी खा नहीं रहा था। रजनी भी उसे खिलाने की कोई कोशिश नहीं कर रही थी। उसने एक कमरे में सारा सामान बेतरतीब, फैलाकर कर रख दिया था और वहां कमरे को बंद करके आराम कर रही थी। माधव भी कमरे में चला गया।

 बच्चे कुछ खा नहीं रहे थे। थोड़ी देर में बाहर आकर माधव और रजनी ने तो खाना खा लिया; पर बच्चों को कुछ भी नहीं खिलाया। किशन चंद और उसकी पत्नी ने जब उन्हें खाना खिलाने के लिए कहा, तब माधव बेरुखी से बोला कि उन्हें शहर का ही खाना पसंद है। वह आपके घर का खाना नहीं खाएंगे।

 किशन चंद और उसकी पत्नी बहुत हैरान हुए माधव चार दिन तक अपने माता-पिता के घर रहा लेकिन उसने अपने माता-पिता से कोई बात न की। वह स्मार्टफोन पर ही व्यस्त रहता था बात-बाद में गुस्सा करता था। वह अधिकतर कमरे में रजनी के साथ ही बंद रहता। वे पति पत्नी अपने बच्चों को नहलाते तक नहीं थे। और न ही उनकी देखरेख कर रहे थे। सब कुछ अजीब सा हो रहा था।

 वापस जाने के एक दिन पहले माधव के बड़े बच्चे को जोर से उल्टियां आई और उसे तेज बुखार भी हो गया। किशन चंद और उसकी पत्नी घबरा गए। उनके घर बुखार की दवाई रखी थी। लेकिन माधव और उसकी और रजनी बच्चों को दवाई न देना चाहते थे। वे डॉक्टर के पास भी ले जाने को तैयार नहीं थे। वे  कह रहे थे, कि बच्चा बिना दवा के ही ठीक हो जाएगा।

 किशन चंद और उसकी पत्नी बहुत हैरान हुए यह देखकर कि बुखार में भी, माधव और उसकी पत्नी, बच्चों की कोई देखभाल नहीं कर रहे हैं; बल्कि अपने कमरे में बंद है। किशन चंद की पत्नी बच्चों के लिए, पानी फलों का जूस और न जाने क्या-क्या खिलाने-पिलाने का प्रयत्न कर रही थी। परंतु बच्चा कुछ लेने को तैयार ही नहीं था। 

किशन चंद को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि ये सब  क्या हो रहा है। कहीं बच्चे को कुछ हो गया तो? यह सोचकर वह और उसकी पत्नी बहुत घबरा रहे थे। माधव को तो शहर वापस जाना ही था। वह उसी अवस्था में बच्चों को लेकर वापस शहर चला गया। ऐसा लगता था कि उसे न तो माता-पिता की कोई चिंता है; और न ही बच्चों की।  ऐसा भी हो सकता है कि वह अपनी मां कुंती के, शहर में न आने का, विरोध कर रहा हो। और झल्लाहट दिखा रहा हो। लेकिन किशन चंद और कुंती को यह सब नहीं समझ आया।

 माधव ने शहर पहुंचकर पिता को बताया कि बच्चे ठीक है। बच्चे का बुखार ठीक हो गया है। बच्चों को गांव में रहना पसंद नहीं है। और वह भी गांव नहीं आना चाहता। 

किशन चंद सोच रहा था कि माधव कितना बदल चुका है। इतने वर्षों में उसमें बहुत बदलाव आ गया है। वह पहले वाला माधव नहीं है; जिससे कि उसको इतना मोह था।

 उसकी आंखों में पिछले चार दिन चलचित्र की तरह घूमने लगे माधव का गुस्सा, बच्चों के प्रति लापरवाही और उसकी पत्नी का व्यवहार। और फिर बच्चों का बीमार पडना, उनका भूखा रहना। एक दिन एक-एक बात उसके दिल पर आघात कर रही थी। ठंडे दिमाग से उसने स्थिति को समझने की कोशिश की। वह समझ गया कि भविष्य में भी, बच्चे गांव में जाकर, बीमार तो पड़ेंगे ही। और उनकी देखभाल भी कोई नहीं करेगा। फिर  से यदि किसी बच्चे को,  यहां आकर फिर बुखार हो गया, तो कुछ भी हो सकता है; यह सोचकर वह सिहर गया।  

फिर उसने सोचा कि, माधव को, अब शहर में रहने की आदत पड़ चुकी है। पहले वह पहले वाला माधव नहीं रह गया है। उसका व्यक्तित्व बदल चुका है। माता-पिता के साथ सामंजस्य करने में उसे बड़ी कठिनाई हो रही है। फिर माधव की अपनी व्यक्तिगत समस्याएं भी हैं; जो कि शायद वह उससे साझा भी नहीं करना चाहता।

 वह गांव में आकर खुश न रह पाएगा। वह बहुत परेशान हो जाएगा। उसकी पत्नी और बच्चे भी परेशान होंगे। वह शहर में ही रहे, इसी में माधव की और उसकी अपनी भलाई है। 

उसने एक निर्णय लिया। किशन चंद ने पास रखा मोबाइल फोन उठाया, बेटे का नंबर मिलाया और कहा, "बेटा माधव! तुम जहां भी रहो, खुश रहो। अब मैं तुम्हें गांव में आने के लिए कभी नहीं कहूंगा। तुम शहर में रहने के आदी हो चुके हो अब तुम गांव में आते हो तो तुम्हें भी परेशानी होती है और तुम्हारे परिवार को भी परेशानी होती है। मैं नहीं चाहता कि तुम या तुम्हारा परिवार किसी भी तरह से दुखी हो। तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है। इसीलिए अब तुम शहर में ही रहो। गांव में मत आना। जब तुम्हारे बच्चे बड़े हो जाए ,और अगर मैं जिंदा रहूं; तभी गांव आना। तब तक गांव में, मेरे घर मत आना।" यह कहकर किशनचंद ने मोबाइल फोन बंद कर दिया। 

उसे समझ आ चुका था, कि उसका बेटे के अंदर बहुत मोह है। लेकिन बेटे का व्यक्तित्व बदल चुका है। वह अपने दायित्व निभाने में, बहुत अधिक व्यस्त हो चुका है। अब उसे गांव आने में कोई रुचि नहीं है; बल्कि उसे परेशानी ही महसूस होती है। बेटे के लिए ज्यादा मोह में पडना, उसके अपने लिए भी हितकारी नहीं है। 

वास्तव में अधिक मोह भी परतंत्रता का ही एक रूप है। अधिक मोह में पडना, अपनी स्वतंत्रता को खो देने के समान है। मनुष्य ही इसी मोह की, परतंत्रता को ओढ़े रहता है। जबकि आम जीव जगत में, एक समय के बाद कोई भी प्राणी मोह नहीं रखता। 

इसीलिए अब उसे अपना मोह भंग करना होगा। और अपने को अपने लिए हितकारी कार्यों में लगाना होगा। उसे अपने स्वास्थ्य  के ऊपर भी अधिक ध्यान देना होगा। बेटा, अपनी चिंता कर रहा है। वह बड़ा हो चुका है। वह कोई छोटा अबोध बालक नहीं है; जिसके मोह में पडा जाए। 

अब वह स्वयं बूढ़ा हो चुका है। इसीलिए बेटे की चिंता को छोड़, उसे अपनी स्वयं की भी चिंता करनी चाहिए। इस प्रकार से वह स्वयं भी अधिक सुखी रह सकेगा। 

उसे लगा कि वह अपनी सुध बुध बिसार बैठा था। अब उसे अपनी सुध वापिस आई है। वह स्वयं ही झूठे मोह में फंस गया था। मोह की परतंत्रता को उतार फेंकने के बाद, वह अब वह स्वयं को बंधन मुक्त अनुभव कर, खुलकर सांस ले रहा था। लगता था; जैसे सिर पर से, कोई भारी बोझ उतर गया।