Sunday, December 13, 2015

लो, जाड़े आ गए!

धुंध की सफ़ेद रज़ाई ओढ़े
सूरज की अलाव तापते,
कंपकंपाते बदन,  ढाँपते;
सकुचाते, दाँत किटकिटाते,
लो, जाड़े आ गए!
नरम नरम धूप की गर्मी पिघल गई,
सर्द हवा सन सन कर कान पर फिसल गई,
गर्दन पर मफलर की गाँठ अब संभल गई,
पेड़ों के पत्तों पर कोहरा बरसा गए।
लो, जाड़े आ गए!
मोटे से वस्त्रों में दुबला तन गदराया,
सूरज को देख देख पुलकित मन हरषाया,
सर्द हवा बह निकली अब तो मन घबराया,
अंबर को ढ़कने ये बादल क्यों आ गए ?
लो, जाड़े आ गए!
चूल्हे की गर्म तपिश आनन्दित कर गई,
दहकते कोयलों पर लो चाय उबल गई,
गर्म पकौड़ों को तबियत मचल गई,
गज्जक, रेवड़ी खाने के दिन आ गए।
लो, जाड़े आ गए!
गर्म ऊनी कपड़ों से घर भर भर गया,
गुदगुदाते कंबलों से बिस्तर निखर गया,
नींद की आहट हुई तो स्वेटर उतर गया,
नर्म गर्म रज़ाई में सोने के पल आ गए।
लो, जाड़े आ गए!

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