सत्तर मधुमास ही बीते हैं
यह जीवन अब उपवन जैसा
फूलों से लदी, सभी क्यारी
यह जीवन मधु मधुबन जैसा
प्रसुप्त चेतना जगी अभी
थिरका अब सांसों में प्रवाह
भूले भूले से जीवन में
चेतनता जागी बन उछाह
गाती है वसुधा मंगल धुन
यह जलधि हिलोरे लेता है
नभ बरसाता उद्दीप्त तेज
तब पवन ऊर्जा भरता है
पुलकित प्राणों में मंद मंद
सद्भाव संचरित होता है
नव आशाओं की सरगम में
उल्लास प्रस्फुटित होता है
जीवन अब अधिक स्पष्ट हुआ
अब मौन प्रेरणा आती हैं
निज जीवन है बहुमूल्य बहुत
यह सोच, स्फुरित कर जाती है
सोया जीवन अब जागा है
भीतर माधुर्य भरा है अब
जंजाल व्यर्थ थे, पल-पल के,
अंतर्आलोक जगा है अब
पाथेय बना पिछला जीवन
अनजाने, मूक, अग्रपथ का
दृढ़ निश्चय संबल होगा अब
नित जर्जर होते इस रथ का
मन बने सबल, क्या और चाह?
जीवन से अधिक अपेक्षा क्यों?
पूरे हों सब कर्तव्य तो फिर,
रहे चदरिया, ज्यों की त्यों!
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