Tuesday, October 1, 2024

कॉफ़ी की महक

 मैं किचन में चाय बना रही थी। उसमें अभी तुलसी के पत्ते डाल ही रही थी, कि अचानक ऋचा की आवाज आई, "मम्मी! कॉफी मत बनाओ। मुझे तो तुलसी की चाय पीनी है।"

 मैंने कहा, "हां! हां! मैं तुलसी की चाय ही बना रही हूं।" 

"तो फिर यह कॉफी की इतनी खुशबू कहां से आ रही है?" ऋचा बोली।

 मैंने कहा, "मैं तो चाय की पत्ती डाल रही हूं। कॉफी की खुशबू कैसे आ सकती है?"

 लेकिन मुझे भी कॉफी की खुशबू आ रही थी। मैंने चाय की पत्ती वाले डिब्बे को गौर से देखा। उसमें चाय ही थी और मैंने चाय ही डाली थी। लेकिन खुशबू तो कॉफी की आ रही थी।  पूरा घर कॉफ़ी की खुशबू से महक रहा था। 

मैं बाहर बालकोनी में गई। मुझे लगा शायद आसपास कोई कॉफ़ी बना रहा है। लेकिन बालकोनी में काफी की कोई खुशबू थी ही नहीं। तब मैंने घर जाकर डाइनिंग टेबल के ऊपर रखे हुए काफी के जार को देखा। सोचा, कि कहीं वह खुला तो नहीं रह गया या टूट तो नहीं गया। लेकिन काफी का जार तो सही सलामत बंद था।

 फिर यह कॉफी की इतनी तेज खुशबू कहां से आ रही है? तभी मैंने ऋचा को देखा। उसने अभी-अभी ताजा अखबार पढ़ने के लिए खोला था। ऋचा अचानक बोली, "अरे! कॉफ़ी की खुशबू तो अखबार में से आ रही है।"

अखबार के मुखपृष्ठ पर, इंटरनेशनल कॉफी डे पर, टाटा कॉफी कंपनी का बहुत बड़ा विज्ञापन था। जिसमें से कॉफी की भीनी भीनी खुशबू भी आ रही थी। उसी से पूरा कमरा महक उठा था।

"तो अब पता चला कि कॉफ़ी की खुशबू कहां से आ रही है!"मैंने ऋचा को तुलसी वाली चाय का प्याला पकडाते हुए कहा।

 "वाह मम्मी! यह तो मजा दोगुना हो गया। हाथ में तुलसी की चाय और कमरे में कॉफ़ी की खुशबू!" 

तभी बाहर दरवाजे की घंटी बजी। दरवाजा खोला तो पाया कि ऊपर वाले फ्लैट की सुधा सामने खड़ी थी। "आओ सुधा!" मैंने कहा।

 "आंटी! कॉफ़ी की बहुत बढ़िया खुशबू आ रही है। आपने कॉफी बनाई है क्या?" 

मैं और ऋचा एक दूसरे को देखकर मुस्कुराने लगे। सुधा सकपका गई। उसने पूछा, "कोई राज की बात है क्या?" 

मैंने कहा, "हां सुधा! ऐसा ही समझो। बात यह है कि मैंने तो चाय बनाई है। लेकिन आज इंटरनेशनल कॉफी डे पर अखबार में कॉफ़ी का विज्ञापन आया है; जिसमें कि कॉफ़ी की खुशबू भी है।" 

"अच्छा, तो यह बात है।"  सुधा भी मुस्कुराई। 

"इसीलिए आपका घर कॉफ़ी की खुशबू से महक रहा है। जब आज इंटरनेशनल कॉफी डे है, तो आंटी; हो जाए एक कॉफी! मौका भी है और दस्तूर भी!"

 मैंने हंसकर कहा, "हां! हां! क्यों नहीं? आखिर कॉफ़ी की खुशबू से घर महक रहा है; तो हाथ में काॅफ़ी का प्याला भी तो होना चाहिए।"

इसके बाद, इंटरनेशनल कॉफी डे पर, सुधा ने भी कॉफ़ी के विज्ञापन में बसी हुई कॉफ़ी की महक के साथ, कॉफी के स्वाद का भी भरपूर आनंद उठाया।

Monday, September 30, 2024

जलने पर...

 रसोई घर में काम करते-करते कई बार हाथ जल जाता है या वैसे भी कभी असावधानीवश, अंगुली या हाथ, पैर या शरीर का कोई भी त्वचा का हिस्सा, अगर थोड़ा बहुत जल जाता है; तो बिल्कुल भी परेशान होने की आवश्यकता नहीं है।

 अपने घर में हमेशा एलोवेरा का पौधा  रखना चाहिए। जैसे ही शरीर का कोई हिस्सा जल जाए; तुरंत एलोवेरा का पत्ता तोड़े और उसका गूदा उस जले हुए स्थान पर लगा लें। उसके बाद उसे ऐसे ही छोड़ दें। उसे स्थान को न तो किसी कपड़े से पोंछें  और न ही उस पर पानी लगने दें।

अगर आवश्यकता पड़े, तो इस  गूदे को जले हुए स्थान पर बार-बार भी लगाया जा सकता है। ऐसा करने से वहां जलन भी नहीं होगी और जला हुआ त्वचा का हिस्सा बहुत ही कम दिनों मे heal हो जाएगा। Heal हो जाने के बाद भी, उस पर एलोवेरा लगाते रहे; जिससे कि जले हुए का निशान न पड़े। 

एलोवेरा का गूदा लगाते समय, यह ध्यान रखना चाहिए कि जले हुए स्थान पर जख्म या फ़फ़ोला ना हो।


Wednesday, September 25, 2024

दान का चमत्कार!

जॉन डी रॉकफेलर दुनिया के सबसे अमीर आदमी और पहले अरबपति थे।

25 साल की उम्र में, वे अमेरिका में सबसे बड़ी तेल रिफाइनरियों में से एक के मालिक बने और 31 साल की उम्र में, वे दुनिया के सबसे बड़े तेल रिफाइनर बन गए।

38 साल उम्र तक, उन्होंने यू.एस. में 90% रिफाइंड तेल की कमान संभा ली और 50 की उम्र तक, वह देश के सबसे अमीर व्यक्ति हो गए थे।

जब उनकी मृत्यु हुई, तो वह दुनिया के सबसे अमीर आदमी थे।

एक युवा के रूप में वे अपने प्रत्येक निर्णय, दृष्टिकोण और रिश्ते को अपनी व्यक्तिगत शक्ति और धन को बढ़ाने में लगाते थे।

लेकिन 53 साल की उम्र में वे बीमार हो गए। उनका पूरा शरीर दर्द से भर गया और उनके सारे बाल झड़ गए।

नियति को देखिए,उस पीड़ादायक अवस्था में, दुनिया का एकमात्र अरबपति जो सब कुछ खरीद सकता था, अब केवल सूप और हल्के से हल्के स्नैक्स ही पचा सकता था।

उनके एक सहयोगी ने लिखा, "वह न तो सो सकते थे, न मुस्कुरा सकते थे और उस समय जीवन में उसके लिए कुछ भी मायने नहीं रखता था।"

उनके व्यक्तिगत और अत्यधिक कुशल चिकित्सकों ने भविष्यवाणी की कि वह एक वर्ष ही जी पाएंगे।

उनका वह साल बहुत धीरे-धीरे, बहुत  पीड़ा से गुजर रहा था।

जब वह मृत्यु के करीब पहुंच रहे थे, एक सुबह उन्हें अहसास हुआ कि वह अपनी संपत्ति में से कुछ भी, अपने साथ अगली दुनिया में नहीं ले जा सकते।

जो व्यक्ति पूरी व्यापार की दुनिया को नियंत्रित कर सकता था, उसे अचानक एहसास हुआ कि उसका अपना जीवन ही उसके नियंत्रण में नहीं है।

उनके पास एक ही विकल्प बचा था। उन्होंने अपने वकीलों, एकाउंटेंट और प्रबंधकों को बुलाया और घोषणा की कि वह अपनी संपत्ति को अस्पतालों में, अनुसंधान के कार्यो में और धर्म-दान के कार्यों के लिए उपयोग में लाना चाहते हैं।

जॉन डी. रॉकफेलर ने अपने फाउंडेशन की स्थापना की।इस नई दिशा में उनके फाउंडेशन के अंतर्गत, अंततः पेनिसिलिन की खोज हुई,मलेरिया, तपेदिक और डिप्थीरिया का इलाज ईजाद हुआ।

लेकिन शायद रॉकफेलर की कहानी का सबसे आश्चर्यजनक हिस्सा यह है कि जिस क्षण उन्होंने अपनी कमाई का हिस्सा धर्मार्थ  देना शुरू किया, उसके शरीर की हालात आश्चर्यजनक रूप से बेहतर होती गई।

एक समय ऐसा लग रहा था कि वह 53 साल की उम्र तक ही जी पाएंगे, लेकिन वे 98 साल तक जीवित रहे।

रॉकफेलर ने कृतज्ञता सीखी और अपनी अधिकांश संपत्ति समाज को वापस कर दी और ऐसा करने से वह ना केवल ठीक हो गए बल्कि एक परिपूर्णता के अहसास में भर गए। उन्होंने बेहतर होने और परिपूर्ण होने का तरीका खोज लिया।

ऐसा कहा जाता है के रॉकफेलर ने जन कल्याण के लिए अपना पहला दान स्वामी विवेकानंद के साथ बैठक के बाद दिया और उत्तरोत्तर वे एक उल्लेखनीय परोपकारी व्यक्ति बन गए। स्वामी विवेकानंद ने रॉकफेलर को संक्षेप में समझाया कि उनका यह परोपकार, गरीबों और संकटग्रस्त लोगों की मदद करने का एक सशक्त माध्यम बन सकता है।




 

शरणागत

 तेरे नाम का सुमिरन करके, मेरे मन में सुख भर आया

 तेरी कृपा को मैंने पाया, तेरी दया को मैंने पाया


 दुनिया की ठोकर खाकर, जब हुआ कभी बेसहारा

 न पाकर अपना कोई, जब मैंने तुम्हें पुकारा

 हे नाथ मेरे सिर ऊपर, तूने अमृत बरसाया


 तू संग में था नित मेरे, ये नैना देख न पाए

 चंचल माया के रंग में, ये नैन रहे उलझाए

 जितनी भी बार गिरा हूं, तूने पग पग मुझे उठाया


 जब सागर की लहरों ने, भटकाई मेरी नैया

 तट छूना भी मुश्किल था, नहीं दीखे कोई खिवैया 

 तू लहर बना सागर की, मेरी नाव किनारे लाया


 हर तरफ तुम्हीं हो मेरे, हर तरफ तेरा उजियारा

 निर्लेप प्रभु जी मेरे, हर रूप तुम्हीं ने धारा

 मैं तेरी शरण में दाता, तेरा तुझको ही चढ़ाया


 तेरी कृपा को मैंने पाया, तेरी दया को मैंने पाया




Friday, September 13, 2024

मज़े करो!

 अरे भई! यही एक जीवन मिला है, मनुष्य का! कल हम रहे, ना रहे; क्या भरोसा? जितनी जल्दी हो सके, पूरा मजा ले लो जिंदगी का!

 ऐसा बहुत से लोगों का दृष्टिकोण होता है। मुझे कई बार यह सुनने को मिलता है। तब यह समझने में कठिनाई होती है, कि मज़ा क्या है? क्या मज़ा विश्राम को या फिर इधर-उधर घूमने को या फिर उद्देश्यहीन कार्य करने को कहते हैं? शायद ये तो, बिल्कुल भी अर्थ नहीं हो सकते मज़े के। तो क्या मज़े का अर्थ आनंद के संदर्भ में लिया जाए? मेरा मानना यह है कि मज़े शब्द का पर्याय आनंद अवश्य हो सकता है। लेकिन आनंद कब मिल सकता है?

 कदाचित् आनंद की उपलब्धि तभी हो सकती है; जबकि हम अपने आप से पूरी तरह संतुष्ट हो। और, अपने आप से पूरी संतुष्टि तभी प्राप्त हो सकेगी; जबकि हमने अपने सभी कर्तव्य ईमानदारी से निभाए हों। हमें तनिक भी संदेह न हो, कि हमने अपनी क्षमता के अनुसार अपने कर्तव्य निभाने में कोई भी कोर-कसर बाकी छोडी।

 मुझे लगता है, कि कुछ हमारे कुछ कार्य प्रकृति हमें करने के लिए प्रेरित करती है, और बाकी कार्य परिस्थितियों के वशीभूत होकर हमें करने होते हैं। हम ऐसा सोचते हैं, कि हम अपनी पसंद के अनुसार कार्य कर सकते हैं। लेकिन हमारी कर्तव्य निष्ठा में हमारी पसंद का प्रतिशत बहुत ही नगण्य है। आप कह सकते हैं कि अपनी विद्या और व्यवसाय चुनने के लिए आप स्वतंत्र हैं। शायद यह भी अर्ध सत्य ही है। हमारी बुद्धि ,शारीरिक क्षमता और आपके आसपास की परिस्थितियों की, इस विषय में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रहती है।

 फिर आपने अपने अनुसार कुछ चुनाव कर भी लिए; तब भी आप कितनी सार्थकता और स्वतंत्रता से, उसे विकसित कर पाएंगे; यह भी प्रकृति और आपकी परिस्थितियों ही निर्धारित कर पाएंगे। चाहे जो भी हो; प्रकृति द्वारा और परिस्थितियों द्वारा दिए गए कार्य को अपनी क्षमता और दक्षता अनुसार करने में हम पूरी तरह स्वतंत्र है। हम इस बात के लिए भी पूरी तरह स्वतंत्र है; कि उस कर्तव्य को हम अपने मन में प्रसन्न होते हुए, निष्ठापूर्वक निभा रहे हैं। 

एकनिष्ठ होकर, यदि हम प्रसन्नतापूर्वक अपने कार्य को करते हुए, अपनी पूरी क्षमता का उपयोग करते हैं; तो सम्भवतः, उस कार्य को करने में हमें पूरी संतुष्टि मिलती है। जब हम पूरी तरह संतुष्ट होते हैं, तभी हमें आनंद की अनुभूति भी अवश्य होती है। वास्तविक आनंद तो, पूरे समर्पण से, अपने लिए निर्धारित कार्य करने में ही है। मन में संतोष होना ही वास्तविक मज़े हैं। पूरी मेहनत के बाद जो भौतिक उपलब्धियां मिलती है, वे तो खुशी प्रदान करती ही है; लेकिन जो मानसिक और आत्मिक उपलब्धियां प्राप्त होती है वही वास्तविक आनंद है; और मज़े भी!

Monday, September 9, 2024

हीरे की लौंग

 अर्धवार्षिक परीक्षा समाप्त हो चुकी थी।  अगले दो दिन तक सभी उत्तर पुस्तिकाओं की जांच कर लेनी थी। उसके बाद विद्यार्थियों के प्राप्तांकों की सूची, विद्यालय के मुख्य परीक्षक को सौंप देनी थी।

 मेरे पास उत्तर पुस्तिकाओं के छः बंडल थे। एक-एक बंडल में कम से कम साठ उत्तर पुस्तिकाएं तो थीं ही। छठी से नवीं तक प्रत्येक कक्षा का एक-एक बंडल, और दसवीं के दो बंडल। 

अब लगभग पौने चार सौ उत्तर पुस्तिकाओं को जांच कर, दो दिन बाद तक, अंक सूची बना देना कोई सरल कार्य नहीं था। एक-एक उत्तर पुस्तिका की जांच में कम से कम दस पन्द्रह  मिनट का समय तो लगता ही है। इसीलिए इतनी सारी उत्तर पुस्तिकाएं जांचना, बड़ा सिर दर्द बन जाता है।

 चाय का प्याला मेज पर रख कर, अभी जांच कार्य प्रारंभ ही किया था; कि दरवाजे की घंटी बजी। सामने कटारिया आंटी अपने जर्मन शेफर्ड कुत्ते के साथ खड़ी थीं। 

"नमस्ते आंटी!  अंदर आइए ना।" 

औपचारिकता वश ऐसा तो मुझे कहना ही था। यद्यपि मैं  बिल्कुल भी नहीं चाहती थी, कि वह इस समय वे मेरे व्यस्त कार्यक्रम में व्यवधान डालें। लेकिन आंटी तो अंदर आकर बैठना ही चाहती थीं।

वे बोलीं, "हां! हां! मैं तुझसे मिलने ही आई हूं। तू तो कभी घर से बाहर निकलती ही नहीं। तो मैंने सोचा कि मैं ही मिल आती हूं।" इतना कह कर वे अपने कुत्ते के साथ अंदर आ गई, और सामने वाले सोफे पर बैठ गई। कुत्ता भी जमीन पर बैठ गया। 

कटारिया आंटी, हमारे घर के सामने वाले घर में ही रहती हैं। उनकी बहू डॉक्टर है, और बेटा बैंक में कार्यरत है। पोता-पोती स्कूल जाते हैं। एक नौकर है; जो उनके घर के सारे काम निपटा देता है। इसीलिए आंटी को कुछ काम तो है नहीं। वे कभी किसी के घर चली जाती हैं; और कभी सामने पार्क के बेंच पर बैठ जाती हैं। विभाजन से पूर्व लाहौर में उनके क्या ठाठ थे; इसी विषय पर अक्सर उनके वार्तालाप में झलक होती है। 

"आंटी! मैं अभी चाय पी रही थी। आपके लिए बनाऊं क्या?"

 "अरे नहीं। मैंने चाय छोड़ दी है। तू आराम से बैठ। कुछ गपशप करेंगे।" आंटी बोली।

 उनका कुत्ता बहुत ही शांत स्वभाव का है। वह आंटी के पैरों में चुपचाप बैठा था और अपनी भोली भाली आंखों से मुझे निहार रहा था।

 खैर, छोड़िए इन सब बातों को! वास्तविक मुद्दा तो यह है, कि मेरे सामने बहुत सारा कार्य था और समय का नितांत अभाव था यहां आंटी मेरे साथ समय को व्यतीत करने आई थीं। अब चाय के लिए तो उन्होंने मना कर ही दिया था। अतः मैं कुर्सी पर बैठी, और उत्तर पुस्तिकाएं जांचनी शुरू की। 

आंटी ने अपनी बातें करनी प्रारंभ कर दी। इधर-उधर के किस्से, अड़ोस पड़ोस की बातें या अपनी बीमारी की परेशानियां। यही सब विषय होते हैं; उनकी वार्तालाप के! मैं उत्तर पुस्तिकाएं जांचते हुए, बीच में हां, हूं, करती रही। 

अचानक वह बोलीं, "तू तो कुछ बात कर ही नहीं रही है। मैं ही बोले जा रही हूं।"

 "आंटी! मुझे पेपर चेक करने है ना! आज मैं ज्यादा बात नहीं कर पाऊंगी।" 

"ले! यह क्या बात हुई? ऐसी कौन से पेपर है; बाद में चैक कर लियो। ऐसी भी क्या जल्दी है?"

 "आंटी! ये दो दिन बाद चैक करके वापस देने हैं। बहुत सारा काम है।"

 "तू तो बहुत बिजी है। मैं जा रही हूं।" ऐसा कहकर वह अपने कुत्ते को के साथ दरवाजे की और बढीं। शायद सोच रही होंगी कि मैं उन्हें रोक लूंगी।

 लेकिन मैंने कहा, "ठीक है आंटी! फिर कभी इत्मीनान के साथ बात करेंगे।"

 वे जल्दी से बाहर निकल गई। मैंने भी चैन की सांस ली और दरवाजा बंद करके फिर अपने जांच कार्य में लग गई।

 लगभग पांच मिनट बाद, फिर दरवाजे की घंटी बजी। मैंने दरवाजा खोला तो पाया, कि कटारिया आंटी सामने खड़ी हैं। 

"हांजी आंटी?!"

 "मेरी कान की लौंग गिर गई है। हीरे की लौंग थी। तेरे घर में तो नहीं गिर गई?" आंटी बहुत चिंतित और घबराई हुई लग रही थी। 

"अंदर आ जाओ आंटी! सोफे के आस-पास और फर्श पर ढूंढ लेते हैं।"

 हमने सोफे की गद्दियां उलट पलट कर, पूरे फर्श का दरवाजे  तक बड़े ध्यान से निरीक्षण किया। लेकिन कुछ भी दिखाई नहीं दिया। 

"पता नहीं कहां गिर गई मेरी हीरे की लौंग? बस अपने घर से तेरे घर तक ही आई हूं। अपने घर में फिर से ढूंढ लेती हूं।" ऐसा कह कर आंटी चली गईं।

 परेशान तो मैं भी हो गई। उत्तर पुस्तिकाएं छोड़कर मैं उनकी लौंग ढूंढने का प्रयत्न करने लगी। अचानक मेरी निगाह सोफे के नीचे की तरफ गई। वहां लौंग के पीछे का सोने का पेच पड़ा हुआ था। लेकिन लौंग का नामो निशान न था। मैंने दोबारा सोफे की गद्दियां झाड़-झाड़ कर देख लीं। लेकिन कहीं भी पर भी लौंग न दिखाई दी। 

मैं पेच लेकर उनके दरवाजे पर गई।  आंटी ने दरवाजा खोला तो मैंने उन्हें पेच दिखाया। मैंने कहा, "आंटी! आपकी लौंग का पेच तो मिल गया; लेकिन लौंग कहीं नहीं मिली।" 

आंटी एकदम खुश हो गई। वे बोलीं, "हां। यह पेच उसी  लौंग का है। जहां पेच गिरा था, वहीं लौंग होगी। मेरी हीरे की लौंग थी। फिर से ढूंढते हैं।"

 आंटी दोबारा मेरे घर आई और बड़ी शिद्दत से लौंग ढूंढने लगीं। मैं भी उनके साथ ढूंढने में लग गई। लेकिन लौंग न मिलनी थी, तो नहीं मिली। आंटी मुझे देखते हुए, बार बार यही कहे जा रही थी, "जहां पर पेच गिरा, वहीं लौंग होनी चाहिए। लौंग और कहां जा सकती है? यहीं पर ही मिलनी चाहिए।"

 मैं  सकपका गई। कहीं ये ऐसा तो नहीं सोच रही है कि मैंने  लौंग अपने पास रख ली है और पेच उन्हें वापस कर दिया है? ऐसा प्रतीत हो रहा था; जैसे उनकी संदेह भरी नजरें और वाणी मेरे मन और मस्तिष्क का एक्सरे ले रही हों। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि अब मैं क्या करूं? मैंने सोचा कि देखा जाएगा; जो होगा, सो होगा। अभी तो उत्तर पुस्तिकाएं जल्दी-जल्दी जांच कर, अपना कार्य निपटाती हूं। 

मैंने कहा, "ठीक है आंटी! थोड़ी देर बाद, फिर से ढूंढ कर देखती हूं।"

 उनके जाने के बाद, मैंने जल्दी-जल्दी पेपर चेकिंग शुरू की। दो-चार उत्तर पुस्तिकाएं ही जांच पाई हूंगी; कि आंटी ने फिर दरवाजे की घंटी बजाई। मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई। मैंने सोचा कि अब क्या शामत आने वाली है?

 दरवाजा खोला, तो कटारिया आंटी हाथ में हीरे की लौंग लिए हुए खड़ी थीं। वे बोलीं, "मैं तेरे घर से अपने घर तक, रास्ते में ध्यान से देखी हुई जा रही थी। तभी मुझे कुछ चमकता हुआ लगा। यह लौंग, एक सूखे पत्ते के नीचे से चमक रही थी। भगवान का लाख-लाख शुक्र है, कि मेरी हीरे की लौंग मिल गई।" 

मेरी जान में जान आई। मैंने कहा, "आंटी! यह तो बहुत ही अच्छा हो गया, कि लौंग वापिस मिल गई। भगवान का धन्यवाद तो करना ही चाहिए; लेकिन अब आप लौंग के पेच को कसकर बंद किया करना। "

 "हां! हां! और क्या? अब तो मैं ज्यादा ध्यान रखूंगी।" कह कर आंटी वापस चली गईं। 

मैंने उनके जाने के बाद चैन की सांस ली। मुझे लगा कि पत्ते के नीचे छिपी हीरे की लौंग ने, अपनी झलक दिखा कर, आंटी की नजरों में, सदा के लिए बस जाने वाली 'चोर' की उपाधि से मुझे बाल-बाल बचा लिया।

Monday, August 26, 2024

बुलबुल का बच्चा

 कृष्णा बालकोनी का पोछा लगा चुकी थी। पोछे को धोकर वह बाल्टी का पानी क्यारी में डालने ही वाली थी; कि अचानक चिड़ियों का शोर होने लगा। कृष्णा ने देखा कि पेड़ की डाली पर बुलबुल का जोड़ा बहुत जोर से शोर मचा रहा था।

 सहसा उसकी नजर नीचे पडी, तो उसने देखा कि बुलबुल का नन्हा सा बच्चा जमीन पर पड़ा था। बुलबुल का जोड़ा उसे ही देख देख कर शोर मचा रहा था। कृष्णा समझ गई कि यह इन्हीं का नन्हा बच्चा है; और यह इसे उड़ना सिखा रहे हैं।

 तभी सामने के घर से अलीना भी निकल आई। वह सामने वाले घर में काम करती है। वह भी पूछने लगी कि यह शोर क्यों हो रहा है? तभी उसकी भी नजर बच्चे पर पड़ी। वह बोली कि इस बच्चे को तो बिल्ली खा जाएगी। 

उसने देख लिया था कि पेड़ के पीछे, बिल्ली छिप कर बैठी हुई थी। बिल्ली की पैनी नजर बुलबुल के बच्चे पर थी। बिल्लियों को पक्षियों का मांस खाना बहुत अच्छा लगता है। और यहां तो पक्षी के नन्हे बच्चे का स्वादिष्ट नाश्ता तैयार था। वह ललचाई नजरों से बुलबुल के बच्चे को लगातार देखे जा रही थी।

कृष्णा ने कहा, "इस बच्चे को ऊपर पेड़ पर रख देना चाहिए।" नहीं तो बिल्ली से जरुर खा जाएगी। लेकिन अलीना तो, उसे छूने से भी डर रही थी। 

कृष्णा ने एक कपड़ा लिया, और छोटे से बच्चे को सावधानी से उठाकर, पेड़ की डाली पर बिठा दिया। बुलबुल का जोड़ा यह सब देख रहा था। उनकी आवाज़ भी बंद हो गई थी। शायद उन्हें तसल्ली हो गई थी कि अब हमारा बच्चा सुरक्षित है। 

कृष्णा ने कहा, "अब ये बच्चे को उड़ा ले जाएंगे।" कृष्णा तो चली गई; लेकिन थोड़ी ही देर में बुलबुल के जोड़े का फिर से शोर आने लगा। 

रुद्रांश ने बाहर जाकर देखा, तो बिल्ली नीचे बैठी ललचायी नजरों से,  बुलबुल के बच्चे को देख रही थी। उसने तभी बिल्ली को डंडा मार कर भगा दिया। बुलबुल का जोड़ा, अपने बच्चे को, जल्दी से उड़ना सिखाना चाहता था। 

थोड़ी देर में, फिर से बुलबुल के जोड़े की, शोर मचाने की आवाज आने लगी। 

रुद्रांश समझ गया कि फिर से बिल्ली आई है। उसने कहा, मैं अपने पास डंडा रखकर, बाहर बालकोनी में ही बैठकर, होमवर्क कर लेता हूं। बिल्ली आएगी, तो उसे भगा दूंगा। तब तक शायद यह बच्चा भी उड़ना सीख जाएगा।" 

रुद्रांश के बाहर बालकोनी में बैठने पर, बुलबुल का जोड़ा निश्चिंत हो गया और बच्चे को उड़ाने की कोशिश करता रहा। बच्चा बार-बार डाली पर बैठा-बैठा पंख फड़फड़ाता, और फिर उड़ने की कोशिश करता। वह छोटी-छोटी उड़ान भर रहा था। 

बिल्ली भी बहुत दूर बैठी थी। वह रुद्रांश को देख रही थी; लेकिन उसकी पास आने की हिम्मत नहीं हो रही थी। अचानक वह तीव्रता से बच्चे के करीब आने की कोशिश करने लगी। फुर्ती से रुद्राक्ष ने उसे दूर से ही डंडा मारा। वह बहुत दूर भाग गई। उसके बाद, बुलबुल का जोड़ा अपने बच्चे को उड़ाने की कोशिश में लगा रहा। 

आखिरकार उन्हें सफलता भी मिल गई। बच्चा उड़ना सीख गया। वह थोड़ी दूर उड़ान भरकर, दूर वाले पेड़ पर जा बैठा। अब बुलबुल का जोड़ा बड़ा प्रसन्न था। उन्हें अंदाजा हो गया होगा, कि अब बच्चा उड़ान भर सकेगा। वह भी उसके साथ दूसरे पेड़ पर चले गए।

 रुद्रांक्ष घर में वापिस आ गया। लेकिन इसके बाद बुलबुल के जोड़े का कोई शोर नहीं सुनाई दिया। लगता था कि उनके बच्चे ने उड़ान भरनी सीख ली होगी। 

अगले दिन हमने कृष्णा को सारा किस्सा बताया, तो वह बहुत खुश हुई। उसने कहा, "चलो यह अच्छा है  कि बच्चे की जान बच गई, और उसने उड़ना भी सीख लिया।"

रुद्रांश बोला, "आंटी! मुझे थैंक्स दो। मैंने बच्चे को बिल्ली से बचाया। अगर मैं बच्चे को बिल्ली से न बचाता, तो वह बिल्ली तो बच्चे को खा ही जाती।"

 कृष्णा मुस्कुरा कर बोली, "थैंक्यू रुद्रांश!" 

आजकल वह बुलबुल का जोड़ा, फिर से शायद अंडे सेने में व्यस्त है।