Wednesday, July 17, 2024

भरत की बारहमासी

हवेली के आंगन में ठिठोली करती हुई, घर की स्त्रियां, विभिन्न कार्यों में व्यस्त रहती थीं।  इसमें काढना, बुनना, कढ़ाई करना, अनाज बीनना आदि प्रमुख रहते थे। लेकिन इस व्यस्तता को भी मनोरंजक बनाने के लिए, वे कार्य के साथ ही, गीतों का, भजनों का, सामूहिक गायन भी किया करती थीं। बच्चे आसपास ही खेलते रहते थे। इसीलिए वे भी इन गीतों को, भजनों को, शनैः शनैः आत्मसात करते रहते थे।

 मां की एक बाल विधवा बुआ, "भरत की बारहमासी" बहुत लयबद्ध तरीके से गाती थीं। श्रुत परंपरा से आई यह विधा, उन दिनों बहुत प्रचलित थी। इस "भरत की बारहमासी" की भाषा बहुत सहज और सरल है; लेकिन इसमें तत्सम शब्दों का भी प्रयोग है! काव्य की चित्रात्मकता भी अद्भुत है। साल के बारह महीनों में, एक प्रसंग के संपूर्ण विवरण की अनुपम अभिव्यक्ति है। अंतिम पद में,रचनाकार ने अपने नाम, स्थान और रचना के समय का बड़ी कुशलता से परिचय दिया है। आप भी आनंद लें:


रामा चैत पिछले पाख, रामनवमी को जन्म लियो 

 अवधपुरी सुखधाम, सभीन्ह मिल मंगलाचार कियो

 खबर जब दशरथ ने पाई

 दिए दान गजदान; गऊ दिन थोड़े की ब्याही

 सभा सब प्रफुल्लित हो  आई

करम रख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई

 राम गुण गाओ रे भाई

 भजने को हरी नाम; तरण को श्री गंगा माई 


रामा लागत ही वैशाख, कैकई बावरी कर डारी

 भरत कहें  धिक् जीवन; मिली जो तुम सी महतारी

 दुःख सब नगरी को दीन्हा

तीन लोक के नाथ, राम को वनवास दीन्हा

 क्रूर मति ऐसी बन आई 

करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


रामा जेठ पंच मिल कहें, भरत को  गद्दी बैठारो

 भरत धरत कानन पर हाथ, नाथ मोहि गर्दन मत मारो

 सरे नहीं इन बातन काजा

 हम तो उनके दास, राम वे अयोध्या के राजा

 बात सबके ही मन भाई

 करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


रामा आषाढ़ आशा राम मिलन की, लाग रही मन ही 

 राम कौन बन? मोहि बताओ, भरत ने बात कही

 नगर के सब नर अरु नारी

 रथ, डोला, गज, बाजि, भीड़ भई भरत संग भारी

 नदी ज्यों सागर को  धाई

 करमरेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई 


रामा श्रावण शृंगवेरपुर पहुंचे, भीड़ भई भारी

 भीलन जोड़ कटक दल साज्यो, लड़ने की तैयारी

 भरत साें मिलकर रार करो

 राम लषण सिय के हित जूझ, गंगा के तीर मरो

 भरत ने ऐसे सुन पाई

 करमरेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई 


रामा भादों भील भरत सो भेंटे, भक्ति जान मन में

 कंदमूल फल फूल, भरत की भेंट किए बन में

 भरत ने भील अगुवा कर लीन्हे

 द्वादश व्रत प्रयाग में कर, भारद्वाज दर्शन कीन्हे

 प्रयाग की जो दुनिया चली आई

 करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


राम क्वार करी मेहमानी, मुनिजन पूछी कुशलाता

 दोऊ कर जोड करी परिक्रमा, कौशल्या माता

 हमरो जीवन सफल भयो

 ब्रह्मा विष्णु सबन मुनि मिलकर, आशीर्वाद दियो

भरत की माता समझाई

करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


रामा कातिक कूच प्रयाग से कीन्हा, चित्रकूट आए

 बलकल चीर, जटा सिर बांधे, राम लषण पाए

 भरत चरणों में जाय पड़े

 तुरत उठाय राम उर लाये, नैनन नीर भरे 

भरत मेरे भैया सुखदाई

 करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


रामा अगहन बारंबार भरत को, रघुवर समझावें 

 भरत उलट घर जाओ, राज तुम करो अयोध्या में 

 लोग सब ही सुख पाएंगे

 चौदह वर्ष जायें बीत, तब हम घर आएंगे

 भरत सों ऐसे ठहराई

 करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


रामा  पूस मास सिय राम लषण पर, जुड़ गई भीड़ घनी

 जनक वशिष्ठ सभी समझावें, कहें अपनी अपनी

 विनती बहुत भांति किन्हीं

 राम प्रताप और चरण खड़ाऊ, भरत को दीन्हीं

 उलट तुम घर जाओ भाई

 करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


रामा माह मनायो मान गए तब, भली लगी रामे

 जनक तो आए जनकपुरी में, भरत अयोध्या में

 खड़ाऊ गद्दी धर दीन्ही

 राम लषण से कठिन तपस्या, भरत ने कीन्ही

बडाई या ही ने पाई

करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


रामा फागुन फेर हरि सिय रावण, उसको बस कीन्हा

 लंका जाय भक्ति मन भावन, राज विभीषण को दीन्हा  

विभीषण गद्दी बैठाये

 शिव सनकादि आदि ब्रह्मादिक, दर्शन को धाये

 राम को गद्दी ठहराई

 करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई


रामा नब्बे मास लौंद के भादों, अगहन ग्रहण पडो

 बांस बरेली के लाल दास ने, राम नाम उचरो

 भरत की यह बारहमासी

 गावे, सुने, परम पद पावे, कट जा यम फांसी

 वेद में ऐसे ही गाई

 करम रेख ना मिटे, करो चाहे लाखों चतुराई

 राम गुण गाओ रे भाई

 भजन को हरी नाम, तरण को श्री गंगे माई


Saturday, July 6, 2024

मूक अभिव्यक्ति

 सांस जब थिरकती हैं 

 अपने सुर ताल में

 दर्शन तब होता है 

मन दर्पण संजोता है 

अपने ही बिम्ब को

 अपने ही भाल में।


 मायावी कारीगर

 तंतु तंतु बुनता है 

रूप रंग चुनता है

 कंपन भर देता है

 सृष्टि विशाल में।


 कितना हितकारी है

 किसके सिर भारी है

कौन कभी उलझा नहीं 

पल-पल के रचित घटित

 मायावी जाल में।


 कुंठा जब दूर हुई

सरलता का साथ मिला

 पाया तब विश्व विदित 

व्यापक उस नायक को

 निज मन विशाल में।

Monday, July 1, 2024

अपनी अपनी अपेक्षा!

 टिंकू को बुखार था। वह कुछ भी खा पी नहीं रहा था। बुखार भी उतरने का नाम नहीं ले रहा था।

 राधा के तीन बच्चों में से, टिंकू बीच वाला बेटा था। सबसे छोटा बेटा रिंकू, खिलौनों से खेल रहा था और सबसे बड़ा बेटा बंटी, होम वर्क कर रहा था।

 दादी बाहर से आई, तो उसके हाथ में सेब से भरा थैला था। दादी को टिंकू के बुखार की बहुत चिंता थी। उसने राधा से टिंकू के बुखार के बारे में पूछा। राधा ने बताया कि टिंकू कुछ खा पी नहीं रहा है। दादी ने राधा को सेब देते हुए कहा, "इसे यह सेब काटकर खिला दे। इसे अच्छा लगेगा। मुंह का स्वाद कड़वा हो रहा होगा; जायका बदल जाएगा।"

 राधा ने प्लेट मे सेब रखा और छीलना शुरू किया।  रिंकू ने जब यह देखा, तो झटपट खिलौने छोड़कर, मां के पास आकर खड़ा हो गया। राधा प्लेट में छिले हुए सेब काट कर, फांकें रख रही थी। साथ-साथ टिंकू को भी खिला रही थी। टिंकू की तबीयत ठीक नहीं थी। वह धीरे-धीरे सेब खा रहा था। लेकिन रिंकू जल्दी-जल्दी प्लेट से उठाकर, सेब की फांकें,  गपा-गप कर रहा था। यह सब देखकर, बंटी भी, वहीं आकर खड़ा हो गया। वह देखता रहा। जब सब खत्म हो गया, तो वह फिर से होमवर्क करने लगा।

 रात को, बंटी दादी के साथ बिस्तर पर लेटा, तो दादी बोली, "देख बंटी! तेरी मम्मी ने, रिंकू को सेब खाने के लिए, बिल्कुल भी मना नहीं किया। बेचारा टिंकू तो सेब की एक दो फांक ही खा पाया। बता मुझे, कि तेरी मम्मी को, रिंकू को, डांट लगानी चाहिए थी कि नहीं?"

 "पता नहीं दादी।" बंटी उदासीन भाव से बोला, "मुझे तो मम्मी ने सेब की, एक भी फांक नहीं दी।"