माली को एक दिन अचानक पता नहीं क्या सूझा कि उसने गिलोय की लता को गगनचुम्बी होता देख, नीचे से काट दिया | बेचारी लता टेलीफोन के तार पर लिपटी नीचे की ओर ललचाई आँखों से निहारती रही |
"अब तो भूखों मरना पड़ेगा |" ऐसा सोच वह मन ही मन कांप उठी | "जड़ों से पानी और भोजन किस प्रकार प्राप्त होगा ?" वह चिंतित हो उठी |
ठीक नीचे कच्ची जमीन पर एक कोमल अपराजिता की वल्लरी , धीरे धीरे बड़ी हो रही थी | वह ऊपर सहारे के लिए निहार रही थी | " अगर आलम्बन न मिला तो मैं किस प्रकार फलूंगी -फूलूँगी ?" उसे रह रह कर चिंता सता रही थी |
गिलोय ने साहस जुटा कर धीरे धीरे धागों जैसी कोमल जड़ों को बाहर निकालते हुए नीचे भूमि की ओर भेजना प्रारम्भ कर दिया | मन में भय भी था | कोई भी उन कोमल जड़ों को तोड़ सकता था |
उधर अपराजिता की वल्लरी भी कुछ साहस कर ऊपर की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रही थी | जैसे ही नीचे की ओर आती हुई गिलोय की कोमल जड़ ने अपराजिता की वल्लरी को छुआ ; वह प्रसन्न हो उठी |
" यह कौन मुझे सम्बल देने आया?"
" मैं हूँ गिलोय की लता | भूमि से भोजन लेना चाहती हूँ | मुझे भूमि तक जाने दो | "
" हाँ हाँ अवश्य | तुम नीचे जमीन तक पहुंचो और मैं तुम्हारा सहारा लेकर ऊपर चढूँगी |" अपराजिता की वल्लरी की ख़ुशी का ठिकाना न था |
गिलोय की लता को भूमि में पहुँच कर बहुत आनंद आया | उसने जी भर पानी पिया | कितनी प्यासी थी वह | आज तृप्ति मिली | तुरंत उसने अपने लिए भोजन भी बनाना प्रारम्भ कर दिया |
अपराजिता की वल्लरी गिलोय की जड़ से लिपटती हुई आकाश की ओर बढ़ने लगी | उसे प्रकाश की किरणों से अटखेलियाँ करनी थी | वह गिलोय का आभार मान रही थी कि उसने सहारा देकर वल्लरी को ऊपर उठा दिया |
और गिलोय इस बात से फूली नहीं समा रही थी कि जमीन से सम्बन्ध बनाए रखने में वल्लरी गिलोय की लता की सहायता करेगी |
" तुम कितनी अच्छी हो अपराजिता वल्लरी!" मेरी जड़ के चारों ओर लिपटकर मुझे सुरक्षा प्रदान कर रही हो |"
"और तुम भी तो बहुत प्यारी हो गिलोय लता! तुमने मुझे सहारा देकर आकाश की ऊंचाइयों से परिचित कराया|" गिलोय की जड़ के सहारे झूलते हुए अपराजिता वल्लरी बोली |
पवन को यह अनोखी दोस्ती बहुत पसंद आई | उसने खुश होकर दोनों को खूब झुलाया |
"अब तो भूखों मरना पड़ेगा |" ऐसा सोच वह मन ही मन कांप उठी | "जड़ों से पानी और भोजन किस प्रकार प्राप्त होगा ?" वह चिंतित हो उठी |
ठीक नीचे कच्ची जमीन पर एक कोमल अपराजिता की वल्लरी , धीरे धीरे बड़ी हो रही थी | वह ऊपर सहारे के लिए निहार रही थी | " अगर आलम्बन न मिला तो मैं किस प्रकार फलूंगी -फूलूँगी ?" उसे रह रह कर चिंता सता रही थी |
गिलोय ने साहस जुटा कर धीरे धीरे धागों जैसी कोमल जड़ों को बाहर निकालते हुए नीचे भूमि की ओर भेजना प्रारम्भ कर दिया | मन में भय भी था | कोई भी उन कोमल जड़ों को तोड़ सकता था |
उधर अपराजिता की वल्लरी भी कुछ साहस कर ऊपर की ओर आशा भरी दृष्टि से देख रही थी | जैसे ही नीचे की ओर आती हुई गिलोय की कोमल जड़ ने अपराजिता की वल्लरी को छुआ ; वह प्रसन्न हो उठी |
" यह कौन मुझे सम्बल देने आया?"
" मैं हूँ गिलोय की लता | भूमि से भोजन लेना चाहती हूँ | मुझे भूमि तक जाने दो | "
" हाँ हाँ अवश्य | तुम नीचे जमीन तक पहुंचो और मैं तुम्हारा सहारा लेकर ऊपर चढूँगी |" अपराजिता की वल्लरी की ख़ुशी का ठिकाना न था |
गिलोय की लता को भूमि में पहुँच कर बहुत आनंद आया | उसने जी भर पानी पिया | कितनी प्यासी थी वह | आज तृप्ति मिली | तुरंत उसने अपने लिए भोजन भी बनाना प्रारम्भ कर दिया |
अपराजिता की वल्लरी गिलोय की जड़ से लिपटती हुई आकाश की ओर बढ़ने लगी | उसे प्रकाश की किरणों से अटखेलियाँ करनी थी | वह गिलोय का आभार मान रही थी कि उसने सहारा देकर वल्लरी को ऊपर उठा दिया |
और गिलोय इस बात से फूली नहीं समा रही थी कि जमीन से सम्बन्ध बनाए रखने में वल्लरी गिलोय की लता की सहायता करेगी |
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"और तुम भी तो बहुत प्यारी हो गिलोय लता! तुमने मुझे सहारा देकर आकाश की ऊंचाइयों से परिचित कराया|" गिलोय की जड़ के सहारे झूलते हुए अपराजिता वल्लरी बोली |
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