Friday, May 6, 2011

कुछ भूली यादें

दोपहर का समय था। नानी ने कहा ,"छोरी! ऊपर गेहूं धोकर सुखाये हैं। उनमें हाथ लगा आ ." मैंने सोचा शायद छोटे बच्चे गेहूं छू दें ,तो कुछ अच्छा होता होगा।
 मैं छत पर गई। धूप में एक बड़ी चादर पर  नानी ने गेहूं धोकर सुखा रखे थे। मैंने उनको छुआ और वापिस आ गई। बाद में जब नानी का ऊपर जाना हुआ, तो नानी ने नीचे आकर मुझे डांट लगाई बोली,"क्यों री छोरी! गेंहूं में हाथ नहीं लगाया? वैसे के वैसे पड़े थे।" मैंने रूआंसी होकर कहा,"मैंने तो गेंहू छुए थे।" 
  "छुए थे; क्या मतलब? अच्छी तरह उलटे पलटे नहीं थे?" नानी ने पूछा।     
 "नहीं नानी . आपने तो हाथ लगाने को कहा था न . तो मैं गेहूं छूकर आगई ." मैंने भोलेपन से कहा।
  नानी खूब हंसी। पुष्पा और माँ भी हंसने लगे। बाद में मुझे सबने बताया कि गेंहू में हाथ लगाना, मतलब कि उन्हें अच्छी तरह उलटना पलटना होता है। जिससे सारे गेहूं भली भांति सूख जाएँ। मुझे तब बड़ी झेंप आई। बाद में मै भी हंस पड़ी।
           तभी नानाजी घर आ गए . उन्होंने बताया कि उनकी बड़ी बहन की अचानक मृत्यु हो गई है। इसलिए फारूखनगर जाना पड़ेगा। जल्दी जल्दी में नानी ने ज़रूरी सामान साथ लिया और सभी फारुखनगर के लिए लिए रवाना हो गए।
               फारूखनगर में माँ की बुआजी के घर बहुत भीड़ इकट्ठी थी . माँ नानी और नानाजी तो वहां दुःख व्यक्त करने के लिए बैठ गए . लेकिन मेरे मामाजी की एक हमारे जितनी बेटी थी। वह हमें अपनने साथ खेत की तरफ ले गई। 
               वहां हर तरफ मटर ही मटर उगी हुई थी . पुष्पा ने मैंने और उस लड़की ने जी भरकर मटर खाए . फिर हम पानी पीने के लिए रहट के पास गए . 
रहट, अर्थात छोटे छोटे बहुत से डिब्बों की माला कूएं में अन्दर जा रही थी और बाहर आते समय हर डिब्बे में पानी होता था ; जो कि पास वाली चौडी सी नाली में गिर रहा था। उस नाली से वह पूरे खेत में सिंचाई कर रहा था . एक बैल की मदद से ये रहट चल रहा था . बैल गोल गोल घूम रहा था . उसके कारण ही डिब्बों की माला घूम रही थी . यही होता है रहट!
               







 .
रहट से पानी पीने के बाद हम खेत में खूब खेले . तभी एक व्यक्ति हमें बुलाने आ गया . उसने बताया कि नानाजी वापिस जा रहे हैं। हम भागे भागे वापिस गए . नानाजी कुछ गुस्से में थे .हम सब बाहर आए तो एक बैलगाड़ी तैयार खड़ी थी .
                        बैलगाड़ी में बैठने के बाद, नानाजी ने मुझे और पुष्पा को बहुत डांटा. उन्होंने कहा कि हम बिना किसी से पूछे क्यों चले गए थे? हम चुपचाप बैठे रहे।  नानी ने नानाजी को कहा कि बच्चों को ज्यादा नहीं धमकाया करते। तब नानाजी चुप हो गए . हम दोनों ने भी चैन की सांस ली।
 हम बैलगाड़ी के मज़े लेने लगे .बैलगाड़ी धीरे धीरे चल रही थी . ऊबड़ खाबड़ खेतों में चलते हुए बैलगाड़ी में बड़े हिचकोले लग रहे थे 
। वह बैलगाड़ी खीमा की थी।

बहुत जल्दी रात घिरने को आ गई । इतनी देर होने पर झज्झर वापिस कैसे पहुँचते? तो नानाजी ने कहा कि रात को ऊँटलोधा में खीमा के पास रुक जाते हैं . अगले दिन सवेरे उठकर झज्झर के लिए चल देंगे।
                                ऊँटलोधे में नानाजी के  दादाजी ने एक बहुत बड़ा खेत  दान में दे दिया था . उसके बीच में एक कूंवा था . नानाजी के दादाजी ने खीमा के दादाजी को उसका संरक्षक बना दिया था ; जिससे कि वह खेत में कुछ उगाए. कूंवा खेत कि सिंचाई के लिए बनवाया था . एक दो कमरे भी थे ,जिससे कि रात को यात्री वहां ठहर सकें . तो खीमा के दादाजी अपने परिवार के साथ वहां रहते ,खेती करते और अपना परिवार पालते .साथ ही रात में रुकने वाले यात्रियों का ख्याल रखते . खेत में जो फल सब्जियां पैदा होती थीं; उनमें से कुछ झज्झर भी पहुँचाते थे .
अपने दादाजी का यही कार्यक्रम खीमा भी बखूबी निभा रहा था. इसीलिए वह नानाजी को अपनी बैलगाड़ी में लेने पहुंचा था  खीमा ने कमरे में हमारे लिए बिस्तर लगवा दिए . सबको गर्म गर्म दूध दिया . मैं और पुष्पा एक ही पलंग पर सोये . नानाजी खीमा के साथ कुंए और खेत के सम्बन्ध में खीमा से देर तक बातचीत करते रहे .
                                      सवेरा हुआ तो खीमा ने हमें मक्खन के साथ रोटी और ताज़ी छाछ दी . यह नाश्ता करके तो मज़ा ही आ गया . फिर खीमा ने बैलगाड़ी तैयार की . हम सब उसमे सवार हुए . साथ में खीमा ने खेत में पैदा हुई कुछ ताज़ी सब्जियाँ भी रख दी . बैलगाड़ी में बिठाकर वो हमें बस अड्डे तक छोड़ कर आया। बस से वापिस हम  झज्झर पहुँच गए।
                                      घर पहुंचकर माँ और नानी दोपहर के भोजन के लिए रसोईघर में गई . रसोईघर के दो हिस्से थे . एक में तो मिटटी का चूल्हा और बर्तन वगैरह थे और अंदर के हिस्से में ईंधन जैसे गोबर के उपले ,सूखी लकड़ियाँ  इत्यादि रखे रहते थे . 
माँ अंदर से लकड़ी और उपले लाई और चूल्हा जलाया . नानी ने आटा गूंधा और नानाजी ने सब्जी काट दी . बस चूल्हे पर चटपट गर्मागर्म खाना तैयार हो गया . और लाल धधकते हुए उपलों पर जो रोटी सिकती है ; उसका तो कहना ही क्या ! ऐसा लगता है बस खाते ही जाओ . 
तो नानी ने रसोईघर में चटाई बिछा दी . सबसे पहले नानाजी ने खाना खाया . मैं और पुष्पा बाद में साथ साथ बैठे . नानी ने फूली फूली रोटियों  पर ताज़ा मक्खन लगा लगाकर  हमें गर्मागर्म रोटियां दी .वाह; क्या आनन्द आया! बाद में माँ और नानी ने खाना खाया . मैंने और पुष्पा ने सभी बर्तन माँज दिए
                   दोपहर में हवेली के सभी बच्चे खेल रहे थे . एक कुत्ता हवेली के आँगन में आ गया . मेरे हाथ में एक बांसुरी थी . नानाजी किसी मेले से वह मेरे लिए लाए थे . मैंने बांसुरी से कुत्ते को भागने की कोशिश की . शुरू में तो उसने कुछ नहीं कहा . परन्तु बाद में उसे लगा कि मेरी ही कद काठी जितना छोटा सा बच्चा मुझे परेशान कर रहा है . अब मुझे भी कुछ करना चाहिए . सो उसने आगे के पंजे मेरे ऊपर जमा दिए और बाजू के सबसे ऊपर वाले हिस्से में खूब जोर से काटा।
 यह देखकर नानाजी एकदम आये और उन्होंने कुत्ते को वहां से भगाया . जहाँ कुत्ते ने काटा वहां उसके जबड़े की छाप पड़ चुकी थी और खून बह रहा था . माँ  तो घबरा गई . मैं बेतहाशा रोए जा रही थी . हवेली के सब लोग इकट्ठे हो गए . किसी ने कहा लाल मिर्च घाव पर बुरक दो . पर नानाजी बोले मैं इसे डाक्टर के पास लेकर जाऊँगा . सब कह रहे थे कि कुत्ता काटने पर पेट में चौदह इंजेक्शन लगते हैं . मैं तो एकदम डर गई . पर नानी ने  प्यार से पुचकारते हुए मुझे तसल्ली दी कि कुछ नहीं होगा।
                           झज्झर के डाक्टर पर नानाजी को कम विश्वास था। उन्होंने निश्चय किया कि रोहतक में बड़े डाक्टर के पास लेकर जाएँगे. रोहतक में माँ की मौसी भी रहती थी. नानाजी तभी मुझे साथ लेकर रोहतक के लिए रवाना हो गए . रात ढलने को थी. नानाजी ने सोचा रात को माँ की मौसी के घर सो जायेंगे. रोहतक में माँ की मौसी का बहुत बड़ा घर था . मुझे माँ की मौसी ने बहुत प्यार किया और रात को अपने पास ही सुलाया . 
सवेरे नानाजी बड़े डाक्टर के पास गए . डाक्टर ने हर बात ध्यान से सुनी . वह इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि कुत्ता पागल नहीं है . उसने नानाजी से कहा कि इंजेक्शन की कोई ज़रुरत नहीं है . मेरी तो जान में जान आई . उसने बताया कि अगर कुत्ता कुछ दिनों बाद मर जाए तो चिंता का विषय हो सकता है ; अन्यथा कोई बात नहीं . 
                             झज्झर वापिस आने पर नानाजी ने नानी को सब कुछ बताया. नानी ने मुझे बहुत पुचकारा।  शाम को मंदिर में प्रसाद भी बांटा।  अगले दिन मुझे माँ के साथ दिल्ली वापिस आना था . नानी, नानाजी और पुष्पा ने हमें भावपूर्ण विदाई दी।
                            दिल्ली पहुँचने के बाद नानी की चिट्ठी आती ही रहती थी कि मैं ठीक तो हूँ ? मैं भी नानी को नियमित रूप से जवाब भेजा करती . नानी ने कुत्ते पर पूरी नज़र रखी और मुझे चिट्ठी लिखकर बताया कि न तो कुत्ता पागल हुआ न ही वह मरा . अत: चिंता की कोई बात नहीं है। कुछ दिनों बाद नानी रानीगंज चली गई। लेकिन वहां से भी वे मेरे लिए चिट्ठी भेजकर हाल चाल पूछती रहती थी।
 








                

1 comment:

  1. क्या खूब!दना दन ढेर सारे लेख!
    सारे लेख पढ़े, बहुत खूबसूरत! बहुत जिजीविषा और संवेदना पूर्ण अभिव्यक्ति.
    बहुत बधाई

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