Sunday, May 8, 2016

कौन हूँ मैं !

पल पल अनुभूति का संग्रह हूँ मैं
बिगड़ते बनते क्षणों का विग्रह हूँ मैं
समय की गोद में समाहित हुई
कटु वेदनाओं  का परिग्रह हूँ मैं
              नीले आकाश का विस्तार हूँ मैं
               प्रकृति के रूप का श्रृगार हूँ मैं
              जड़ चेतन के कण कण में समाये
              सूक्ष्म अणु के गर्भ का संचार हूँ मैं
शुद्ध सरलता साकार हूँ मैं
सम्पूर्ण सृष्टि का व्यवहार हूँ मैं
कटु कठिन पथ के कंटकों पर
सौम्य मखमली विस्तार हूँ मैं
                 तीव्र  वेदना में कटु औषधि मैं
                अति शुष्क उर में जलनिधि मैं
                विपुल दुःखभरी सन्तप्तता का
                 सतत बोझ हरता प्रतिनिधि मैं
दीप्त भाल की उद्दीप्ति हूँ मैं
अंतर्मनस की संतृप्ति हूँ मैं
शुभचेतना के नवपटल पर
सदभाव की अभिव्यक्ति हूँ मैं
                    इस क्रूर जग का सार हूँ मैं
                    गहन तमस का विस्तार हूँ मैं
                 आंसुओं के बोझ सहती वेदना का
                  शान्त, मूक, असीम पारावार हूँ मैं
यह कौन जाने, कौन हूँ मैं
हूँ तो चकित! पर मौन हूँ मैं
कुछ रहस्यों से भरी इन गुत्थियों का
ही कदाचित सहज दृष्टिकोण हूँ मैं


Wednesday, May 4, 2016

सिरदर्दी या समृद्धि!

सड़क के उस पार एक किरयाने की अच्छी सी दुकान है । घर की रोज़मर्रा की सभी ज़रूरतों का सामान वहाँ से मुहैया हो जाता है । दूध दही से लेकर मसाला आटा और बच्चों के लिए चॉकलेट बिस्कुट इत्यादि हर चीज़ वहाँ मिलती है । वहाँ जो महिला सामान देती हैं ; वे बहुत भली सी लगती हैं मुझे ! बिलकुल सरल स्वभाव है उनका। उनसे प्रतिदिन दूध तो लाना ही होता है तो साथ में कुछ गपशप भी हो जाती है। 
                  एक दिन बड़ी परेशान सी लग रहीं थीं। मैं उन्हें भाभीजी कहकर बुलाती हूँ । मैंने कहा ," भाभीजी! क्या बात है ? कुछ परेशान हो।"
                वे बोलीं ,"हाँ । देखो ये दीवारों के साथ जो ढेर सारी झुग्गियाँ फैली हुई हैं; ये सिरदर्दी का कारण हैं। कितनी गन्दगी होती है इनकी वजह से ! पूरी सड़क घेरी हुई है । ट्रैफिक भी आराम से नहीं आ जा सकता । नहीं तो हमारी दुकान और अधिक चले । पता नहीं, कब हटेंगी ये झुग्गियाँ ?"
         मैं भी उनकी बात से सहमत थी । हॉउसिंग सोसाइटी की दीवारों के साथ लगी हुई झुग्गियों की वजह से बाहर मुख्य सड़क पर जाना आना कठिन था । और मेट्रो स्टेशन तो घूम कर पूरा चक्कर लगाकर रिक्शा पर ही जाना पड़ता था । झुग्गियाँ न होती तो मेट्रो स्टेशन की दूरी पांच मिनट की ही थी। वाकई थी तो झुग्गियाँ सिरदर्दी ही!
                           एक दिन अचानक खबर आई कि सभी झुग्गी निवासियों को झुग्गी के बदले मकान मिल रहे हैं। उस दिन मैं दूध लेने गई तो भाभीजी का चेहरा खिला हुआ था । खुश होकर वे बोली," अब तो झुग्गियाँ हट जाएंगी । सड़क चौड़ी भी हो जाएगी और साफ सुथरी भी ।" मैंने भी स्वीकृति में सिर हिलाया। वे ठीक कह रही थी। 
और सचमुच एक दिन बड़े ही शांतिपूर्ण तरीके से शाम तक सारी झुग्गियाँ टूट गई। वे लोग अपनी सारी ईंटें इत्यादि भी उठा ले गए और नए मकानों में चले गए। सभी लोग ख़ुशी ख़ुशी एक दूसरे को बधाई देने लगे । भाभीजी तो ख़ुशी से फूला नहीं समा रही थी। मैं भी बहुत खुशी ख़ुशी उनसे दूध लेकर आई। 
       आज मैं उनसे दूध लेने गई तो भाभीजी बहुत उदास थीं। मैंने उनकी उदासी का कारण पूछा तो वे बोलीं," इस बार तो महीने की कमाई आधी ही रह गई । जब कारण का पता लगाया तो मालूम हुआ कि झुग्गियों में रहने वाले बच्चे हमारी दूकान से खूब टॉफियाँ , चिप्स , ब्रैड,  दालें, आटा मसाले आदि ले जाते थे। हमने तो कभी सोचा ही नहीं था कि झुग्गियों की वजह से हमारी इतनी आमदनी है। मैं तो इन झुग्गी वालों को सिरदर्दी का कारण समझती थी।" 
मैंने हँसकर कहा," परन्तु वे तो आपकी समृद्धि का कारण निकले!"