Monday, September 29, 2014

नटखट नन्हा !


तुम्हें करबद्ध देख ,
प्रसन्नता का आवेग,
दादी रोक नहीं पाई ।
नन्हीं सी अंगड़ाई,
गोद में आने को ,
आतुर हो उठी।
सीने की नरम उष्णता ;
पौत्र  के वात्सल्य में डूबकर ,
असीमित आनन्द की,
सुखद अनुभूति दे ,
स्वयं का एहसास भुला गई।
खोई सी मैं ऋषि को निहारती;
पुचकारती ,दुलारती,
रसमग्न हो जाती हूँ ।
ऋषि , मेरे नन्हें पौत्र !
मैं अधूरी थी।
परिपूर्णता , सम्पूर्णता का आभास,
तुमने अनायास ही करा दिया।
अनुग्रहित हूँ मैं !!
निर्निमेष तुम्हारे नेत्र ,
शीघ्र परिचय को उत्सुक हैं।
शायद हम चिर परिचित हैं ;
यह सच है न ?
तुम मुस्कुरा रहे हो ।
नटखट कहीं के !



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